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    वसंत ऋतु और होली का पर्व कवियों-कलाकारों ही नहीं, क्रांतिकारियों को भी प्रिय

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Sun, 13 Mar 2022 08:31 AM (IST)

    जब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो इस वसंत के महीने में आपको ले चलते हैं इतिहास में। जहां क्रांतिकारियों ने देशभक्ति के रंग में रंगकर भारतभूमि का रक्त तिलक से अभिषेक किया। मालिनी अवस्थी का आलेख...

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    क्रांतिकारियों का भी सबसे प्रिय मौसम वसंत ऋतु है।

    मालिनी अवस्थी। वसंत तरुणाई है। यह प्रतीक्षा करना नहीं जानता और इसका उत्कर्ष है होली। वसंत ऋतु और होली का पर्व कवियों-कलाकारों ही नहीं, क्रांतिकारियों को भी प्रिय है। घनी अमराई में कोयल की कूक, गुलाब गेंदा, चंपा, चमेली पर मंडराते भंवरों का गुंजन, चारों ओर पियरी ओढ़े सरसों के खेत, गेहूं की झूमती-पकती बालियां...इसी वासंती मौसम में होली, धमार, काफी, जोगीरा, चौताल और चैता की स्वरलहरियां सुनाई पड़ने लगती हैं। आकाश अबीर-गुलाल सा दिखने लगता है, उत्साह का कोई ओर-छोर नहीं रहता...मन भीगने लगता है और तन भीगना चाहता है किसी अपने के प्रेम से। वसंत और फागुन की यह दहक टेसू-पलाश के दहकते केसरिया रंग में भीग कर ही शांत होती है।

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    क्रांतिकारियों का प्रिय मौसम

    वसंत यौवन है, तरुणाई है, उल्लास है। वसंत नवागत का स्वागत है। वसंत जीवन का उत्सव है, वसंत बिखरने-बिखेरने का मौसम है। वसंत अधीर है। यह प्रतीक्षा करना नहीं जानता और इसका उत्कर्ष है होली। वर्ष प्रति वर्ष, वसंत के उल्लास का चरम फागुन में रंगों से जब भीजता है तो ही पूरा होता है उमंग का यह अनुष्ठान। इन दो महीनों में मनुष्य एक जीवन जी लेता है। कामदेव ने ऐसी व्यवस्था ही रच रखी है। शिव ने अनंग को यह विशेष वरदान दिया है। वह निराकार होकर भी साकार हैं। सच है, जीवन वही जो सार्थक जिया जाए, आयु उतनी यथेष्ट जिसमें जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो जाए। संभवत: यही कारण है कि वसंत ऋतु और होली का पर्व कवियों, कलाकारों, चित्रकारों का ही नही, क्रांतिकारियों का भी सबसे प्रिय मौसम है।

    गुंथी है वीरता और वसंत

    क्रांति का रंग वासंतिक है, केसरिया है, अदम्य साहस, शौर्य और अध्यात्मिक ऊर्जा का है। वीरों का वसंत ऐसा ही होना चाहिए। साहस और ऊर्जा से भरपूर। प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता जब पहली बार सुनी थी, तब से मेरे लिए वीरता और वसंत एक-दूसरे में गुंथ से गए।

    वीरों का कैसा हो वसंत,

    आ रही हिमालय से पुकार,

    है उदधि गरजता बार बार,

    प्राची पश्चिम भू नभ अपार,

    सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत,

    वीरों का कैसा हो वसंत।

    फूली सरसों ने दिया रंग,

    मधु लेकर आ पहुंचा अनंग,

    वधु वसुधा पुलकित अंग अंग,

    है वीर देश में किंतु कंत,

    वीरों का कैसा हो वसंत।

    कह दे अतीत अब मौन त्याग,

    लंके तुझमें क्यों लगी आग,

    ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग,

    बतला अपने अनुभव अनंत,

    वीरों का कैसा हो वसंत।

    हल्दीघाटी के शिलाखंड,

    ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड,

    राणा ताना का कर घमंड,

    दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत,

    वीरों का कैसा हो वसंत।

    देश की रक्षा के लिए तत्पर भारत मां के लाडलों ने हंसते-हंसते अपने रक्त से भारत माता का तिलक किया है। अंग्रेजों व देश के शत्रुओं से खून की होली खेली है और मुस्कुराते हुए अपना बसंती चोला देश पर न्योछावर कर दिया है।

