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    कुएं जो बुझाते थे प्यास, अब नहीं आता इनके कोई पास

    By JagranEdited By:
    Updated: Thu, 13 Jun 2019 06:22 AM (IST)

    कसबा बरसाना के पांच कुएं आज बन गए कूड़ाघर सुबह पांच बजे टोलियों में निकलती थी पनिहारिनें ...और पढ़ें

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    कुएं जो बुझाते थे प्यास, अब नहीं आता इनके कोई पास

    मथुरा, विवेक दत्त। पानी बचाने की पुरानी परंपरा को हमने भुला दिया। नतीजा उदार प्रकृति निष्ठुर हो गई। नदी, नालों का पानी सूखने लगा और कुएं रूठ गए। जिन कुओं में कभी लबालब मीठा पानी होता था उन पर चढ़ना लोगों ने भुला दिया। मेहनत से मुंह मोड़ा तो पानी की मिठास भी चली गई। बरसाना में कभी पांच मीठे कुएं थे आज इनमें से चार कूड़ेदान बन गए हैं।

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    लाडिलीजी के कारण मशहूर बरसाना प्राचीन कस्बा है। इस कस्बे की जलापूर्ति की व्यवस्था सैकड़ों साल से कुएं और बावड़ी पर निर्भर रही। 25 साल पहले तक यहां कुओं पर पनिहारिनों की लाइन लगा करती थी। बरसाना में पांच ऐसे कुएं थे जो मीठे पानी से भरे थे। इनकी उम्र तब ही करीब सौ साल की बताई जाती थी।

    कस्बे में कटारा हवेली के सामने भूमिया वाले कुंए के नाम मशहूर कुंआ के चारों घाटों के पानी का स्वाद अलग-अलग था। इस कुएं के जल स्त्रोत अभी इसलिए जिदा है कि मोटर लगाकर मुहल्ले के लोग सुबह शाम पानी भरते हैं, लेकिन रस्सी से पानी कोई नहीं खींचतान। कृष्ण बाग वाले कुएं को छोड़कर बाकी तीन कुओं के जल स्त्रोत खिचाई न होने के कारण सूख गए और खंडहर में तब्दील हो गए हैं। ये हैं उपेक्षित कुएं

    - भूमिया वाला कुआं

    - लड़हैती वाला कुआं

    - ब्रजेश्वरी वाला कुआं

    - कृष्ण बाग का कुआं

    - उड़िया वाला कुआं इस कुएं के पानी से होती आज भी लाडली जी की सेवा:

    राधाबाग के कुएं का पानी पाचन की ²ष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है। यही वजह है कि आज भी यह कुंआ चालू है। इसी कुएं का पानी लाड़ली जी की सेवा में इस्तेमाल किया जाता है। चरणामृत से लेकर भोगराग की सेवा में इसी कुएं का पानी प्रयोग किया जाता है।

    - दो दशक पहले तक भूमिया वाले कुएं पर सुबह पांच बजे से पनिहारिनों का आना शुरू हो जाता था, जो आठ बजे तक चलता था। उसके बाद ही पुरुष और युवा स्नान के लिए कुएं पर आते थे, पर अब कुआं सूना रहता है। घर-घर पानी के साधन हो गए हैं।

    - महेश गौड़। - कुएं तो और भी हैं, पर इन पांच कुंओं पर ज्यादा पानी भरा जाता था। जिस मुहल्ले के नजदीक जो कुंआ पड़ता था, वहां की महिलाएं उन्हीं कुंओं से पानी लाती थी। कुएं के बहाने महिलाओं के बीच अपने सुख-दुख से भरे संवाद की संस्कृति भी थी जो अब नहीं है।

    - योगेंद्र सिंह छौंकर।