अभिनय की डोर पकड़ दिल में गहरे तक उतर जाते थे दिलीप बाबू
भारतीय सिनेमा में ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर दिलीप कुमार अब हम लोगों के बीच नहीं

मेरठ,जेएनएन। भारतीय सिनेमा में ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर दिलीप कुमार अब हम लोगों के बीच नहीं रहे लेकिन अपने जानदार अभिनय और शानदार फिल्मों के दम पर वो हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते रहेंगे। आज के समय में एक बार कोई फिल्म देखने के बाद लोग शायद ही उसे दोबारा देखना चाहेंगे, लेकिन ट्रेजडी किंग दिलीप साहब का जलवा कुछ यूं था कि उनकी फिल्मों की खुमारी लोगों के सिर पर हरदम छाई रहती थी। मेरठ के सिनेमाहाल में जब-जब दिलीप कुमार की फिल्में लगती थीं, लोग बार-बार उस फिल्म को देखने के लिए जाते थे। फिल्म देखने के बाद उन्हें हर बार नयापन लगता था।
नंदन सिनेमा के निदेशक देवेश त्यागी बताते हैं कि दिलीप कुमार की फिल्मों को लेकर बड़ा क्रेज था। उनकी कोई फिल्म अगर दोबारा भी लगती थी तो भी लोग उसे देखने के लिए आते थे। पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार अभिनीत मुगले आजम और दिलीप कुमार, मनोज कुमार अभिनीत क्राति तो जब-जब मेरठ में लगीं, दर्शकों ने उन्हें अपार प्यार दिया। मेरठ में इन दोनों ही फिल्मों ने सफलता की नई इबारत लिखी थी। हर उम्र के लोग इन्हें पसंद करते थे। उस दौर में दिलीप कुमार की एक से बढ़कर एक फिल्में आईं। मेरठ के विभिन्न सिनेमाहालों में उनकी लगभग सभी फिल्में झूमकर चली थीं। मेला, शहीद, आन, अंदाज, देवदास, कोहिनूर, पैगाम, मुगले आजम, गंगा जमुना, राम और श्याम और क्राति जैसी फिल्में बड़े पर्दे के रास्ते लोगों के दिलों तक उतर गईं।
----------- साहिबे आलम के लिए लगती थी रात में टिकट की लाइन: मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले.. अभिनय के कोहिनूर कहे जाने वाले दिलीप कुमार की फिल्म संघर्ष का यह गाना उस समय इतना हिट हुआ था कि सिनेमा का सारा स्टाफ सिनेमाहाल में आ जाया करता था। फिल्म ईव्ज में लगी थी और उस समय मैं बच्चा ही था। लेकिन दिलीप साहब का यह गाना देखने पहुंच जाया करता था। अप्सरा सिनेमा के निदेशक अनुपम गुप्ता पुरानी यादें ताजा करते हुए दिलीप कुमार के दौर को याद करते हुए बताते हैं कि ट्रेजडी किंग की संघर्ष फिल्म सुपरहिट रही थी और लोग टिकट लेने के लिए लंबी लाइनें लगाया करते थे। उस समय टिकट की कीमत एक रुपया नब्बे पैसे हुआ करती थी, और दिलीप कुमार की फिल्में सबसे मंहगी हुआ करती थीं।
दिलीप साहब किसी एक पीढ़ी के कलाकार नहीं हैं, हर युवा पीढ़ी के साथ उन्होंने खुद का बदला और युवा पीढ़ी उनके अभिनय की दीवानी होती गई। फिल्म क्रांति सन 1981 में रिलीज हुई और हमने उसे वर्ष 1996 में नंदन सिनेमा में लगाया। वह इन्हीं दिनों की बात है जब शहर में कांवड मेला चल रहा था, और फिल्म देखने के लिए दर्शकों की भीड़ हर दिन उमड़ रही थी।
निदेशक देवेश त्यागी का कहना है कि उस समय भी फिल्म और दिलीप कुमार का क्रेज पहले जैसा ही था। उस समय टिकट 45 रुपये का था और लोग लाइन लगाकर टिकट लेते थे। मैंने जब इस क्षेत्र में कदम रखा तो पिता ने एक ही बात कही कि मुगले आजम, मदर इंडिया और शोले तीन ऐसी फिल्म हैं, जिन्हें कभी भी लगाया जा सकता है। वही हुआ भी जब मुगले आजम दोबारा कलर प्रिंट में आई तब भी हाल के बाहर हाउसफुल के बोर्ड लग गए और दिलीप कुमार के चाहने वालों ने उन्हें हाथों हाथ लिया।
