Kanwar Yatra History: राेचक है यात्रा का इतिहास, पहले कांवड़िया थे रावण, प्रभु श्रीराम भी लाए थे कांवड़
Kanwar Yatra 2024 Know History भगवान शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से मन शीतल होता है। शिव भक्तों की टोली हरिद्वार व अन्य स्थानों से गंगाजल केलिए निकले हैं। शिवरात्रि पर भाेले को कांवड़ चढ़ाएंगे। परशुराम ने इस परंपरा को शुरू किया था और राम के साथ रावण भी इससे हिस्सा रहे थे।
ओम बाजपेयी, जागरण मेरठ। Kanwar Yatra History: दिल्ली-देहरादून हाईवे हो या फिर गंग नहर पटरी कांवड़ियां शिवालियों की ओर बढ़ रहे हैं। आस्था और अनुशासन के उल्लास में बहती केसरिया लहर में बम भोले का जयघोष नभमंडल को भी स्पर्श कर रहा है। वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का संगम होने पर ही यह कांवड़ भक्ति और आस्था में परिवर्तित हो जाती है।
परशुराम ने शुरू की थी कांवड़
कांवड़ यात्रा को लेकर कई पौराणिक मान्यताएं हैं। सदर बिल्वेश्वर संस्कृत महाविद्यालय के डा. पंकज झा ने बताया सबसे प्रचलित कहानी परशुराम की है। कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव (जनपद बागपत) में मंदिर की स्थापना की।
परशुराम ने कावड़ में गंगाजल लाकर पूजन कर कावड़ परंपरा की शुरुआत की। वर्तमान में देशभर में कांवड़ यात्रा काफी प्रचलित है। कथा के अनुसार कावड़ परंपरा शुरू करने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए। परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कावड़ में जल लाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते थे।
भगवान राम और रावण भी लाए थे कांवड़
डा. झा ने बताया कि दूसरी कथा के अनुसार शिव का परम भक्त लंका नरेश रावण पहला कांवड़िया था। रावण भी शिव को प्रसन्न करने के लिए कांवड़ में गंगाजल लेकर आता था और जलाभिषेक करता था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी शिव की पूजा करने के साथ कावड़ लाकर गंगाजल का अभिषेक किया। कांवड़ को लेकर कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं।
चार प्रकार की होती है कावड़ सामान्य कावड़
हरिद्वार और गंगोत्री से गंगाजल लेकर चलने वाले कांवड़िये अपनी आस्था के अनुसार यात्रा पूरी करते हैं। कांवड़ के चार प्रकार निर्धारित किए गए हैं।
सामान्य कांवड़
इस प्रकार की कांवड़ लाने वाले शिवभक्त अपनी यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम के दौरान कावड़ स्टैंड पर रखी जाती है। इस दौरान कांवड़ जमीन से दूर रखी जाती है। इसे झूला कांवड़ भी कहा जाता है।
डाक कावड़
डाक कावड़ यात्रा में भक्त को लगातार चलते रहना पड़ता है। वह यात्रा शुरू करने के बाद जलाभिषेक के बाद ही रुकते हैं। यह यात्रा एक निश्चित समय के अंदर पूरी करनी पड़ती है। वर्तमान में शिव भक्त समूह में यह यात्रा करते हैं। वर्तमान में डाक कांवड़ की संख्या में काफी वृद्धि हो रही है।
खड़ी कावड़
बड़ी संख्या में शिव भक्त खड़ी कावड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए सहयोगी भी साथ चलता है। यात्रा के दौरान कांवड़ को सिर्फ कंधे पर ही रखा जा सकता है। इसे काफी कठिन यात्रा माना जाता है।
दांडी कावड़
सबसे अधिक कठोर दांडी कांवड़ है। भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। दंड के अनुसार कावड़ यात्रा की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेटकर नापते हुए पूरी करते हैं। कई दिनों में पूरी होने वाली इस यात्रा का अंत शिवालय पहुंचकर भोलेनाथ पर जलाभिषेक के साथ होता है।
समय के साथ बदली कांवड़
पौराणिक समय से आधुनिक काल तक का सफर तय करते हुए कांवड़ के स्वरूप और आस्था में भी काफी बदलाव हुआ है। अब काफी संख्या में शिव भक्त अपने वाहन पर गंगाजल लेकर भोले पर चढ़ाने के लिए निकलते हैं। डाक कांवड़ के दौरान डीजे की तेज आवाज और भव्य साज-सज्जा का पूरा ध्यान रखा जाने लगा है।
उधर, पहले गंगोत्री और हरिद्वार का पैदल रास्ता दुर्गम होने के कारण गंगाजल लेकर आने वालों की संख्या गिनती की होती थी, लेकिन अब कांवड़ मार्गो पर प्रशासन की बेहतर व्यवस्था और शिविरों की बढ़ती संख्या ने कांवड़ यात्रा को काफी आसान कर दिया है।
शिवरात्रि और महाशिवरात्रि
वर्ष में कुल 12 शिवरात्रि होती हैं। सबसे अहम फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि को माना जाता है। इंद्रप्रस्थ पीठाधीश्वर कृष्णस्वरूपानंद महाराज बताते हैं कि मान्यता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन माह भगवान को सबसे प्रिय है। मान्यता है कि सावन में शिवरात्रि में व्रत, आराधना करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है। मान्यता है कि कुंवारे युवाओं को मनचाहा जीवन साथी की प्राप्ति होती है।
पीढ़ियों से बना रहे कांवड़
घंटाघर स्थित वाल्मीकि प्रतिमा स्थल के पास ठेले पर बैठे गुलफाम कांवड़ बनाने में जुटे हैं। बताया सामान्य कांवड़ 500 रुपये की है। दाम गत वर्ष की तरह ही हैं। बताते हैं कि अब मेरठ से कांवड़ ले जाने का चलन कम हो गया है अधिकांश भक्त हरिद्वार में ही कांवड़ खरीद लेते हैं। मेरठ के कई कारीगर इन दिनों हरिद्वार में हैं।
पश्चिम उप्र के कांवड़ मार्ग
- मंगलौर से मुरादनगर तक गंगनहर पटरी मार्ग।
- राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-58
- मुजफ्फरनगर-बुढ़ाना-दाहा कांवड़ मार्ग।
- सरूरपुर रजवाहा से पुरामहादेव मार्ग।
- मेरठ से बागपत कांवड़ मार्ग।
- मेरठ-हापुड़-बुलंदशहर मार्ग।
- गंगनहर अनूपशहर शाखा मार्ग।
मुख्य शिवालय
- मेरठ - औघड़नाथ मंदिर कैंट, महादेव शिव मंदिर दबथुवा, महादेव शिव मंदिर दौराला, महादेव शिव मंदिर गगोल, शिवमंदिर भोलाझाल, शिवमंदिर ग्राम नंगली।
- बागपत - पुरा महादेव मंदिर
- गौतमबुद्धनगर - शिव मंदिर नानकेश
- बुलंदशहर - राज राजेश्वर मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर खुर्जा, महादेव मंदिर आहार
- हापुड़ - ब्रजघाट गढ़मुक्तेश्वर, चंडी देवी हापुड़
- गाजियाबाद - दुधेश्वर नाथ महादेव मंदिर
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