Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    इंद्रधनुष में भी कम पड़ जाएंगे, लखनऊ में इतने रंग हैं..., पढ़ें लोकगायिका मालिनी अवस्थी से बातचीत के प्रमुख अंश

    Updated: Mon, 18 Nov 2024 11:51 AM (IST)

    लखनऊ एक ऐसा शहर है जिसकी रंगत इंद्रधनुष से भी ज्यादा है। इस शहर की मिट्टी रहन-सहन खान-पान कला-संस्कृति संगीत-नृत्य परंपरा सभी कुछ अनोखा है। यह बातें लाेक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी और सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी ने कही। सूत्रधार दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रमुख आत्म प्रकाश मिश्र लखनऊ के रंगों को जानने के लिए संवाद के प्रमुख अंशों को पढ़कर लखनऊ के रंगों में खो जाइए।

    Hero Image
    संवादी के सत्र लखनऊ सबरंग में बोलतीं पद्मश्री मालिनी अवस्थी साथ में मंजरी चतुर्वेदी व आत्म प्रकाश मिश्र

    महेन्द्र पाण्डेय, लखनऊ। अपनी तरह का पूरी दुनिया में अकेला शहर है लखनऊ। आप संसार में कहीं भी चले जाइए और दो लाइन गुफ्तगू करिए।अगला पलटकर कह देगा- आप लखनऊ से हैं? दरअसल, यहां की माटी ही ऐसी है, जिसमें ऐसा अदब घुला हुआ है। अगर किसी की परवरिश यहां हुई है तो उसकी तबीयत में एक लखनवीपन आ जाता है। इस लखनऊ में इतने रंग हैं कि इंद्रधनुष में भी रंग कम पड़ जाएंगे। लखनऊ पर बातें छिड़ीं तो यहां की मिट्टी, रहन-सहन, खान-पान, कला-संस्कृति, संगीत-नृत्य परंपरा सभी बिंदु स्पर्श होते गए।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    संवादी का पांचवां सत्र था- 'लखनऊ सबरंग'। मंच पर थीं लाेक गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी और सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी। सूत्रधार दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रमुख आत्म प्रकाश मिश्र लखनऊ के रंगों को जानने के लिए चौक पहुंचे।

    तवायफों पर काफी काम कर चुकीं मंजरी चतुर्वेदी से उनका अनुभव पूछा- वह बोलीं, लखनऊ में इंद्रधनुष से भी अधिक रंग हैं। एक रंग अलग कर पाना मुश्किल है। मेरे काम में लखनऊ दिखता है, चाहे मेरा काम तवायफों पर क्यों न हो। मैं तवायफों को वेश्या नहीं मानती, क्योंकि औरतों का इतिहास मर्दों ने लिखा है। इनकी कला-संस्कृति हमारी धरोहर है। लखनऊ में जितनी कला-संस्कृति पनपी, उनकी दुनिया में कहीं नहीं पनपी।

    मंजरी के इन शब्दों से आत्मप्रकाश के चेहरे पर संतोष के भाव उभरे, किंतु वह अभी चौक से निकलना नहीं चाहते थे। पूछा- यहां ऐसा क्या रहा, जिसके बारे में बहुत कुछ कहा गया? मंजरी बोलीं, चौक पहले परफार्मेंस का एरिया (तवायफों का इलाका) रहा। लोग वहां जाते थे। पैसे देते और ठुमरी, दादरा, कथक सुनते-देखते थे। लस्सी पीते और घर चले जाते थे।

    आज के दौर में लोग सिनेमा हाल में यही करते हैं। फिल्म देखते हैं, पापकार्न खाते हैं, कोल्डड्रिंक पीते हैं और चले आते हैं। 200 वर्ष पहले की बात करो तो लोग इसे गलत मानते हैं, लेकिन तवायफों ने ही इसे बचाकर रखा था जो हम आज नृत्य करते हैं और मालिनी अवस्थी गाती हैं। बेगम अख्तर भी तो तवायफ थीं, पर उन्हें हम बेगम कहते हैं, क्योंकि हम उनकी इज्जत करते हैं।

    चौक कैसा है?

