गजनवी के वजीर की इबादतगाह को नसीरुद्दीन ने बनाया जामा मस्जिद
हजारवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है मेरठ की जामा मस्जिद, उत्तर भारत में सबसे पुरानी
जामा मस्जिद की बात अगर चलती है तो जेहन में सबसे पहले दिल्ली का ख्याल आता है, लेकिन मेरठ की जामा मस्जिद का इतिहास इससे भी सैंकड़ों साल पुराना है। कह सकते हैं कि मेरठ की जामा मस्जिद उत्तर भारत की सबसे पुरानी मस्जिद है। इसकी स्थापत्य कला भी बाकी मस्जिदों से जुदा है। आज यह मस्जिद अपनी स्थापना के 1000वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। मजबूती और महत्व के नजरिए से भी यह बाकी मस्जिदों से उम्दा है। आइए, ईद के मौके पर इस इबादतगाह की खासियत आपसे साझा करते हैं। इतिहास के आइने में देखें तो मेरठ की जामा मस्जिद की नींव महमूद गजनवी के शासनकाल में रखी गई, लेकिन खुदा की यह इबादतगाह जामा मस्जिद के रूप में गुलाम वंश के शासक नसीरुद्दीन महमूद के समय में तैयार हुई। यानी, हिजरी 410 से शुरू हुआ सफर हिजरी 647 में परवान चढ़ा।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि मजमूद गजनवी के वजीर हसन महबंदी जब मेरठ आए तब मुस्लिमों की आबादी काफी कम थी। बाले मियां के साथ इन्होंने मेरठ में काफी समय बिताया। तभी कई सूफी लोग भी यहां बसे। ऐसे में इन लोगों की इबादत के लिए वर्ष 1019 में महबंदी ने मस्जिद की नींव रखवाई। तब यह मस्जिद छोटी थी। गुलाम वंश नसीरुद्दीन महमूद के हाथ सत्ता आई तो उनके वजीर बलबन ने मस्जिद निर्माण को काम पूरा कराया। उसी समय इस मस्जिद को जामा मस्जिद का दर्जा दिया गया। इस तरह उत्तर भारत के सबसे पहले जामा मस्जिद का निर्माण मेरठ में हो गया। इस मस्जिद की दीवारें भले ही उम्रदराज हो गई हों, लेकिन अंदर जाने पर गुंबद के नीचे की नक्काशी मंत्रमुग्ध कर देगी। तुगलककाल से शहरकाजी जामा मस्जिद के इमाम
जामा मस्जिद के नियमों के मुताबिक, शहरकाजी जामा मस्जिद का इमाम होता है। यह प्रथा मोहम्मद बिन तुगलक के समय से चली आ रही है और आज भी कायम है। मौजूदा शहरकाजी प्रो. जैनुस साजिद्दीन सिद्दीकी बताते हैं कि उनका परिवार लगभग 300 वर्ष से इस सेवा में जुटा हुआ है। इसके तो प्रमाण भी मस्जिद में मिल जाएंगे। 1870 के दशक में हुई थी मरम्मत
मेरठ की इस जामा मस्जिद को 999 साल हो चुके हैं, लेकिन मजबूती में इसका कोई सानी नहीं। इतिहास में दर्ज है कि एक बार 1870 के दशक में मस्जिद का एक गुंबद गिर गया था, जिसकी ब्रिटिश सरकार ने मरम्मत कराई थी। प्रो. सिद्दिकी इस बात को पुष्ट करते हुए बताते हैं कि तब उनके दादा के दादाजी शहर काजी थे, एक हिस्से की मरम्मत के लिए ब्रितानी हुकूमत को उन्होंने खत लिखा था। इस पर लगभग दो हजार रुपये खर्च हुए थे। ..मुखबिरी के लिए मस्जिद के बराबर में बना दिया थाना
आजादी की लड़ाई का भी यह मस्जिद बड़ा केंद्र रहा। 1857 की क्रांति में भूमिका बड़ी थी। ऐसे में क्रांति कुचलने के बाद जब अंग्रेजों ने कार्रवाई शुरू की तो शहरकाजी अब्दुल कारी को सजा देने का मन बना रहे थे। जब उन्हें बताया गया कि मुस्लिम समाज इससे और आंदोलित हो जाएगा तो उन्होंने कदम पीछे खींच लिए। हालांकि, इसके बाद ही मस्जिद के निकट उन्होंने कोतवाली थाना बना दिया ताकि निकट रहकर मस्जिद की गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। मुगलों से काफी अलग है इस जामा मस्जिद की कला
इस जामा मस्जिद की बनावट मुगलकालीन स्थापत्य कला से अलग है। चूंकि यह मुगलकाल के पहले ही बन गई थी, लिहाजा इसकी बनावट और मुगलकालीन इमारतों की बनावट में बुनियादी फर्क है। इस मस्जिद का गुंबद पलटी हुई प्याली की शक्ल में दिखता है। इसकी गर्दन नहीं है, जबकि मुगलकालीन मस्जिदों में गुंबद सुराहीनुमा होता है। हालांकि मुगलकाल के बाद भी इस मस्जिद में कुछ-कुछ बनता रहा। ऐसे में इसमे मुगलकाल के पूर्व और बाद की कला का मेल दिखता है।
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