मरहूम मौलाना डा.कल्बे सादिक को पद्मभूषण, लखनऊ में पंडितजी के यहां छिपकर पढ़ने जाते थे हिंदी
उनके बेटे मौलाना कल्बे सिब्ते नूरी ने बताया कि उनकी उदारवादी छवि के चलते पूरी दुनिया में उनकी अलग पहचान थी। गणतंत्र दिवस पर पुरस्कार की घोषणा की गई थी और अब उसे लेने जा रहा हूं। मुझे फक्र है कि मैं डा.सादिक का बेटा हूंं।

लखनऊ, जागरण संवाददाता। आल इंडिया मुस्लिम पर्सलन ला बोर्ड के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ शिया धर्मगुरु मरहूम मौलाना डा. कल्बे सादिक को पद्मभूषण से सम्मानित किया जाएगा। सादगी पसंद डा.सादिक का पिछले वर्ष 24 नवंबर को 83 साल की उम्र में निधन हो गया था। उनके बेटे मौलाना कल्बे सिब्ते नूरी ने बताया कि उनकी उदारवादी छवि के चलते पूरी दुनिया में उनकी अलग पहचान थी। गणतंत्र दिवस पर पुरस्कार की घोषणा की गई थी और अब उसे लेने जा रहा हूं। मुझे फक्र है कि मैं डा.सादिक का बेटा हूंं।
उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा देने में अहम रोल अदा किया। लखनऊ में यूनिटी कालेज व एरा जैसी संस्थान खोलकर उन्होंने अपनी सोच को समाज के सामने पेश किया। 1982 में तौहीदुल मुस्लिमीन ट्रस्ट स्थापित कर यूनिटी कालेज की नींव रखी। वह बहुत मेहनती थे, लगभग 14 से 16 घंटे काम करते थे। वह ऐसे आलिम थे जिन्होंने वह रास्ता अपनाया जिसपर आमतौर पर उलमा तवज्जो नहीं देते। उनकी शुरुआती तालीम मदरसा नाज़मिया में हुई, उसके बाद सुल्तानुल मदरिस से डिग्री हासिल की। लखनऊ विश्वविद्यालय से बीए किया, फिर अलीगढ़ गए ,जहां से एमए और पीएचडी की उपाधि धारण की। उसके बाद उनकी सोच का दायरा और बढ़ गया। वह कहा करते थे कि 'मेरा जी चाहता है की ज़रदोज़ के हाथों से सुई छीन कर कलम थमा दूं और मूंगफली बेचने वाले का बच्चा भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े'। मौलाना कल्बे सादिक मुस्तकिल मिजाज, उसूल पसंद थे। मजहबी होने के साथ-साथ उनकी यह कोशिश रही कि हर हिंदुस्तानी पढ़े, तरक्की करें, चाहे वह जिस मजहब का हो। वह रमजान से पहले ईद के चांद का दिन की घोषणा कर देते थे जो कभी गलत साबित नहीं हुआ। मुस्लिम ही नहीं वह हिंदू, सिख व ईसाई समाज के मंच पर भी नजर आते थे।
छुपकर हिंदी पढ़ने जाया करते थे मौलाना
मौलाना कल्बे सिब्ते नूरी ने बताया उनके साथ में रहने वाले बताते हैं कि मौलाना कल्बे सादिक ने अपनी शुरुआती शिक्षा में अंग्रेजी तो पढ़ते ही थे, लेकिन लालबाग में एक पंडित जी के पास हिंदी पढ़ने जाया करते थे। उस ज़माने में उर्दू का ज्यादा चलन था। उस वक्त किसी ने उनको टोका भी कि हिंदी की क्या जरूरत है, क्यों पढ़ने जाते हो? तब वह बुजुर्गों से छुपकर हिंदी पढ़ने जाया करते थे। उन्हें ज़ाकिरे फातेह- ए- फुरात का लब्ज मिला था। वह बड़ी सरलता से बगैर चीखे अपनी बात कहते की बात दिल में उतर जाए। वह आम लोगाें के साथ ही हम लोगों से भी कोई ऐसी बात नही कहते थे कि दिल को ठेस पहुंचे।
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