एकता व समरसता की पर्यायवाची है भारतीय संस्कृति
महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा था-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से बाहर चलने वाल
मेरठ,जेएनएन। महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा था-'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से बाहर चलने वाला या तो पशु है या देवता है।'
हमारा देश भारत, एक ऐसा देश है, जहां विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, समुदाय के लोग एकसाथ रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी भारतीय संस्कृति विश्व के लिए सामाजिक एकता और समरसता का पर्यायवाची है। अत: आज के समय में 'सामाजिक एकता व समरसता' को बनाए रखना हमारे समाज व राष्ट्र की सर्वोपरि आवश्यकता है।
सामाजिक समरसता एवं एकता से अभिप्राय है 'एकात्मक भाव' से युक्त ऐसे समाज का निर्माण करना, जिसमें जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच, अस्पृश्यता जैसे विचारों का कोई स्थान न हो। जो आपसी प्रेम, सौहार्द व भाईचारे के साथ 'बहुजन सुखाय बहुजन हिताय' की भावना पर भी आधारित हो।
ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो उसने किसी प्राणी में कोई भेदभाव नहीं किया था। सब एकसमान थे। उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान था। इसी भाव को हृदय से स्वीकार करना ही सामाजिक एकता व समरसता है। किंतु जब हम अपनी संकुचित सोच से जाति, वर्ण, धर्म, समुदाय के आधार पर प्राणियों को बांट देते हैं, तो इससे सामाजिक एकता को बहुत हानि पहुंचती है, क्योंकि एक समाज में रहते हुए हम सभी अपनी छोटी से छोटी आवश्यकताओं के लिए एक दूसरे पर आश्रित हैं, निर्भर हैं। सोचिए! यदि सब एक दूसरे को सहयोग देना बंद कर दें, तो जीवन कितना कठिन हो जाएगा। समाज किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म या समुदाय विशेष से नहीं बनता है। समाज की संपूर्णता के लिए प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग महत्वपूर्ण है। उदाहरण के तौर पर मानव शरीर का प्रत्येक अंग महत्वपूर्ण होते हुए भी स्वतंत्र रूप से अस्तित्वविहीन है, क्योंकि विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही किसी कार्य को अंजाम देते हैं। हमारे हाथ की प्रत्येक अंगुली दूसरी अंगुली से आकार में भिन्न है, किंतु इसी हाथ से जब हमें लिखना हो, वजन उठाना हो या खाना ही क्यों न खाना हो तो किसी एक उंगली से यह संभव नहीं है, इसी तरह कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र होते हुए भी तब तक अस्तित्व विहीन है जब तक कि मिलकर समाज में न रहे। एक दूसरे को सहयोग न दे। अत: सामाजिक समरसता लाने के लिए समाज को एकजुट करना, पारस्परिक मतभेद समाप्त करना नितात आवश्यक है। जब हमारे संविधान में भी हमें बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त है तो हमें भी जाति, धर्म, समुदाय जैसे भेदभाव भुलाकर एकजुट होकर रहना सीखना होगा।
भारतीय संस्कृति तो 'वसुधैव कुटुंबकम' के सिद्धात पर ही आधारित है। हम सभी ने पंचतंत्र की यह कहानी तो अवश्य पढ़ी होगी, जिसमें शिकारी के जाल में फंसे कबूतर जब अलग-अलग निकलने का प्रयास करते हैं तो सफल नहीं हो पाते। किंतु जब वे सारे मिलकर एक साथ प्रयास करते हैं, तो जाल लेकर उड़ जाते हैं और अपने मित्र चूहे की सहायता से जाल कटवाकर स्वतंत्र हो जाते हैं। यह तो मात्र एक उदाहरण है। ऐसे असंख्य उदाहरण है जो 'एकता' के सिद्धात की व्याख्या करते हैं। यही नहीं, भारत के महापुरुषों महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, दयानंद सरस्वती, गाधीजी इत्यादि ने भी मानव जाति के कल्याण के लिए सामाजिक एकता और समरसता का संदेश दिया।
इसी सामाजिक एकता व समरसता के सबसे बड़े उदाहरण हैं हमारे शिक्षा के मंदिर, हमारे विद्यालय, जहा जाति धर्म, वर्ण, समुदाय, धनी-निर्धन के भेदभाव को भुलाकर हर बच्चा जब स्कूल की यूनिफार्म पहनता है तो वह सामाजिक एकता को ही दर्शाता है। स्कूल में बच्चा अन्य सामाजिक गुण जैसे एक साथ उठना-बैठना, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना आदि भी सीखता है क्योंकि आत्मीयता, समन्वय, बंधुत्व, सर्वहित, सामूहिक चेतना, यह गुण अगर बचपन से ही विकसित हो जाए तो उत्तम समाज का निर्माण होता है।
हमारे प्राचीन, प्रमाणिक और वैज्ञानिक ग्रंथ 'ऋग्वेद की ऋचा' के व्याप्त संदेश 'संगच्छध्वं संवदध्वं स वो मनासि जानताम' (हम सब सदैव एक साथ चलें, एक साथ बोले। सभी का मन एक जैसा हो) भी एकता व समरसता के भाव को ही व्यक्त करता है। अत: जब हम सब को समान समझकर समाज एवं राष्ट्र की एकता व अखंडता को बनाए रखने का प्रयास करेंगे तभी विभेद मुक्त आदर्श समाज का निर्माण संभव है।
प्रस्तुति : सुधांशु शेखर, प्रिंसिपल, केएल इंटरनेशनल स्कूल।
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