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    आओ भैया बटोही हिंद देखि जाओ, पढ़िए गिरमिटिया कभी न भूलने वाली एक अनकही कहानी

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Sat, 30 Apr 2022 05:59 PM (IST)

    यदि साहस और स्वावलंबन की अदम्य जिजीविषा के विषय में कुछ जानने की इच्छा हो तो गिरमिटिया इतिहास पढ़ना चाहिए। गिरमिटिया कभी न भूलने की एक अनकही कहानी है। अंग्रेजों द्वारा दिए गए लुभावने प्रस्तावों के चलते तमाम भारतीयों का देश तो छूटा मगर देशप्रेम नहीं।

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    गिरमिटिया: परिवार छूटे, परंपरा और धर्म नहीं।

    मालिनी अवस्थी। बात उस समय की है जब संपूर्ण विश्व में दास प्रथा समाप्त हो चुकी थी। यूरोपीय शक्तियों की साम्राज्यवादी नीतियों ने दास प्रथा का विकल्प निकाला और भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी से करार कर सभी यूरोपीय शक्तियां वर्ष 1826 से लेकर 1920 तक लगभग 35 लाख पुरुष, महिलाओं और बच्चों को फ्रांस, डच और अंग्रेजी उपनिवेशों में काम करने के लिए ले गईं। मारीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम, फिजी आदि में गन्ने की खेती की आड़ में श्रमिक बनाकर लाए गए भारतीयों में अधिक संख्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार से गए लोगों की थी। मद्रास, पांडिचेरी और केरल से भी लोग गए थे। आधुनिक इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर कराए गए प्रवासन का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।

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    लुभावने जाल में फंसी जनता अधिकतर

    गोरों ने स्थानीय ठेकेदारों के माध्यम से बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश (तत्कालीन यूनाइटेड प्रोविंस) में परदेस में काम करने का लुभावना प्रस्ताव पहुंचाया। देखते ही देखते खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। परदेस जाकर कमाने का गोरों का प्रस्ताव आकर्षक था। बुजुर्ग सशंकित तो थे, लेकिन युवाओं ने फैसला सुना दिया था कि वे कलकत्ता (अब कोलकाता) जाएंगे और वहां से कंपनी सरकार के साथ परदेस। कोई अकेला चल पड़ा तो कोई पत्नी के साथ। आंसुओं से भीगी आंखें, अपनों का बिछोह भी उन्हें रोक न सका। चर्चा थी करारनामे यानी एग्रीमेंट की। यूरोपीय कंपनियां परदेस जाने वालों को जहाज पर बिठाने से पूर्व एक कांट्रेक्ट पर दस्तखत करवा रही थीं। इस अनुबंध पत्र में अनेक शर्तें थीं मसलन, पांच वर्ष से पहले लौटना संभव नहीं होगा, वेतन आठ रुपए प्रति माह मिलेगा, ओवरटाइम के लिए अलग धन, रविवार का अवकाश और परिवार के वही लोग साथ जा सकेंगे, जो कठोर श्रम कर सकें। इसके लिए उनका साक्षात्कार लिया जाएगा। वहां विवाह की अनुमति नहीं मिलेगी। काम के बदले धन देने के साथ ही जीवन के लिए बेहतर अवसर देखकर बहुतों ने एग्रीमेंट पर दस्तखत कर दिया और फिर निकल पड़े अनजाने सफर पर। जिन्होंने अंग्रेजी, डच या फ्रेंच में एग्रीमेंट पर दस्तखत कर दिए वे अपने-अपने प्रवासी देश में गिरमिटिया या कोंत्रक्तिया कहलाए। आज भी इन देशों में धरोहर के रूप में सहेजे गए इन गिरमिट यानी एग्रीमेंट की प्रति पर जाने वाले बटोहियों के नाम कुछ इस तरह पढ़े जा सकते हैं- रामजनम पिता रामसजीवन, गांव अरेरी जिला सीवान, रामदीन, घुंघरू, जीवनराम, चंदन, लखी, सुक्खी, मंगरू, रामसनेह आदि... एग्रीमेंट को गिरमिट कहने वाले हमारे पूर्वजों की पहचान बन गई गिरमिटिया।

    साथ ले गए विरासत

    समाज तो समाज था और चूंकि कलकत्ता में भर्ती होती थी और वहीं के बंदरगाह से परदेस को प्रस्थान तो जो चुनौती को स्वीकार कर अपना गांव छोड़ चले गए, वे कलकतिया भी कहलाए। फ्रेंच और डच सरकारों ने ब्रिटिश सरकार से व्यापारिक समझौते के तहत भारतीयों को अपने-अपने उपनिवेश ले जाने की अनुमति मांगी थी। यू.पी. और बिहार के साहसी पथिक अपनी माटी से दूर जा रहे थे, लेकिन भारत की आत्मा को अपने साथ गठरी में बांधे ले जा रहे थे। श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा के रूप में, देवी-देवताओं के चित्र और सिंदूर-टिकुली के रूप में, तीज-त्योहार और लोकगीतों के रूप में... यही उनका संबल था और यही विरासत।

