तान की वो पहले सी तरंगें अब कहां
जागरण संवाददाता, मथुरा: धुलेड़ी से पंचमी तक गाई जाने वाली चतुर्वेदियों की प्रसिद्ध विधा तान है त
जागरण संवाददाता, मथुरा: धुलेड़ी से पंचमी तक गाई जाने वाली चतुर्वेदियों की प्रसिद्ध विधा तान है तो आज भी लेकिन पहले सी तरंगें नहीं रही। चौबों के मोहल्लों में चौपाई या तान की वो रौनक नजर नहीं आती दो-तीन दशक पहले हुआ करती थी। कभी सांझ से सुबह तक कुंज गलियों में चौपई गूंजा करती थी। उसे सुनने के लिए गलियां अट जाती थीं। कोई नाचता तो कोई गाता था। वर्तमान में तान के अधिकांश अखाड़े खामोश हो गए। एक-दो अखाड़े ही इस प्राचीन परंपरा को निभा रहे हैं। राधा माधव की लीलाएं, होली को तान कर गाने वाली तान का संगीत भी बदला है। यूं तो समूचे ब्रज में चौपई गाई जाती है लेकिन चतुर्वेदियों की यह विधा उससे अलग है। इसमें होली के रसिया नहीं बल्कि तान तैयार की जाती हैं। तान लोक संगीत में आती है लेकिन इसमें शास्त्रीय संगीत का भी मिश्रण है। ढफ, नगाड़े, ढोलक, तार के साथ ऊंचे स्वरों में सामूहिक रूप से गायन होता है। धुलेड़ी के बाद अपने अखाड़े में तान होती है। उसके बाद चतुर्वेदियों के जिस परिवार में कोई शिशु जन्मा हो या नई शादी हुई हो, वहां से अखाड़ों के पास निमंत्रण आता है। वहां जाकर वे चौपाई गाते है और उत्सव मनाते हैं।
गो¨वदगढ़ अखाड़े के 82 वर्षीय हरदेव चतुर्वेदी अब तक 400 तान रच चुके हैं। कहते हैं कि टीवी और पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण से हर विधा पर संकट आया है। इससे तान कैसे अछूती रहती। अब लोगों की रुचि कम हो गई है। आज से तीस वर्ष पहले तक तान या चौपाई के करीब 25 छोटे-बड़े अखाड़े हुआ करते थे। उनमें गिरधरवाली, मोहनबाग, चौबच्चा, कंसटीला, भगवंत गढ़, बुदउआ आदि थे। अब कुछ ही सक्रिय हैं। हमारा अखाड़ा 100 साल से भी अधिक पुराना है। बीच में बंद हो गया था, मैंने पुन: आरंभ किया।
हमने अपने जमाने में एक दिन में 35 कार्यक्रम देखे हैं। शाम 4 बजे से तान शुरू हुई और सुबह 5 बजे खत्म हुई। रात भर लोग गलियों में जमे रहते थे। बुलंद आवाज के लिए तीन पाव घी रोज पीते थे। अब बुलाने वाले भी कम हैं और जाने वाले भी। पहले जैसी धुन और साहित्य भी नहीं रहा। हम आज भी अपने पुराने दौर को ही जीने की कोशिश करते हैं। मेरे दो भाई भी तान गाते हैं। मेरे बाद भले बहुत कुछ बदल जाए पर किसी न किसी रूप में तान ¨जदा तो रहेगी। ढफ बाजौ री ग्वालिनिया होरी खेलन कू आवौ री.. हरदेव जी के कंठ की मिठास हृदय को छूती है।
कंस टीला अखाड़ा के महेश दत्त चतुर्वेदी कहते हैं कि तान के स्वरूप में बहुत परिवर्तन आया है। पहले माइक नहीं था, अब आ गया है। मुख्य रूप से 5-7 गाने वाले होते हैं। 20-30 लोग उनके साथ गाते हैं। तान का पहले मुखड़ा बनता है, फिर उड़ान और फिर मिलान बनाया जाता है। हमने अपने पुरखों से यह विरासत में पाई है। वर्तमान में तान मोहल्लों से निकलकर मंच पर आ गई। पूरा आर्केस्ट्रा उसमें शामिल हो गया। अब तो बस रीत निभा रहे हैं। गो¨वदगढ़ अखाड़े के लव चतुर्वेदी ने बताया कि हमारी यह विधा करीब 300-400 वर्ष पुरानी है। ब्रज की ध्रुपद- धमार से ही इसकी उपज है। इसमें लोक और शास्त्रीय संगीत दोनों का मिश्रण है। इसमें गायन, वादन, नृत्य तीनों का समावेश है। पहले तो जहां खड़े हो जाते थे वहीं श्रोता जुड़ जाते थे।
गोपियों ने भी गाई थी तान :
रामनारायण अग्रवाल अभिनंदन ग्रंथ में डॉ. माया प्रकाश पांडेय के लेख 'ब्रजभाषा की तान परंपरा' में लिखा है कि अनुश्रुति के अनुसार श्रीकृष्ण ने कंस को मारने के बाद मथुरा में राज किया। उसके बाद फागुन का मस्त महीना आया। उमंग और तरंग से भरे वातावरण में गोप पत्नियों ने श्रीकृष्ण से होली खेली और तान गाई। तभी से यह प्रथा प्रचलित है। मथुरा में चतुर्वेदियों में तान गायन की बड़ी प्राचीन परंपरा चली आ रही है।
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