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    सारंगी की सतरंगी धुन को सुन, तार की मीठी धुन पर बजने वाली सारंगी सुनने वाले को दिलीआराम देती है

    By Taruna TayalEdited By:
    Updated: Sun, 11 Sep 2022 05:30 PM (IST)

    सारंगी मुख्य रूप गायकी प्रधान वाद्य यंत्र है। संगीत की महान परंपरा किराना घराना के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खां शुरुआती दौर में सारंगी वादक ही थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ के अलावा यमुना की पट्टी खासकर कैराना और शामली जिले में सारंगी के कारीगर भी थे।

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    ओ... ठहर जरा इंसान तू सुन ले सारंगी की तान।

    मेरठ, न‍िश‍िपाल सिंह। सारंगी। भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक ऐसा वाद्य यंत्र है जो गति के शब्दों और धुन के साथ इस प्रकार से मिलाप करता है कि दोनों की तारतम्यता देखते ही बनती है। सारंगी मुख्य रूप गायकी प्रधान वाद्य यंत्र है। यही वजह है कि संगीत की महान परंपरा किराना घराना के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खां शुरुआती दौर में सारंगी वादक ही थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेरठ के अलावा यमुना की पट्टी खासकर कैराना और शामली जिले में सारंगी यंत्र बनाने के कारीगर भी थे। इसी धरती ने पदमश्री उस्ताद शकूर खान सरीखे अनेकों विश्वविख्यात सारंगी वादक में दिए। कह सकते हैं कि भारतीय संगीत इस सुरीले वाद्य यंत्र के बिना अधूरा है। मनमोहक सारंगी का बखान करती रिपोर्ट...

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    मेरठ में सारंगी तान को संवारते हाथ

    राजेश धवन तार, हथौड़े और छेनी की आवाज सुनते हुए बड़े हुए क्योंकि उनके पिता ने 70 के दशक में उस्ताद पंडित रविशंकर द्वारा इसे विश्व प्रसिद्ध बनाने के बाद वाद्य यंत्र की मांग को पूरा करने के लिए दिन-रात सितार बनाया करते थे। सारंगी बनाने में लाल लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसे तैयार होने में लगभग एक दशक का समय लगता है। धवन के लिए यह एक रहस्योद्घाटन था। तभी उनका परिचय बेहरा यासीन की कथा से हुआ, जिनकी आने वाली पीढ़ियों द्वारा सारंगियों को “अनमोल स्ट्राडिवेरियस के भारतीय समकक्ष” से कम नहीं माना जाता था। जो अब तक का सबसे बेहतरीन वायलिन है। धवन ने बताया कि सारंगी के 40 तार को धुनने में एक महीने का समय लगता है। धवन ने मेरठ की सारंगियों की खोई हुई विरासत को पुनर्जीवित करने का काम अपने ऊपर लिया। धवन का लक्ष्य मेरठ का खोया हुआ गौरव वापस लाना था।

    ऊंचे स्वर के लिए होती है पतले तारों की जरूरत

    राजेश धवन ने बताया कि कि जैसे पजामे की लंबाई व्यक्ति के कद के साथ बदलती जाती है, लेकिन वह अपनी पहचान नहीं खोता। ठीक उसी प्रकार यह यंत्र भी कलाकार के हिसाब से संवरता है। मेरे पास अक्सर मरम्मत के लिए पुरानी सारंगी, टार्गेहेन जहां से तारे लटकी होती है, और यह यंत्र की गर्दन के पीछे होता है। इसे बार बार ठीक करने की जरूरत होती है। वह इसे एक पीतल की चादर से मजबूत कर देते हैं। इसी के साथ नीचे स्वरों के लिए मोटी तारों वाली सारंगी का उपयोग धूपद गायन के साथ होता है। आज ऊंचे स्वरों के लिए पतली तारों की आवश्यकता होती है। नामधारी सिख अपने संगीत के लिए उनके द्वारा बनाए हल्की परिवर्तित सारंगी का प्रयोग करते हैं। पुराने सारंगी बजाने वालों को खास तरह से बाउ पर हेयर्स का ध्यान रखना होता है। आज न तो गुरु सर्वोच्च ज्ञान देना चाहते हैं, और ना ही शिष्य ध्यानपूर्वक उस पर अमल करना चाहते हैं।

