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लखनऊ के अंतरराष्‍ट्रीय कला शिविर में उभर रही राममयी संस्कृति, वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अब मुखर हो रही श्रीराम की महत्ता

लखनऊ में आयो‍जि‍त अंतरराष्ट्रीय कला शिविर में सभी कलाकारों ने अपनी दृष्टि की रूपरेखा अपने-अपने कैनवास पर बना डाली। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में राम की महत्ता अब मुखर होने लगी है। अब तक तीन कलाकारों के स्टूडियो एक्रिलिक रंग के पेस्ट अन्य आवश्यक सामग्री से प्रखर हो उठे हैं।

By Rafiya NazEdited By: Published: Tue, 19 Oct 2021 02:30 PM (IST)Updated: Tue, 19 Oct 2021 06:07 PM (IST)
लखनऊ के अंतरराष्‍ट्रीय कला शिविर में उभर रही राममयी संस्कृति, वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अब मुखर हो रही श्रीराम की महत्ता
अयोध्या शोध संस्थान और संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय कला शिविर।

लखनऊ, जागरण संवाददाता। अंतरराष्ट्रीय कला शिविर में सभी कलाकारों ने अपनी दृष्टि की रूपरेखा अपने-अपने कैनवास पर बना डाली। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में राम की महत्ता अब मुखर होने लगी है। मुख्य रूप से अब तक तीन कलाकारों के स्टूडियो एक्रिलिक रंग के पेस्ट, ब्रश, कैनवास, पेंसिल और अन्य आवश्यक सामग्री से प्रखर हो उठे हैं। इंडोनेशिया के चित्रकार चोकोरदा अलित के स्टूडियो में कई कैनवास इधर उधर बिखरे पड़े हैं और जिस कैनवास पर वह सक्रिय हैं वहां राम दृश्य में नहीं हैं, लेकिन हनुमान के हृदय में हैं। उन्होंने लंका में हनुमान की पूंछ में लगी आग के प्रसंग से अपनी बात कही है। रावण का बेटा हनुमान को राज्य के एक विशेष भाग में बंदी बना कर उसकी पूंछ में आग लगा देता है और हनुमान उसी आग से राज्य को जला देते हैं।

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रामायण के इस कथप्रसंग की कथामयता को स्केच में ला देने के बाद अब चोकोरदा रंगों के बारे में सोच रहे। हृदय में राम हैं और परिस्थिति विषम है, ऐसे में कौन से एक्रिलिक रंग सुसंगत होंगे, किन रंगों में हनुमान की वीरता उभरेगी, यह विचारणीय है। हालांकि वह एक्रिलिक रंगों का प्रयोग कैनवास पर करने से पहले कागज पर स्याही से स्केच करना शुरू करते हैं। उनकी शैली बाली की पारंपरिक शैली से भिन्न नहीं है, इसलिए उनके फीगर अलग दिखते हैं। आग में घिरे अविचलित हनुमान की वीरता यहां बालिनीस तकनीक में है। बाली और सुमात्रा में विकसित हुई चित्रशैली को पकेम कहा गया है जिसमे रेखाओं से बने उभारों या कंटूअर को सिगार मांगसी प्रणाली में ढाला गया है। इसे हम पैटर्न के अर्थ में समझ सकते हैं। वे कहते हैं, इससे सौंदर्य बनता है। वे मानते हैं कि कला के बिना जीवन बंजर है और कला जीवन से जीवंत होती है। श्री लंका में अपने स्टूडियो में रचनासक्रिय मनुशिका बुद्धिनी पथिराना ने काम पहली ही शाम शुरू कर दिया है। वे इस अर्थ में अद्भुत हैं कि वे रंगों से स्केच करती हैं। यह उनका प्रस्थान होता है। राम और सीता का असंपूर्ण स्केच उनके विचार को एक दो शामों में प्रत्यक्ष कर देगा, ऐसी आशा है।

डेनमार्क में रह रहीं स्वप्निल श्रीवास्तव भी अभी अपने स्टूडियो में भिन्न ढंग से सक्रिय हैं। वे बताती हैं कि कला उनके लिया ध्यान का एक रूप है, एक प्रकाश जो मार्गदर्शन करता है। कला से ही उन्हें जीवन में उद्देश्य और उत्साह मिलता रहता है। कला जीवन से प्रेरित होकर जीवन को प्रतिकृत करती है। वे चारकोल, जल और तैलरंग, सभी माध्यमों में काम करती हैं लेकिन तैल रंगों में काम करना उन्हे अधिक भाता है इसलिए वे इस माध्यम में प्रमुखता से काम करती हैं। वे अपने को नरेटिव पेंटर मानती हैं, यानी ऐसी कलाकार जिनका आख्यान चित्रनिर्भर है। वे चित्रों से लिखती हैं, कहती हैं। वे किसी बात को पेंटिंग से नरेट करती हैं। भारतीय कला मनीषा की अवधान परंपरा में श्लोकाभिनय और चित्रलेखन को महत्वपूर्ण घटक के रूप में देखा गया है। इसीलिए नाट्यशास्त्र में चित्राभिनय और चित्रसूत्रम में चित्रलेखन को प्रमुखता से समझाया गया है। पेंटिंग से नरेट करने की स्वप्निलप्रवृत्ति इसी भारतीय कला वांग्मय की नई और प्रशस्त भूमिका दिखती है। नरेटिव पेंटिंग की अपनी इस निजी और विशिष्ट शैली में स्वप्निल ने यथार्थ और अतियथार्थ दोनो स्थितियों का संयोग रचा है। यथार्थवादी स्थितियों में अतियथार्थ या सररीयल इमेज का मेल उनकी शैली विशेष की ध्वनि है जिसका प्रयोग वे एक अरसे से करती आ रहीं। चित्रकला की यूरोपीय धरती पर अतियथार्थधर्मी चित्रों की लोकप्रियता ही पिछली शती का पूर्वार्ध है। भारतीय चित्रकला में मध्यकाल की संध्याभाषा ने कोई जगह नहीं बनाई तभी हम फ्रांस की इस शैली से प्रभावित होकर अपने अतियथार्थवाद की भूमिका लिखने में प्रवृत्त हुए। जितना राम अभी स्वप्निल के कैनवास पर रुपायित हुआ है, उससे अधिक की प्रतीक्षा है।

शिविर के समन्वयक डॉ अवधेश मिश्र ने बताया कि शिविर में केवल कथा नहीं रची जा रही है बल्कि विभिन्न देशों, संप्रदायों और दर्शन के साथ प्रभु राम के सांस्कृतिक सरोकार उकेरे जा रहे हैं जो संस्थान की अमूल्य धरोहर के रूप में अविरल गंगा की भांति हमारी पीढ़ियों को संस्कारित करते रहेंगे।

प्रख्यात इतिहासकार एवं अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लवकुश द्विवेदी बताते हैं कि चित्रों में उभरने वाले राम और उनकी महिमा आज भी उतनी ही प्रभावी और प्रासंगिक हैं, इसीलिए आज दुनिया नकारात्मकता से उबरने के लिए भारत की ओर देखती है। इन चित्रों की प्रदर्शनी एक अनूठा संगम होगी और सांस्कृतिकी के नए द्वार खोलेगी।


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