Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Panchayati Raj Diwas : पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में से एक, जान‍िए कब देश में लागू हुई पंचायती राज व्यवस्था

    पंचायती राज व्यवस्था भारत की स्थानीय स्वशासन की प्रणाली है। जिस तरह से नगरपालिकाओं तथा उपनगरपालिकाओं के द्वारा शहरी क्षेत्रों का स्वशासन चलता है ठीक उसी प्रकार पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों का स्वशासन चलता है।

    By Prabhapunj MishraEdited By: Updated: Sun, 24 Apr 2022 01:35 PM (IST)
    Hero Image
    Panchayati Raj Diwas : पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में से एक

    लखनऊ, जेएनएन । देश में प्रतिवर्ष 24 अप्रैल को लोकतंत्र की नींव के रूप में पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में से एक रहा है। वर्तमान में हमारे देश में 2.51 लाख पंचायतें हैं, जिनमें 2.39 लाख ग्राम पंचायतें, 6904 ब्लॉक पंचायतें और 589 जिला पंचायतें शामिल हैं। भारत में पंचायती राज की स्थापना 24 अप्रैल 1992 से मानी जाती है। पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में से एक रहा है। महात्मा गांधी ने भी पंचायतों और ग्राम गणराज्यों की वकालत की थी। स्वतंत्रता के बाद से, समय-समय पर भारत में पंचायतों के कई प्रावधान किए गए और 1992 के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के साथ इसको अंतिम रूप प्राप्त हुआ था। बता दें क‍ि 73वां संविधान संशोधन अधिनियम,1992 है जो 24 अप्रैल 1993 से प्रभाव में आया था।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    पंचायती राज व्यवस्था कोई नई नहीं है, वैदिक काल से ही यह व्यवस्था अपने देश में किसी न किसी रूप में चलती आ रही है। वैदिक काल में पंचों को परमेश्वर माना जाता था। उस वक्त अधिकारियों में पुरोहित, सेनापति और ग्रामीण मुख्य थे। ग्रामीण ही पंचायत का प्रमुख होता था। वह सैनिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने में मुख्य भूमिका का निर्वहन करता था। पंचायती राज व्यवस्था को स्थानीय स्वशासन भी बोला जाता है। इसे गांव की ''छोटी सरकार'' भी कहते हैं। भारत के हर काल खंड में किसी न किसी रूप में पंचायती राज की व्यवस्था के निशान मिलते हैं। कुंवर सिंह महाविद्यालय के प्राचार्य व राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डा. अशोक सिंह ने बताया कि हर काल खंड में अलग-अलग स्वरूप में पंचायती राज व्यवस्था के निशान मिलते हैं। कई पुस्तक व वेदों में इसका उल्लेख है।

    बौद्धकाल में पंचायती राज : इस काल में गांव की शासन व्यवस्था और सुगठित हुई। तब गांव के शासक को ग्रामयोजक कहते थे। गांव से जुड़े मामले सुलझाने का दायित्व ग्रामयोजक पर ही होता था। ग्रामयोजक चुनाव ग्राम सभा के मार्फत ही होता था। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री चाणक्य ने 'अर्थशास्त्र' में सुगठित शासन प्रणाली का उल्लेख किया है। इसमें 800 गांवों का समूह, द्रोणमुख 400 गांवों का समूह, खार्वटिक 200 गांवों का समूह होता था। यह विभाजन राजस्व, न्याय व न्याय व्यवस्था को ध्यान में रखकर किया था। इस काल में गांव का प्रमुख ग्रामिक नाम से जाना जाता था, ग्रामिक की नियुक्ति सरकार करती थी, लिहाजा उसे सरकारी मुलाजिम समझा जाता था। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी। मुख्य अधिकारी को ग्रामिक, महतर अथवा भाजक कहते थे।