    छह साल के लगातार प्रयोग से अंतिम चरण में पहुंचती है सारंगी

    सारंगी तैयार करने के लिए सही आकार की लकड़ी जो 60 से 70 साल पुराने पेड़ की हो उसकी आवश्यकता होती है। टीक का उपयोग कोमल और हल्के वजन की सारंगी बनाने के लिए किया जाता है। इसे बनाने के लिए टन की लकड़ी मजबूत और सही है। इस पेड़ के वन सरकार संरक्षित कर रही है, और लकड़ी खरीदने में मुश्किल होती है। सारंगी बनाने के लिए पारंपिरक सामान और हाथों का उपयोग होता है, क्योंकि आटोमेटिक मशीनों द्वारा लकड़ी की बनावट खराब हो जाती है। यंत्र की बनावट पर भी इसका असर पड़ता है। आकार में काटे हुए लड़की के हिस्से, प्राकृतिक उपचार के लिए 4 से 5 साल के लिए छोड़ दिए जाते हैं। बीच के भाग को या जो भी हिस्सा यन्त्र की बनावट के लिए अनावशयक है, उसे निकाल कर थोड़ी देर फिर उपचार के लिए रखा जाता है। लेकिन ज्यादा समय तक रखने पर उसमे दरारें प्रकट पड़ने लगती है। शुरुवात से अंत तक हलकी पालिश के लिए प्राकृतिक उत्पादों का बिना केमिकल के उपयोग होता है। ग्रेन बहुत ढीले बंधे होते हैं क्योंकि इसको लगातार बजाने से ही अंतिम सुरीली ध्वनि प्राप्त होती है। केवल 5 से 6 साल तक के लगातार प्रयोग से ही सारंगी अपनी अंतिम चरण तक पंहुचती है।

    ऊंट की हड्डी से बनता है विशेष भाग

    इस यंत्र में 11 तार ऊपर एक खूंटे से बंधी होती है। नौ तार एक तरफ और 15 तार दूसरी तरफ, तीन मुख्य तार “सा पा सा” बड़े खूंटे से, दो एक तरफ और एक अलग बंधी होती है। सारे खूंटे सागौन की लकड़ी से बने हैं। मजबूती से छेद में खूंटों को जोड़ना, जिससे वह आपस में न उलझें। पर सामान्य मात्रा में बल लगाने के लिए विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर 35 तार होती हैं। इस संगीत यंत्र के गर्दन के पीछे का भाग “तरगहन” है, और तेह का पिछला भाग “लंगोट” कहलाता है। उसके अंदर का सफेद भाग जो हाथी और शेर के दांत से बनता था, अब ऊंट की हड्डियों से बनता है। इसमें आवश्यक गुण होते हैं। उसमें छेद किए जाते हैं और पतली हड्डियों के राड इन छेदों में डाले जाते हैं। बाकी का भाग साफ कर दिया जाता है। पालिश के पश्चात सारंगी का लगातार उपयोग करने से ही वह मजबूत होती है। बनने के समय भी उसका सदैव उपयोग करना है। इस तरह किसी भी कार्यक्रम से पहले यही विधि अनुसार इसका प्रयोग होता है जो कंप्यूटर और त्वरित समाधान के इस युग में मिलना अत्यंत मुश्किल है।

    ध्वनि के उत्पादन में धनुष की गुणवत्ता का योगदान

    सारंगी सबसे कठिन उपकरणों में से एक होने के कारण इसे बनाने की कला को विकसित करने में उन्हें वर्षों लग गए। इसे ट्यून करना एक और चुनौती थी, लेकिन भारत भूषण गोस्वामी सहित उस्तादों का दौरा करने से उन्हें इसकी बारीकियां और कला सीखने में मदद मिली। 40 स्ट्रिंग्स को ट्यून करना राजेश धवन ने बेहरा की बनाई एक पुरानी सारंगी को देखकर सीखा। अब धवन को मेरठ सारंगी के पुनरुद्धार का श्रेय जाता है। धवन तार वाले वाद्य में आत्मा को झोंकने की कला को जानते हैं, उनकी यह कला लोगों को फिर से मेरठ की ओर खींच रही है। धवन एक कुशल सारंगी निर्माता होने के साथ ही देश के बेहतर धनुष बनाने वाले भी हैं। उनकी सारंगी में ध्वनि के उत्पादन में धनुष की गुणवत्ता का एक बड़ा योगदान है। धवन का उपकरण अपनी लागत प्रभावशीलता के लिए भी जाना जाता है। इसके एक पीस की कीमत लगभग 35 हजार रुपये है, जिसे मामूली कीमत ही माना जाता है।