कुछ ऐसी ही यादें सांझा करते हुए निशात सिनेमा के निदेशक दीपक सेठ बताते हैं कि वह 12वीं कक्षा में थे, जब दिलीप साहब की फिल्म लीडर रिलीज हुई। वह दोस्तों के साथ उसे देखने ईव्ज सिनेमा पहुंचे और उन्हें उस समय ब्लैक में टिकट लेनी पड़ी। उस समय उन्होंने 50 रुपये में लिया था टिकट। ऐसे ही निगार सिनेमा में उन्होंने दोस्तों के संग देखी थी फिल्म गंगा जमुना और संघर्ष। यह बात कभी नहीं भुलाई जा सकती कि साहिबे आलम की फिल्म मुगले आजम के टिकट लेने के लिए दर्शक रात में ही लाइन लगा लिया करते थे।
दिलीप कुमार की आत्मकथा यहा पढि़ए
फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि वह पढ़ने के बहुत शौकीन थे। उनकी एक आत्मकथा, द सब्सटेंस एंड द शैडो, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में भी रखी है। यह, वजूद और परछाईं, का अंग्रेजी रूपातरण है। उदयतारा नायर की इस प्रस्तुति का प्रभात रंजन ने हिंदी में अनुवाद किया है। कुल 456 पेज की यह पुस्तक दिलीप साहब की जिंदगी के कई पहलुओं को सामने रखती है। पढ़ने के इच्छुक लाइब्रेरी में उनकी आत्मकथा पढ़ सकते हैं। ऐसी किताबों का अलग से कलेक्शन रखा गया है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवíसटी के पुरातन छात्र और सीसीएसयू में पुस्तकालय के अध्यक्ष डा. जमाल अहमद सिद्दकी बताते हैं कि वर्ष 2002 में दिलीप कुमार को एएमयू से मानद डाक्टरेट की उपाधि देकर सम्मानित किया गया था। उसमें उनके पाच दशक से अधिक समय तक सिनेमा के लिए उनकी अनुकरणीय सेवाओं को मान्यता दी गई थी। दिलीप कुमार की फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले संतोष आनंद पर भी किताबों का संग्रह किया जा रहा है। संतोष आनंद अब विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा भी हैं। लोग कालेज छोड़कर पहुंचते थे राम और श्याम देखने, मैं भी
इस समय मेरठ के सासद राजेंद्र अग्रवाल सन 1965-70 के बीच मोदीनगर से बीएससी-एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे। उन दिनों दिलीप साहब की फिल्मों की बहार थी, और राम और श्याम का तो जलवा ही था। बताते हैं राजेंद्र अग्रवाल जी कि साहब, पूछिए मत। कालेज से सीधे पहुंचा सिनेमाहाल और देखी राम और श्याम। बस, यही गड़बड़ हो गई। फिल्म दिमाग पर ऐसी चढ़ी और दिलीप साहब की अदाकारी ने कुछ यूं जादू किया कि तीन दिन बाद हम फिर पहुंच गए दर्शकों की कतार में। टिकट लिया और फिर देखी फिल्म ..लेकिन मन भर ही नहीं रहा था। दो सप्ताह बाद कालेज से फिर पहुंच गया राम और श्याम देखने। तो वहा क्या देखता हूं कि कालेज के कई छात्र सिनेमाहाल का चक्कर काट रहे थे। बहरहाल, सभी ने पिक्चर देखी। स्मृतियों पर जोर देकर सासद ने बताया कि 1965-70 के आसपास दिलीप कुमार ने ट्रेजडी किंग की छवि से बाहर निकलकर राम और श्याम और संघर्ष जैसी फिल्में कीं। लोग इन फिल्मों के दीवाने थे। दिलीप कुमार के अभिनय की गहराई और मोहम्मद रफी की अमर आवाज से सिनेमाघर में एक समा बंध जाता था। दिलीप कुमार की गोपी, बैराग, क्राति और विधाता भी देखा, देवदास और मुगले आजम भी देखी। सामान्य स्क्रिप्ट की फिल्मों में भी उन्होंने जान फूंक दी। वो भारतीय सिनेमा के महानतम अदाकार हैं, हम सभी के दिलों में अमर हैं। अभिनय की यूनिवíसटी दिलीप कुमार से सीखकर बाद के दिनों में कई अभिनेता सिने जगत में छा गये।
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