    मध्य और मुगलकालीन पंचायती राज : सल्तनत काल में भी सबसे छोटी इकाई गांव ही थी। इसमें ग्राम पंचायतों का प्रशासनिक स्तर बहुद उम्दा था। गांवों का प्रबंधन लंबरदारों, पटवारियों, और चौकीदारों के जिम्मे था। मुगलकाल में भी गांव ही सबसे छोटी इकाई हुआ करती थी, तब परगना गांव में विभाजित थे। पंचायत में चार प्रमुख अधिकारी हुआ करते थे। मुकद्दम, पटवारी, चौधरी, और चौकीदार।

    ईस्ट इंडिया कंपनी का राज : स्थानीय स्वशासन की जो परंपरा भारत में चली आ रही थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद इनका बजूद धुंधला सा होने लगा। ईस्ट इंडिया के शासन काल में ही 1687 में मद्रास नगर निगम और 1726 में कोलकाता और बॉम्बे नगर निगम का गठन हुआ। 1880 में लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन पर लगी पाबंदियों को हटाने का प्रयास शुरू किया। रिपन के कार्यकाल में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय बोर्डों की स्थापना की गई।

    आजादी के बाद मिला संवैधानिक दर्जा : 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। स्थानीय स्वशासन को राज्य की सूची में रखा गया। पंचायती राज को और ताकतवर बनाने का प्रयास पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल से शुरू हुआ। भारतीय इतिहास में 24 अप्रैल 1993 को पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा मिला। 73वां संविधान संशोधन अस्तित्व में आया और पंचायती राज व्यवस्था से गांव की सरकारों को कई अधिकार प्राप्त हुए।

    अधिनियम का उद्देश्य पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था प्रदान करना है, इसमें शामिल हैं

    क) ग्राम– स्तरीय पंचायत

    ख) प्रखंड (ब्लॉक)– स्तरीय पंचायत

    ग) जिला– स्तरीय पंचायत

    73वें संशोधन अधिनियम की विशेषताएं

    • ग्राम सभा गांव के स्तर पर उन शक्तियों का उपयोग कर सकती है और वैसे काम कर सकती है जैसा कि राज्य विधान मंडल को कानून दिया जा सकता है।
    • प्रावधानों के अनुरुप ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पंचायतों का गठन प्रत्येक राज्य में किया जाएगा।
    • एक राज्य में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत का गठन बीस लाख से अधिक की आबादी वाले स्थान पर नहीं किया जा सकता।
    • पंचायत की सभी सीटों को पंचायत क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा निर्वाचित व्यक्तियों से भरा जाएगा, इसके लिए, प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की आबादी और आवंटित सीटों की संख्या के बीच का अनुपात, साध्य हो, और सभी पंचायत क्षेत्र में समान हो।
    • राज्य का विधानमंडल, कानून द्वारा, पंचायतों में ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर या जिन राज्यों में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत नहीं हैं वहां, जिला स्तर के पंचायतों में, पंचायतों के अध्यक्ष का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
    • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण
    • अनुच्छेद 243 डी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों को आरक्षित किए जाने की सुविधा देता है। प्रत्येक पंचायत में, सीटों का आरक्षण वहां की आबादी के अनुपात में होगा। अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या कुल आरक्षित सीटों के एक तिहाई से कम नहीं होगी।

    महिलाओं के लिए आरक्षण : अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई से कम सीटें आरक्षित नहीं होनी चाहिए। इसे प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरा जाएगा और महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाएगा।

    अध्यक्षों के कार्यलयों में आरक्षण : गांव या किसी भी अन्य स्तर पर पंचायचों में अध्यक्षों के कार्यालयों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण राज्य विधान मंडल में, कानून के अनुसार ही होगा।

    सदस्यों की अयोग्यता : किसी व्यक्ति को पंचायत की सदस्यता के अयोग्य करार दिया जाएगा, अगर उसे संबंधित राज्य का विधानमंडल अयोग्य कर देता है या चुनावी उद्देश्यों के लिए कुछ समय के लिए कानून अयोग्य घोषित कर देता है; और अगर उसे इस प्रकार राज्य के विधानमंडल द्वारा कानून बनाकर अयोग्य घोषित किया गया हो तो।

