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    ...तब कंधे पर माइक लेकर गांवों में होता था प्रचार, गुड़ सत्तू खाकर नेता मांगते थे वोट- सादगी से होता था नामांकन

    Updated: Sat, 06 Apr 2024 02:38 PM (IST)

    वयोवृद्ध नेता हरिहर प्रसाद गुप्त ने बताया कि उस वक्त के लोग भी बड़े मिलनसार थे। कोई अपने दरवाजे पर गुड़ से पानी पिला देता था तो कोई सत्तू। इस प्रकार जिस गांव में रात हो जाती वहां किसी के घर विश्राम कर लेते थे। अगले दिन सुबह उठ कर फिर चल देते थे। इस प्रकार तीन से चार दिन के बाद बैट्री डिस्चार्ज हो जाती थी।

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    Lok Sabha Election 2024 : कंधे पर माइक लेकर गांवों में होता था प्रचार

    संवाद सहयोगी, मऊ : आज के छह व सात दशकों पूर्व लोकसभा व विधानसभा के चुनाव में प्रत्याशी साइकिल से घूम-घूम कर अपना चुनाव करता था। उस दौर में हर गांव में प्रत्याशी का पहुंचना संभव नहीं हो पाता था। इसलिए कार्यकर्ता हाथ में माइक व बैट्री लेकर चुनाव प्रचार में निकल जाया करते थे। पूरे दिन चलने के बाद जिस गांव में रात हो जाती थी, वहीं किसी के घर विश्राम कर लेते थे। तब और अब के समय में जमीन आसमान का अंतर है।

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    किसी के घर भी रूक जाते थे प्रत्याशी

    आज प्रत्याशी इंटरनेट मीडिया से घर बैठे अपना प्रचार कर ले रहा है तथा महंगी-महंगी गाड़ियों में सवार होकर गांव-गांव पहुंच जा रहा है। उस दौर में दीवारों पर पेंटिंग ही चुनाव प्रचार का एक मात्र साधन हुआ करता था। वयोवृद्ध नेता हरिहर प्रसाद गुप्त ने बताया कि उस वक्त के लोग भी बड़े मिलनसार थे। कोई अपने दरवाजे पर गुड़ से पानी पिला देता था तो कोई सत्तू। इस प्रकार जिस गांव में रात हो जाती वहां किसी के घर विश्राम कर लेते थे।

    अगले दिन सुबह उठ कर फिर चल देते थे। इस प्रकार तीन से चार दिन के बाद बैट्री डिस्चार्ज हो जाती थी तो पुन: चार्ज कराने के लिए मऊ आ जाया करते थे। प्रत्याशी साइकिल से अपना चुनाव प्रचार करता था। समय कम होने के चलते वह हर विधानसभा के एक या दो गांव तक ही पहुंच पाता था। 83 वर्षीय हरिहर प्रसाद ने बताया कि वे लगभग 16 वर्ष की उम्र से जनसंघ से राजनीति की शुरूआत किए।

    सादगी से होता था नामांकन 

    बताया कि उस दौर में लोक सभा क्षेत्र की आबादी मात्र 70 से 80 हजार हुआ करती थी। गांव दूर-दूर हुआ करते थे। नामांकन के लिए आस-पास के ही 5 से 10 कार्यकर्ताओं को बुला कर सादगी के साथ नामांकन कर दिया जाता था। उन्होंने बताया कि उस दौर में वाहनों व संसाधनों के न होने के चलते मतदान कर्मी मतपेटिका लेकर पैदल एक दिन पूर्व ही चल देते थे और एक दिन बाद बूथ पर पहुंच पाते थे। मतदान कराने के बाद पुन: इसी तरह लौटते थे वापस।

    जबरदस्ती लड़ाया जाता था चुनाव

    उस दौरान चुनाव लड़ने के लिए कोई तैयार नहीं होता था। पार्टियों को प्रत्याशी भी नहीं मिलते थे। इसलिए किसी भी सक्षम कार्यकर्ता को जबरदस्ती चुनाव लड़ा दिया जाता था और कार्यकर्ता उन्हें चुनाव जिताने के लिए दो महीनों तक अपना घर-बार छोड़ देते थे।