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    फ्रैक्चर से जूझ रहे पुरुषों में क्‍यों होता है अधिक तनाव, जान‍िए क्‍या कहते हैं केजीएमयू के व‍िशेषज्ञ

    By Anurag GuptaEdited By:
    Updated: Thu, 27 Jan 2022 07:36 AM (IST)

    लखनऊ में केजीमयू के पीडियाट्रिक आर्थोपेडिक के प्रो. ने यह शोध जनवरी 2021 से दिसंबर 2021 तकए 113 मरीजों पर किया। पारिवारिक समीकरण भी फ्रैक्चर से जूझ रह ...और पढ़ें

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    सरकारी चिकित्सा संस्थाओं में समाजसेवी के पदों पर ध्यान देने की जरूरत।

    लखनऊ, जागरण संवाददाता। फ्रैक्चर से पीड़ित मरीजों में तनाव, बेचैनी और गुस्से जैसी भावनाएं बहुत प्रभावी ढंग से नजर आती हैं। इसके कारणों का पता लगाने के लिए किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) में एक अध्ययन किया गया है। इसमें पता चला है कि चोट लगने के कारणों से लेकर अस्पताल में साफ-सफाई और पारिवारिक समीकरण भी फ्रैक्चर से जूझ रहे मरीजों में तनाव, अवसाद और क्रोध जैसी भावनाओं को भड़काते हैं।

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    केजीएमयू के पीडियाट्रिक आर्थोपेडिक विभाग प्रमुख प्रो. अजय सिंह ने यह शोध जनवरी 2021 से दिसंबर 2021 तक केजीएमयू में भर्ती 113 मरीजों पर किया। इस शोध में पेटेंटे-रिपोर्टेड आउटकम्स मेजरमेंट सिस्टम्स (प्रोमिस) के पैमाने पर भर्ती मरीजों पर अध्ययन किया गया। प्रोमिस असल में मरीज की उपचार प्रणाली से जुड़े विभिन्न बिंदुओं को समाहित करने वाला मापदंड है, जो उनकी प्रवृत्ति में आ रहे परिवर्तनों से परिचित कराता है। इस संदर्भ में प्रो. अजय सिंह ने बताया कि मरीजों में प्रोमिस के आलोक में बेचैनी और आक्रोश जैसे भावों की पड़ताल करना इस अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य था।

    अध्ययन के निष्कर्ष में पाया गया कि 29.3 प्रतिशत मरीज अवसाद, 32.7 प्रतिशत क्रोध और करीब साढ़े तीन प्रतिशत मरीज बेचैनी के शिकार मिलेे। इनमें से 71.2 प्रतिशत यानी अधिकांश 60 साल से कम उम्र के थे। इनमें 63.7 प्रतिशत पुरुष और 26.3 प्रतिशत महिलाएं रहीं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि अस्पताल में स्वच्छता की कमी भी मरीजों में गुस्से और बेचैनी का कारण बनती है।

    वृद्धावस्था में फ्रैक्चर से पीड़ित मरीजों में बढ़ते हुए अवसाद पर एचओडी प्रो. अजय सिंह का कहना है कि वह इस शोध के माध्यम से नीति निर्माताओं का ध्यान आम जनता के बीच सरकारी अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों की छवि निजी अस्पतालों की अपेक्षा बेहतर करने की जरूरत पर लाना चाहते हैं। सरकारी अस्पतालों को लेकर आम जनता में कई आशंकाएं हैं। लगभग सभी सरकारी चिकित्सा संस्थाओं में समाजसेवी के पद रिक्त पड़े हुए हैं या फिर जरूरत के हिसाब से काफी नहीं है। हमें ऐसे पदों पर जल्द नियुक्तियां और आवश्यकतानुसार इन पदों की संख्या भी बढ़ाई जानी चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ताओं के होने से मरीजों की शिकायतों और जरूरतों का बेहतर ख्याल रखा जा सकेगा। उससे सरकारी अस्पतालों की छवि भी बेहतर होगी और अधिक मरीज अस्पतालों का रुख कर सकेंगे। प्रोफेसर अजय सिंह का मानना है कि इस क्रम में नीति निर्माताओं को ध्यान देने की जरूरत है।