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मित्र वही, जो सुख-दुख में राह दिखाए सही

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह अकेला जीवन-यापन नहीं कर सकता है। मनुष्य सदैव अपने आस-

By JagranEdited By: Published: Wed, 23 Sep 2020 07:54 PM (IST)Updated: Thu, 24 Sep 2020 05:10 AM (IST)
मित्र वही, जो सुख-दुख में राह दिखाए सही
मित्र वही, जो सुख-दुख में राह दिखाए सही

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए वह अकेला जीवन-यापन नहीं कर सकता है। मनुष्य सदैव अपने आस-पड़ोस के लोगों से मेल-जोल बनाने की कोशिश करता है। इस प्रकार एक व्यक्ति के संपर्क में बहुत लोग आते हैं और आदान-प्रदान करते हैं। कितु संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति मित्र नहीं हो सकता। मित्रता अक्सर समान विचारों वाले व्यक्तियों में होती है। यह देखा जाता है कि ज्यादातर समान आयु, समान विचार, समान उद्योगों के लोगों के साथ ही प्रगाढ़ मित्रता होती है।

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जीवन को आनंदमय बनाने के लिए अनेक सुविधाओं और सुख-साधनों की आवश्यकता होती है। कितु सिर्फ एक साधन यानि मित्रता प्राप्त हो जाए तो सभी साधन अपने आप ही एकत्र हो जाते हैं। यह भी सच है कि एक सच्चा मित्र मिलना बड़े सौभाग्य की बात होती है। मित्र वही व्यक्ति होता है, जिसे आप पसंद करें, जिसके सानिध्य से आप आनंदित हों, जिसका आप सम्मान करें और जो प्राय: आपसे मिले।

वास्तव में मित्रता एक ऐसी भावना है जो दो मित्रों के हृदयों को जोड़ती है। सच्चा मित्र नि:स्वार्थ होता है। जरूरत पड़ने पर एक मित्र सदैव अपने मित्र की हमेशा सहायता करता है। सच्चा मित्र अपने मित्र को सदैव उचित और सही कार्य करने की सलाह देता है। सच्चे मित्र को ढूंढ पाना बहुत कठिन है। सच्चे मित्र का मिलना हमारे जीवन के लिए सौभाग्य ही होता है।

शब्द के हिसाब से देखें तो मित्रता का अर्थ होता है मित्र होना। मित्र होने का सिर्फ यह आशय नहीं है कि वे साथ रहते हों, एक जैसा काम करते हों, बल्कि यह है कि जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शुभचितक हो अर्थात एक-दूसरे के हित की कामना करता हो तथा एक-दूसरे के सुख, उन्नति और समृद्धि के लिए प्रयत्नशील होना है। मित्रता सिर्फ सुख में ही नहीं, बल्कि दु:ख के पलों में भी ढाल बनकर आती है और मित्र की रक्षा के लिए तत्पर होती है। मित्रता का कोई भी सीधा नियम नहीं होता है। इसलिए मित्रता किससे करनी चाहिए इस संबंध में नियमों का निर्धारण नहीं किया जा सकता।

अवस्था के अनुसार ही मित्रता की धारणाएं भी अलग हैं। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि बालक, बालक के साथ ही रहना और मित्रता करना पसंद करता है, युवक, युवक के साथ और वृद्ध व्यक्ति वृद्ध के साथ ही मित्रता करना पसंद करता है। अक्सर यह देखने को मिलता है कि पुरुष, पुरुष के साथ और स्त्रियां, स्त्रियों के साथ ही मित्रता करती हैं। यह कहा जा सकता है कि मित्र वह साथी होता है जिसे हम अपने सभी रहस्यों, संकटों और सुखों का साथी बनाते हैं। जिससे हम प्रवृत्तियों और आदतों से भिन्न होने पर भी प्रेम करते हैं और उसे चाहते हैं। दोस्त हर अंधेरे में प्रकाश की किरण की तरह होते हैं।

जब भी कोई व्यक्ति किसी अन्य के साथ खुद को परिपूर्ण समझे, उसके साथ उसकी मुसीबतों को अपना समझे, अपने गमों को उसके साथ सांझा करे तो वहां मित्रता का ही भाव होगा। जहां दो व्यक्तियों में बिना किसी खून के रिश्ते के, बिना किसी जातीय संबंध के भावनात्मक जुड़ाव हो, उसे ही मित्रता कहते हैं। मित्र का साथ मिलते ही उत्साह बढ़ जाता है। दुख सहने की शक्ति और सुख का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। वास्तव में मित्र के बिना जीवन सूना-सूना और रेगिस्तान सरीखा ही प्रतीत होगा। एक आनंदमय जीवन की कल्पना मानव समाज में बिना मित्र के नहीं की जा सकती।

छोटे बच्चों को अपने खिलौने से बहुत लगाव होता है। वे उनसे बातें करते और लड़ते हैं जैसे किसी वे किसी मित्र के साथ व्यवहार कर रहे हों। लोग ईश्वर से भी मित्रता करते हैं। वे ईश्वर से अपने दिल की बातें करते हैं। वे भगवान से अपना सुख-दु:ख कहकर अपना मन हल्का करते हैं। ईश्वर में किसी की गहरी आस्था ही ईश्वर से मित्रता कहलाती है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अकेले जीवन नहीं व्यतीत कर सकता। उसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए के लिए किसी न किसी साथी की जरूरत होती ही है चाहे वह कोई इंसान हो, जानवर हो, भगवान हो या कोई निर्जिव वस्तु हो।

- डा.अरविद कुमार मिश्र, प्राचार्य, डीसीएसके पीजी कालेज, मऊ।


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