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    शोध में चौंकाने वाला सच, चार हजार वर्ष पहले भोजपत्र और ओक से हरीभरी केदारघाटी से ये पौधे विलुप्त

    By Dharmendra MishraEdited By:
    Updated: Thu, 10 Feb 2022 09:25 PM (IST)

    आदिदेव महादेव के धाम केदारनाथ के आसपास सदियों पहले घने वन हुआ करते थे। शोध में यह बात सामने आई है कि 3600 से 4200 साल पहले केदार घाटी में भोजपत्र और ओक जैसे पेड़ बहुतायत में पाए जाते लेकिन समय के साथ वे यहां से ओझल होते गए।

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    भोजपत्र के पौधों से आच्छादित केदार घाटी।

    लखनऊ [रामांशी मिश्रा] । आदिदेव महादेव के धाम केदारनाथ के आसपास आज भले ही भोजपत्र (बर्च) और ओक के जंगल नदारद हों, किंतु सदियों पहले यहां इनके घने वन हुआ करते थे। लखनऊ के विज्ञानियों द्वारा किए जा रहे शोध में यह बात सामने आई है कि 3,600 से 4,200 साल पहले केदार घाटी में भोजपत्र और ओक जैसे पेड़ बहुतायत में पाए जाते, लेकिन समय के साथ वे यहां से ओझल होते गए। इसके पीछे विज्ञानी तमाम कारणों की पड़ताल कर रहे हैं। साथ ही जलवायु पुनर्निर्माण को समझने में भी यह अध्ययन नई रोशनी डालने में सक्षम है।

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    बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डा. रतन कर और उनके साथियों ने यह शोध किया है। संस्थान की निदेशक डा. वंदना प्रसाद का मानना है कि चूंकि हिमालयी क्षेत्र में जलवायु संबंधी परिवर्तन पूरे देश के लिए महत्वपूर्ण होता है तो यह अध्ययन जलवायु के मोर्चे पर आए परिवर्तनों को समझने में भी सहायक हो सकता है। इससे जलवायु परिवर्तन के रुझानों को समझकर केदारनाथ जैसी आपदा की पुनरावृत्ति को रोकने में मदद मिल सकती है। हिमालयी क्षेत्र की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु को देखते हुए इस अध्ययन में तीन से चार वर्षों का समय लग गया और शोधकर्ताओं को तमाम मुश्किलों को सामना भी करना पड़ा। लेकिन अतीत की वनस्पतियों के रुझान और जलवायु परिवर्तन की पड़ताल के दृष्टिकोण से यह बहुत उपयोगी है। विज्ञानी अब अपने इस अभियान को आगे बढ़ाने में जुट गए हैं।

    डा. रतन कहते हैं कि भोजपत्र और ओक के पेड़ों के परागकण अधिक दूर तक नही जा पाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ऐसे पेड़ इसी क्षेत्र में रहे होंगे जिनके पराग तलछट में जमा हो गए होंगे। वर्तमान में केदारनाथ में भोजपत्र या ओक का कोई पेड़ मौजूद नहीं है। शोध में वनस्पति और जलवायु का अध्ययन करने के लिए ग्लेशियर से लगे मैदानी क्षेत्रों में 160 सेंटीमीटर तक की खोदाई की गई थी और तलछट के नमूने रेडियो कार्बन विधि द्वारा दिन अंकित किए गए थे। शोध का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह भी रहा कि 4200 से 3600 साल पहले तलछट में भोजपत्र और ओक के परागकण बहुतायत मात्रा में पाए गए हैं।

    केदार घाटी में वेजिटेशन यानी पादपों के स्तर में आई तेज गिरावट पर डा. रतन कहते हैं कि वृक्ष के पराग में अमूमन ऐसी कमी तभी देखी जाती है जब ग्लेशियर दीर्घकाल के लिए शीतकाल की ओर बढ़ रहा हो। परिणामस्वरूप वनस्पतियों की ऊंचाई धीरे-धीरे घटती जाती है और एक समय के बाद वे विलुप्त हो जाते हैं। हालांकि ऐसा होने के बाजवूद वनस्पतियों के पुनर्जीवन की संभावनाएं कायम रहती हैं, किंतु केदारनाथ में ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में शोधकर्ताओं ने मानव जनित कारणों को इसका जिम्मेदार माना है। माना जा रहा है कि चार हजार वर्ष पूर्व मानव के यहां आगमन ने वनस्पतियों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया। मानवीय गतिविधियों के बढ़ने से यह सिलसिला और तेज होता गया। इसी कारण भोजपत्र और ओक जैसी वनस्पतियां यहां दोबारा नहीं पनप पाईं।

    बीएसआइपी के विज्ञानियों द्वारा किया गया यह शोध एल्सिवियर द्वारा प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका 'कैटीना' में भी प्रकाशित हुआ है।

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    परागकणों का अध्ययन जिसे पैलीनोलाजी कहा जाता है, जलवायु पुनर्निर्माण के लिए बहुत ही उपयोगी रूप से इस्तेमाल किए जाने वाला तरीका है। ऐसा इसलिए क्योंकि उपसतही तलछट में पराग बहुतायत मात्रा उत्पन्न होते हैं और उनके छोटे आकार और प्रतिरोधी प्रकृति के कारण तलछट में आसानी से संरक्षित होते हैं। इसके अलावा प्रत्येक पौधा अद्वितीय अकारिकी के साथ पराग पैदा करता है जो आसानी से विभिन्न जीवित पौधों के समूह से संबंधित किया जा सकता है।