    बलिदानियों का बसंती चोला

    वसंत और बलिदानियों का जिक्र आते ही मन में 1965 में आई फिल्म ‘शहीद’ का अमर गीत गूंजने लगता है ‘मेरा रंग दे बसंती चोला।’ यह गीत आज भी उतना ही लोकप्रिय है। आज भी बलिदानियों को स्मरण करने के लिए इस गीत से बेहतर दूसरा गीत याद नहीं आता, लेकिन वास्तव में यह गीत बहुत पुराना है। साल था 1927। बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान और उनके कई साथी काकोरी ट्रेन एक्शन में पकड़े जाने के कारण कारागार में थे। वसंत का मौसम था। सभी क्रांतिकारी साथी जानते थे कि बिस्मिल बहुत सुंदर लिखते थे और उससे भी अच्छा गाते थे। उसी समय एक क्रांतिकारी ने बिस्मिल से वसंत पर कुछ लिखने को कहा और तब जेल में बिस्मिल ने इस रचना को जन्म दिया। इसके संशोधन में उनके अन्य साथियों ने भी साथ दिया। मूल रचना का जो रूप सामने आता है वह 1927 में बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों द्वारा रचा गया था-

    मेरा रंग दे बसंती चोला,

    इसी रंग में गांधी जी ने नमक पर धावा बोला

    इसी रंग में वीर शिवा ने मां का बंधन खोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला

    इसी रंग में भगत-दत्त ने छोड़ा बम का गोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला

    इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला

    इसी रंग में बिस्मिल-अशफाक ने सरकारी खजाना खोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला

    इसी रंग में वीर मदन ने गवर्नमेंट पर धावा बोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला

    इसी रंग में पद्मकांत ने माडर्न पर धावा बोला

    मेरा रंग दे बसंती चोला।

    यह गीत ‘भगत सिंह का अंतिम गान’ शीर्षक के रूप में वर्ष 1931 के साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ के अंक में प्रकाशित हुआ था। भगत सिंह ने अंतिम समय में यह गीत गाया या नहीं इसके साक्ष्य उपलब्ध नहीं है किंतु निस्संदेह यह गीत भगत सिंह को पसंद था और वह जेल में किताबें पढ़ते-पढ़ते कई बार इस गीत को गाने लगते थे। उनके आसपास के अन्य बंदी क्रांतिकारी भी इस गीत को एक साथ गाते थे, इस बात के अनेक प्रमाण हैं।

    युवा जोश से उड़े हुकूमत के रंग

    स्वाधीनता की लड़ाई में देश के कोने-कोने में क्रांतिकारी एकजुट हो रहे थे। रामप्रसाद बिस्मिल हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापकों में से एक थे। इस संस्था के द्वारा ही चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, अशफाक उल्ला खान, राजगुरु, प्रेम किशन खन्ना, ठाकुर रोशन सिंह और भगवतीचरण व्होरा जैसे क्रांतिकारी एक दूसरे के संपर्क में आए। भगत सिंह बिस्मिल से अत्यधिक प्रभावित थे। हालांकि एक समय में वे महात्मा गांधी से भी बहुत प्रभावित थे किंतु गांधी जी के असहयोग आंदोलन रद कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन की जगह क्रांति का मार्ग अपनाना उचित समझा। उनके दल के प्रमुख क्रांतिकारियों में आजाद, सुखदेव और राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी ट्रेन एक्शन में चार क्रांतिकारियों, जिनमें बिस्मिल और अशफाक भी शामिल थे, की फांसी और कारावास की सजा से भगत सिंह इतने उद्विग्न हुए कि उन्होंने अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में विलय कर दिया और एक नया नाम दिया- हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए प्रदर्शन हुए और इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज किया। जिसमें लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। इसका बदला लेने के लिए भगत सिंह और राजगुरु ने योजना बनाकर 17 दिसंबर, 1928 को एसपी सांडर्स को गोली मार दी। आठ अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। भगत सिंह चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच लिया था कि उन्हें दंड स्वीकार है। विस्फोट होने के बाद उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाया। आप कल्पना कर सकते हैं कि एक हुकूमत, जिसका दुनिया के बहुत बड़े हिस्से पर शासन था और जिसके बारे में कहा जाता था कि उसके शासन में सूर्य कभी अस्त नहीं होता, ऐसी ताकतवर हुकूमत 23 साल के एक युवक से भयभीत हो गई थी।

    खून की होली जो खेली

    स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी साहित्य का इतिहास भाग -दो में उल्लिखित है कि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा में दिए गए दिशानिर्देश का भगत सिंह ने अक्षरश: पालन किया और अंग्रेजी सरकार से फांसी के बजाय गोली से उड़ा दिए जाने की मांग की। 23 मार्च, 1931 की शाम भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई।

