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    kargil vijay diwas 2025: मथुरा के दो बेटों ने लिखा पराक्रम का इतिहास, ऐसी है सिपाही रविकरन और नायक सोरन के बलिदान की कहानी

    Updated: Sat, 26 Jul 2025 08:22 AM (IST)

    कारगिल युद्ध में मथुरा के दो वीरों नायक रविकरन सिंह और सोरन सिंह के बलिदान की कहानी आज भी अमर है। रविकरन सिंह ने आठ गोलियां लगने के बाद भी दस दुश्मनों को मार गिराया। वहीं सोरन सिंह ने भी गोलियां लगने के बावजूद पीछे हटने से इनकार कर दिया और कई दुश्मनों को मार गिराया। उनके बलिदान ने युवाओं में देशभक्ति की भावना को और भी प्रबल किया है।

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    मथुरा: बलिदानी सोरन सिंह। फोटो स्वजन द्वारा। बलिदानी रविकरण।

    जागरण संवाददाता, मथुरा। कारगिल युद्ध भले ही 26 साल पहले 1999 में लड़ा गया हो, लेकिन मथुरा के दो वीर सपूतों बलिदानी नायक रविकरन सिंह और सोरन सिंह की गाथाएं आज भी दिलों में ताजा हैं। 1999 की वो जंग, जब पाकिस्तान ने कुटिलता से भारतीय सीमाओं में घुसपैठ की थी, भारतीय सैनिकों के साहस और बलिदान की पराकाष्ठा बन गई।

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    मथुरा के नौहझील क्षेत्र के गांव नावली निवासी नायक रविकरन सिंह और गोवर्धन के नगला उम्मेद की नगरिया के बलिदानी सोरन सिंह उन वीरों में शामिल थे, जिन्होंने अंतिम सांस तक लड़ते हुए दुश्मन को उनके मंसूबों में सफल नहीं होने दिया। टाइगर हिल और बटालिक पहाड़ियों में लहू से लिखी गई कहानी आज भी जिले के युवाओं में देशभक्ति के दीप जला रही हैं। एक ने दुश्मन के दस गिराए तो दूसरे रणबांकुरे गोलियां खाकर भी झुके नहीं।

    शौर्य की वो मिसाल, जब आठ गोलियां भी नहीं रोक सकीं ‘टाइगर’ रविकरन को

    कारगिल की बर्फीली चोटियों पर जब दुश्मन घात लगाए बैठा था, तब नौहझील क्षेत्र के गांव नावली के लाल नायक रविकरन सिंह ने सीने पर गोलियां खाकर भी देश का सिर झुकने नहीं दिया। दुश्मन की ओर से हो रही भीषण फायरिंग में उन्हें शरीर में आठ गोलियां लगीं, लेकिन अंतिम सांस तक लड़ते रहे और 10 पाक घुसपैठियों को ढेर कर वीरगति को प्राप्त हुए। 18 ग्रेनेडियर यूनिट के योद्धा रविकरन कर्नल कुशल ठाकुर की टुकड़ी के सबसे आगे थे।

    बच्चों और खुद का ध्यान रखना... थे अंतिम शब्द

    सात जुलाई 1999 को उनका पार्थिव शरीर गांव लाया गया, जहां पूरे क्षेत्र की आंखें नम थीं और सीना गर्व से चौड़ा। पत्नी विमलेश देवी आज भी उस आखिरी बात को याद करती हैं। जब बलिदानी होने से पहले रविकरन कारगिल ड्यूटी पर जाते समय कहकर गए थे। विमलेश ने बताया कि उनके अंतिम शब्द थे कि बच्चों और खुद का ध्यान रखना… मैं टाइगर हिल जा रहा हूं। बेटे शैलेंद्र सिंह ने कहा कि पापा की बहादुरी की गाथा जीने का हौसला देती है।

    जहां गोलियां बरसी… वहीं से गूंजा सोरन सिंह का शौर्य

    -कुछ शौर्य कथाएं सिर्फ किताबों में नहीं, धरती के कण-कण में होती हैं। ऐसी ही एक गाथा है गोवर्धन तहसील के गांव नगला उम्मेद की नगरिया के बलिदानी सोरन सिंह की। वर्ष 1999 में जून के महीने में जब दुश्मन ऊंचाई पर था, स्थिति विषम थी। फिर भी जाट रेजिमेंट के सीनियर सिपाही सोरन सिंह ने पीछे हटने का नाम नहीं लिया। उनकी छाती और सिर पर गोलियां लगीं, लेकिन हाथ से बंदूक नहीं छूटी। वे लड़ते रहे... तब तक, जब तक दस पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार नहीं गिराया। 26 जून 1999 को 28 वर्ष के सोरन बलिदान हो गए।

    पत्नी के अलावा बड़ा बेटा पांच वर्षीय विवेक, तीन वर्षीय डाली और छह माह का रोहित 

    गोवर्धन के पास नगरिया पैंठा गांव के बलिदानी सोरन सिंह के छोटे बेटे रोहित सिंह ने भारतीय सेना में भर्ती होकर अपने पिता की वर्दी को फिर से जीवन दिया। वह आज अंबाला में देश की सेवा कर रहा है। जब उसने वर्दी पहनी, तो मां कमलेश देवी की आंखों से गर्व और पीड़ा के मिले-जुले आंसू बहे। बड़े बेटे विवेक सिंह ने छोटी उम्र में जिम्मेदारियों का बोझ संभालते हुए न सिर्फ पिता की विरासत को संभाला, बल्कि गोवर्धन में मिली गैस एजेंसी को मजबूती से खड़ा किया।

    नौहझील के गांव नावली निवासी नायक रविकरन सिंह के बेटे शैलेंद्र सिंह (शैलू) पिता की यादों को व्यवसाय के रूप में जी रहे हैं। उन्होंने वृंदावन में शहीद आरके रेजीडेंसी नाम से होटल शुरू किया है, जो न केवल उनका रोजगार है बल्कि पिता को श्रद्धांजलि भी।