    चार माह बाद मिली धरती

    पहला जहाज वर्ष 1829 में मारीशस के लिए रवाना हुआ था, लेकिन यह यात्रा दुखद रूप से विफल रही, फिर भी अगले पांच वर्ष में लगभग 25 हजार भारतीय मारीशस पहुंचे। ये यात्राएं बहुत कठिन थीं। अव्यवस्था के कारण जहाज में हैजा, चेचक जैसी महामारियां फैलीं। बहुतों ने यात्रा समाप्त न होते देख घबराहट में सागर में कूदकर जान दे दी। भोजन की कमी और विदेशी कंपनियों का दुव्र्यवहार, पुरखे डरे थे, सशंकित भी, लेकिन बहादुर थे। लगभग चार महीने की लंबी यात्रा के बाद पहला जहाज मारीशस के तट पर पंहुचार्। ंहद महासागर में बसा खूबसूरत द्वीप अपनी पथरीली भूमि की बांह पसारे उनका स्वागत कर रहा था। नई भोर हो चुकी थी। भारत हजारों मील पीछे छूट गया था, लेकिन उनके भीतर एक भारत सांस ले रहा था जिसे आने वाले समय में दुनिया सलाम करने वाली थी। कैरेबियन द्वीपों में सबसे पहले गिरमिटिया भाई 1838 में कलकत्ता से चलकर जमैका पहुंचे और 30 मई, 1845 को फतेह रजाक नाम का जहाज भारत से गिरमिटिया श्रमिकों को लेकर त्रिनिदाद के नेल्सन द्वीप पहुंचा और यह सिलसिला चलता रहा।

    स्मृतियों ने दिया बल

    गिरमिटिया मजदूर अधिकत्तर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के थे। इनसे गन्ने के खेतों में काम कराया जाता था, क्योंकि ये उसमें सिद्धहस्त थे। गिरमिटिया भी चाहते थे कि पांच सालों में इतना कमा लें कि भारत स्थित उनके स्वजनों की सारी समस्याएं दूर हो जाएं। अंग्रेज, फ्रेंच व डच लोगों के अत्याचार का सामना करते हुए उन्होंने कठोर श्रम द्वारा जंगल, पथरीली भूमि और दलदल को उपजाऊ भूमि के रूप में तब्दील कर दिया, किंतु तब तक गिरमिटिया भाइयों की स्थिति दयनीय हो गई थी। ना उन्हें पर्याप्त भोजन मिलता और ना जीने के मौलिक अधिकार। कुछ समय के लिए धन कमाने गए भारतीय इस छलावे में फंस चुके थे।

    त्रिनिदाद में गिरमिटिया भारतीयों के पूर्वजों के प्राचीन अभिलेखों को जब मैंने देखा तो पाया कि अधिकांश गिरमिटिया उत्तर प्रदेश के लखनऊ, लखीमपुर, बहराइच, फैजाबाद, गोंडा, जौनपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी और गोरखपुर के रहने वाले थे। एग्रीमेंट के हिसाब से सभी गिरमिटिया परिवारों को अलग-अलग जगह काम पर लगा दिया गया। उन्हें पथरीली भूमि और बंजर भूमि को खेती योग्य बनाने, दिनभर काम करने के बाद मुट्ठी भर अनाज मिलता और जो कोई सांस लेने को क्षणभर बैठ गया तो गोरा चीफ कोड़े की मार से उन्हें बेदम कर देता। काम करते हुए वे गीत गाते हुए अपना मन रमाने की कोशिश करते थे। ऐसे में ही सूरीनाम में बाबू रघुवीर नारायण ने यह कालजयी बटोहिया लिखा-

    सुंदर सुदूर भूमि भारत के देसवा रे,

    मोरे प्रान बसे हिमखोह रे बटोहिया,

    जाउ जाउ भैया बटोर्ही ंहद देखि आउ,

    जहां रिसी चारों वेद गावे रे बटोहिया।

    उनकी स्मृतियां ही थीं, जो उन्हें बल देती थीं। वे बंधुवा श्रमिक थे। सारे अत्याचार सहकर भी कड़ी मेहनत कर रहे थे।