    यही वह विचारभूमि थी जिसके आधार पर निराला जी ने ‘खून की होली जो खेली’ लिखी थी। यह कविता गया से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उषा’ के होलिकांक में मार्च 1946 में प्रकाशित हुई।

    युवकजनों की है जान,

    खून की होली जो खेली,

    पाया है लोगों में मान,

    खून की होली जो खेली।

    रंग गए जैसे पलाश,

    कुसुम किंशुक के, सुहाए,

    कोकनद के पाए प्राण,

    खून की होली जो खेली।

    निकले क्या कोंपल लाल,

    फाग की आग लगी है,

    फागुन की टेढ़ी तान,

    खून की होली जो खेली।

    खुल गई गीतों की रात,

    किरन उतरी है प्रात: की,

    हाथ कुसुम-वरदान,

    खून की होली जो खेली।

    आई सुवेश बहार,

    आम-लीची की मंजरी,

    कटहल की अरघान,

    खून की होली जो खेली।

    विकच हुए कचनार,

    हार पड़े अमलतास के,

    पाटल-होठों मुसकान,

    खून की होली जो खेली।।

    फाग में गूंजा देशराग

    यहां पर मैं अपनी एक प्रिय रचना का जिक्र अवश्य करना चाहूंगी। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर शायर भी थे। उनके जीवनकाल में उनकी आंखों के सामने धीरे-धीरे हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। इस संघर्ष में भारत ने खून की कैसी होली खेली, इसका बड़ा मार्मिक, सारगर्भित और साहित्यिक वर्णन मिलता है।

    होली का बिंब लेकर उस निर्णायक युद्ध का सजीव वर्णन है इस सुंदर फाग में-र्

    ंहद में कैसो फाग मचो री जोरा जोरी,

    फूल का तख्र्ता ंहद बना था,

    केसर की सी क्यारी,

    कैसे फूटे भाग हमारे,

    लुट गई बगिया हमारी,

    जल गई सब फुलवारी,

    हिंद में कैसो फाग मचो री।

    गोलिन का ही गुलाल बनायो,

    तोपन की पिचकारी,

    आप रही सिगरे मुख ऊपर,

    ऐसी तक-तक मारी

    हिंद में कैसो फाग मचो री।।

    संकल्प और संयम का रंग

    वसंत में चहुंओर छिटकी पियरी सरसों वातावरण में नई ऊर्जा, नई आशा लाती दिखाई पड़ती है तो फागुन में खिले टेसू, पलाश, कचनार का केसरिया रंग प्रकृति को एक अलग आध्यात्मिक आभा देते हैं। केसरिया रंग भक्ति व समर्पण का रंग है। भारतीय धर्म में केसरिया रंग को साधुता, पवित्रता, शुचिता, स्वच्छता और परिष्कार का वैसे ही द्योतक माना गया है जैसे आग में तपकर वस्तुएं निखर उठती हैं। भारत के ध्वज में पहला रंग केसरिया ही है जो शुभ संकल्प, ज्ञान, तप, संयम और वैराग्य का रंग है। एक पारंपरिक ग्राम गीत में एक पारंपरिक ग्राम गीत में होली गाती हुई ग्राम बाला को किसी और रंग की नहीं, केसरिया चुनरी ही पसंद है।

    मोरे बांके सांवरिया,

    मोहे ला दे केसरिया चुनरिया,

    ओ रंगरेजवा न धानी गुलाबी,

    मोरी रंग दे चुनरिया केसरिया।

    वीर की कामना करता वसंत

    बुंदेलखंड की अनेक फागों में युद्ध का, क्रांति का, वीरता का रंग दिखता है। एक फाग की चौकड़ी देखिए, जिसमें कहा जा रहा है कि अब तो पानी सिर से ऊपर हो गया है अर्थात अब सहन नही होता। ऐसा न हो कि यहां कौवे बोलने लगे अर्थात सब कुछ कहीं उजड़ न जाए। कवि श्याम का कहना है कि- सावधान हो जाओ हमें लड़ने के लिए बैरी ललकार रहा है, अपने को कमजोर न मानकर उनसे संघर्ष करने को सदैव तैयार रहो।

    पानी हो गव मूड डुबऊवा बोलन लगे न कौआ।

    रोजैं मर रए इतै आदमी, जैसे चौपे चउवा।

    आतंकी हमलन कौ घुस गव लोगन के मन हउवा।

    चैतो स्याम हमे ललकारे, बैरी बीर लड़उवा।।

    वीरता के लिए साहस चाहिए और साहस भी अज्ञात के साथ प्रेम प्रसंग ही है। प्रेम करने के लिए भी तो साहस चाहिए न और इसीलिए वसंत वीर की कामना करता है।

    (लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)

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