    पंचायत की शक्तियां, अधिकार और जिम्मेदारियां : राज्य विधानमंडलों के पास विधायी शक्तियां हैं जिनका उपयोग कर वे पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के तौर पर काम करने के लिए सक्षम बनाने हेतु उन्हें शक्तियां और अधिकार प्रदान कर सकते हैं। उन्हें आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं बनाने और उनके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।

    कर लगाने और वित्तीय संसाधनों का अधिकार : एक राज्य, कानून द्वारा, पंचायत को कर लगाने और उचित करों, शुल्कों, टोल, फीस आदि को जमा करने का अधिकार प्रदान कर सकता है। यह राज्य सरकार द्वारा एकत्र किए गए विभिन्न शुल्कों, करों आदि को पंचायत को आवंटित भी कर सकता है। राज्य की संचित निधि से पंचायतों को अनुदान सहायता दी जा सकती है।

    पंचायत वित्त आयोग : संविधान के लागू होने के एक वर्ष के भीतर ही (73वां संशोधन अधिनियम, 1992), पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा और उस पर राज्यपाल को सिफारिशें भेजने के लिए, एक वित्त आयोग का गठन किया गया था।

    भारत में शहरी स्थानीय निकाय : समकालीन समय में, जैसे की शहरीकरण हुआ है और वर्तमान में, इसका तेजी से विकास हो रहा है, शहरी शासन की आवश्यकता अनिवार्य है जो ब्रिटिश काल से धीरे– धीरे विकसित हो रहा है और स्वतंत्रता के बाद इसने आधुनिक आकार ले लिया है। 1992 के 74वें संशोधन अधिनियम के साथ, शहरी स्थानीय प्रशासन व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी गई।

    74 वें संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएं

    1. प्रत्येक राज्य में इनका गठन किया जाना चाहिए

    क) नगर पंचायत जो गांव से शहरों में परिवर्तित हो रहे हैं

    ख) छोटे शहरी क्षेत्र के लिए नगरपालिका परिषद

    ग) बड़े शहरी क्षेत्र के लिए नगरनिगम।

    2. नगरपालिका की सभी सीटों को वार्ड के रूप में जाने जाने वाले नगरपालिका प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन में चुने गए व्यक्तियों से भरा जाएगा।

    3. राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा, नगरपालिका प्रशासन में विशेष जानकारी या अनुभव वाले व्यक्तियों को; लोकसभा के सदस्यों और राज्य के विधान सभा के सदस्यों, राज्य के परिषद और विधानपरिषद के सदस्यों को नगरपालिका प्रतिनिधित्व प्रदान करता है; समितियों के अध्यक्ष

    4. वार्ड समिति का गठन

    5. प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित होंगी।

    6. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए कुल सीटों की एक तिहाई से कम सीटें आरक्षित नहीं की जाएंगी।

    7. राज्य, विधि द्वारा, नगरपालिकाओं को स्वशासन वाले संस्थानों के तौर पर काम करने में सक्षम बनने हेतु अनिवार्य शक्तियां और अधिकार दे सकता है।

    8. राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, नगरपालिकाओं को कर लगाने और ऐसे करों, शुल्कों, टोल और फीस को उचित तरीके से एकत्र करने को प्राधिकृत कर सकता है।

    9. प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर जिला नियोजन समिति का गठन किया जाएगा ताकि पंचायतों और जिलों की नजरपालिकाओं द्वारा तैयार योजनाओं को लागू किया जा सके और समग्र रूप से जिले के लिए विकास योजना का मसौदा तैयार कर सके।

    10. राज्य विधान मंडल, विधि द्वारा महानगर योजना समितियों के गठन के संबंध में प्रावधान कर सकता है।

    शहरी स्थानीय निकायों के प्रकार

    1. नगर निगम

    2. नगरपालिका

    3. अधिसूचित क्षेत्र समिति

    4. शहर क्षेत्र समिति (टाउन एरिया कमेटी)

    5. छावनी बोर्ड

    6. टाउशिप

    7. पोर्ट ट्रस्ट

    8. विशेष प्रयोजन एजेंसी