    मालिनी ने कहा, मैं चौक को संगीत के इतर देखती हूं तो चौक माने रौनक। उस शहर की धड़कन है चौक, जहां सबसे अच्छा खाना मिलता है और गाना-बजाना चलता है। उन्होंने अपने उस्ताद राहत अली खां के उस्ताद के सामने गाने का किस्सा साझा किया- मैं चौक से गाकर लौट रही थी तो उस्ताद ने अपने उस्ताद के घर की सीढ़ियां चूम लीं। मैंने भी वैसा ही किया। तब मेरी उम्र 19 वर्ष थी। 30 वर्षों बाद एक महिला मिलीं। मुझसे पूछा, आपने पहचाना नहीं। आप उस्ताद जी के घर आई थीं। आपको गाते देखती हूं तो फख्र होता है। आपने सीढ़ियों पर सदका किया था। नाम तो रोशन होना ही था। आज हम मंच के लिए गाते हैं और वो लोग किसी खास के लिए गाती थीं, उसकी कमी तो खलती ही है।

    बात चौक से निकली। प्रश्न हुआ लखनऊ की नींव लक्ष्मण जी ने डाली?

    मंजरी ने कहा कि सुना तो यही है। पर हम दोनों दृष्टि से देखते हैं। लक्ष्मणपुरी और अवध। जब सभी रंग मिले तभी सबरंग बना। मालिनी ने कहा कि इमारतों से इतिहास को जज नहीं किया जाना चाहिए। तीन सौ वर्षों में लखनऊ का इतिहास समेट दिया जाता है। यकीनन कह सकती हूं, लक्ष्मण जी ने लखनऊ को बसाया। यहां से चर्चा शेखजादों के लखनऊ की ओर से मुड़ी।

    मालिनी ने कहा कि अभी मलिहाबाद में बहुत से परिवार हैं, जो ईरान से ट्रैस करते हैं कि उनकी कौन सी पीढ़ी है। उन्होंने मुजफ्फर अली का दृष्टांत सुनाकर कहा कि हिंदू-मुसलमान पर नहीं, लखनऊ पर बात होनी चाहिए। मंजरी ने इस बात में जोड़ा- लखनऊ के लोग न हों तो मुंबई में शायरी न हो। सुपर स्टार न हों। मालिनी ने बात पूरी की- फिल्में भी न हों। मंजरी ने अपनी यात्रा में लखनऊ के योगदान को भी याद किया। कहा, लखनऊ छोड़े 20 वर्ष हो गए, जहां जाती हूं, लखनऊ साथ जाता है।

    मालिनी ने किया रैगिंग का मंचन

    संवाद के बीच मालिनी अवस्थी को लखनऊ विश्वविद्यालय में रैगिंग का वाकया स्मरण हुआ तो उन्होंने उस दृश्य का मंचन किया। गले में दुपट्टे की तरह गमछा डाला और छात्रा की भांति चलीं। सीनियर की टिप्पणियां साझा कीं और बताया कि कैसे वे गाना गवाने के बाद क्लास में जाने देते थे। उन्होंने गीत के सुर भी छेड़े- रंगी सारी गुलाबी चुनरिया हो... तो करतल ध्वनि से सभागार गूंज उठा।

    रील से अधिक सीखना है

    श्रोताओं की दीर्घा से अर्चित मिश्र ने पूछा, क्षेत्रीय भाषाओं के लिए क्या कर रहे हैं? उत्तर था- दायित्व मां-बाप का है कि अपनी भाषा को बोलने में शर्म न करें। कुंठित न हों।

    छात्रा आरुषि मेहरोत्रा ने पूछा- लखनऊ के रंगों में कमी आ रही है?

    जवाब था, आप नृत्य कर रही हैं तो सीख रही हैं, किंतु 20-30 सेकंड की रील का दोष है कि इतना ही सीखना है। सेंट जोसेफ स्कूल के एमडी अनिल अग्रवाल ने सिनेमा-वेबसीरीज के परिप्रेक्ष्य में पूछा, शब्दों की गिरावट और कितने नीचे तक जाएगी? मंजरी ने कहा, परिवार में बहुत सी चीजें खत्म हो गई हैं। स्कूलों में मोरल साइंस पढ़ाया जाता था, किंतु वह पाठ्यक्रम से जा चुका है, ऐसा तो होगा ही।