    चमक रहे संस्कृति के दीप

    अपने देश से हजारों मील दूर जाकर भी उनका गांव, बोली, तीज-त्योहार, खानपान खांटी भारतीय था। उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक संस्कृति की अदम्य अमरबेल उन सभी के घरों में पल्लवित होती रही। कई मौसम बीते, कई बरस बीते, कई पीढ़ियां बीतीं और इस पूरे संघर्ष में गिरमिटिया भाइयों की प्राणशक्ति बनी भगवान राम में उनकी आस्था। श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा उनके विश्वास के सबसे बड़े संबल बने। आधे पेट रहकर अंग्रेजों के कोड़े खाते हुए भारतीयों के लिए हनुमान जी का बल और भगवान राम का संघर्ष संजीवनी बन गया। आज भी मारीशस में हर घर में आपको हनुमान जी का ध्वज दिख जाएगा। हर घर में तुलसी का चौरा भारतीय संस्कृति की दीप्ति से जगमगाता रहता है। मैंने स्वयं देखा है कि जिस आनंद उत्साह के साथ मारीशस में शिवरात्रि, रामनवमी, तुलसी विवाह मनाया जाता है, वह अभिभूत करने वाला अनुभव है। त्रिनिदाद में आपको हर घर में श्रीरामचरितमानस और हर गांव में मानस का पाठ पढ़ने वाले मिल जाएंगे। फिजी में छोटे-छोटे बच्चे आपको राम-कृष्ण के ऐसे भजन सुना देंगे कि आप अचरज में पड़ जाएंगे।

    गांधी जी ने बदला परिदृश्य

    परदेस में गिरमिटियों पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ कोई सुनवाई तक नहीं होती थी। उन्हें केवल ‘हाथ से उठाओ और मुंह में डालो’ जितनी तनख्वाह मिलती थी। अंग्रेज इन्हें जरा भी आराम नहीं करने देते। औरतों की स्थिति तो और भी खराब थी। गिरमिटिया श्रमिकों के साथ बदसलूकी का विषय सबसे पहले महात्मा गांधी ने उठाया और अंग्रेज सरकार से शिकायत की तथा आंदोलन किया। वह मारीशस भी गए। आश्चर्य नहीं कि इतने बरसों बाद भी प्रवासी भारतीयों के लोकगीतों में गांधी जी स्थान पाते हैं। गांधी जी ने ही गिरमिटिया जैसी अमानवीय प्रथा के खिलाफ सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में आवाज उठाई थी। मारीशस और सूरीनाम में गांधी जी ने अपने विश्वस्तों को भारतीय समाज के लिए निश्शुल्क वकील नियुक्त किया और गोरों से शोषित भारतीय समाज को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का नैतिक बल दिया। स्वयं दो से छह माह तक इन जगहों पर रहकर गांधी जी ने स्त्री शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता अनुशासन और कुरीतियों से लड़ने की शिक्षा दी। इधर भारत में गोपाल कृष्ण गोखले ने वर्ष 1912 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में प्रस्ताव प्रस्तुत किया। गांधी जी भी भारत आ चुके थे। उन्होंने वर्ष 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में भारत सुरक्षा और गिरमिट प्रथा अधिनियम प्रस्ताव रखा था। वर्ष 1917 में इस प्रथा के विरोध में अहमदाबाद में एक विशाल सभा हुई, जिसमें सीएफ एंड्रयूज और हेनरी पोलाक ने भी भाषण दिया था। इसी सभा में पंडित मदन मोहन मालवीय, सरोजनी नायडू जैसे वक्ताओं ने भी अपनी बात रखी। तोता राम सनाढ्य और कुंती जैसे गिरमिटिया नेताओं ने भी यहां आवाज बुलंद की थी। इतने प्रबल विरोध के आगे सरकार को झुकना पड़ा। मई 1917 तक गिरमिटिया प्रथा को खत्म करने का अल्टीमेटम दिया गया और आखिरकार मार्च 1917 में यह कुप्रथा खत्म कर दी गई।

    हर प्रवासी में बसा भारत

    हालैंड, मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गळ्याना, फिजी के हमारे भारतवंशी महात्मा गांधी को पूजते हैं, उन्हें भारत का प्रतीक मानते हैं। आज पराए देश में बसे ये गिरमिटिया अब एक सुंदर, समर्थ, सफल जीवन व्यतीत करने लगे हैं। ये आज भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने में लगे हैं। वे शिक्षा, कला, मनोरंजन और राजनीति के हर क्षेत्र में उन्नति कर रहे हैं। कई देशों के राष्ट्रप्रमुख इन्हीं गिरमिटिया लोगों में से ही बने हैं। एक बार स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘भारत से जाने वाला हर भारतीय एक छोटा भारत अपने साथ लेकर जाता है। गिरमिटिया अपने साथ भोजपुरी भाषा, भोजन, धार्मिक पुस्तकें और रीति-रिवाज लेकर गए और आज भी उसकी अलख जगा रहे हैं।’ गिरमिट हृदयों मे सुंदर सुभूमि भारत बसता है। इन बटोही प्राणों में एक द्वार घेरे हिम-तीन द्वार सिंधु वाला देस रचा-बसा है। पुरखों के धरती की यात्रा इन भारतवंशियों की सबसे बड़ी लालसा होती है। ‘गिरमिटिया हिंदी’ के लेखक अभिमन्यु अनत ने लिखा है -

    आज अचानक हिंद महासागर की लहरों से तैरकर आई

    गंगा की स्वर-लहरी को सुन

    फिर याद आ गया मुझे

    वह काला इतिहास

    उसका बिसारा हुआ

    वह अनजान अप्रवासी...

    बहा-बहाकर लाल पसीना

    वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा

    जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना।

    (लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)