संवादीः कविता से न निजाम बदलता है, न प्रेमिका मानती है..’
‘मेरी कविता से न निजाम बदलता है, न प्रेमिका मानती है न ही बादल आते हैं..’, युवा गीतकार राजशेखर ने संगीत नाटक अकादमी में ऐसा समां बदला कि कलाप्रेमी तालियों से ताल मिलाने लगे।
लखनऊ [अमित मिश्र] । ‘मेरी कविता से न निजाम बदलता है, न प्रेमिका मानती है न ही बादल आते हैं..’, यह कहने वाले युवा गीतकार राजशेखर ने संगीत नाटक अकादमी में ऐसा समां बदला कि ऑडीटोरियम में बैठे कलाप्रेमी खुद संगतकर्ता बन कर तालियों से ताल मिलाने लगे। राजशेखर के साथ गिटार पर साथ दे रहे उड़ीसा के स्वरूप भी ऐसे मस्त हुए कि गिटार तिरछा कर उसी पर ढोलक बजाने लगे। यह अद्भुत माहौल था।
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डिजिटल युग के बीच, लेकिन उससे कहीं दूर दिल को छू जाने वाली कविताएं, उनसे जुड़ते सरोकार और एक होती भावनाओं ने वहां मौजूद लोगों को शब्द सौंदर्य और अदायगी की स्वर लहरियों के साथ अलग संसार में पहुंचा दिया। कुछ बचपन की पुरानी यादें और कुछ भूली-बिसरी पुरानी धुनें। थोड़ा फिल्मी अवशिष्ट तो कहीं इतिहास तलाशने की कोशिश के बीच राजशेखर ने कला प्रेमियों को मजनूं के टीले की काव्यात्मक यात्र कराई। युवा गीतकार राजशेखर के बेलौस अंदाज, हवा में घुली गिटार की रूमानी धुन और कविताओं ने संगीत नाटक अकादमी में समां बांध दिया।
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प्रेम, बारिश और इंकलाब के शीर्षक से पहली कविता में राजशेखर बोले- ‘..कोई इंकलाब कहां आ पाता है इन कविताओं से, फिर भी खुद को जिंदा रखने के लिए.., कम से कम जिंदा दिखने के लिए लिखता हूं कुछ कि क्या पता कि अगर जिंदा रह गया तो एक दिन प्रेम बारिश और इंकलाब सब आ जाए।’वंस इन ए ब्लू मून में उन्होंने रोमांस को कुछ ऐसे समेटा- ‘वह मुंहफट थी, साफ कहती थी तेरी कविता मेरी समझ में नहीं आती.., हंसते हुए उसके गाल पर डिंपल्स बनते थे, पूछती.. दूसरे गाल पर भी बनाऊं..? यह ऑफर सिर्फ तुम्हारे लिए है ..वंस इन ए ब्लू मून।’
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पुरखों के महत्व और उन्हें बिसराने पर राजशेखर ने पढ़ा- ‘बांस के करती और फट्टे पर सूखती है बाबा की सफेद धोती, उसके कोने उड़ते रहते हैं फर फर फर, ये हवा कौन फूंकता है.., फूंकते हैं तुम्हारे बाबा के बाबा के बाबा..।’ इसी कविता में मुंबई के वर्सोवा तट के आसपास रहने वाले संघर्षशील लोगों और समुद्र तट के पत्थरों के साथ उन्होंने आगे बात कही- ‘छोटे-छोटे बहुत से पत्थर लोगों के हाथों में हैं और सीनों में भी, उन्हीं पत्थरों के बीच हिंदूू लड़की बुरका डालकर मिलती है अपने उत्तर भारतीय प्रेमी से.., ये पत्थर हमारे प्रेम के ज्यादा समझते हैं।’ पत्थरों के बीच यूं ही खिल आने वाले फूलों को प्रतीक बनाते हुए कविता ‘क्या फूल भी साजिश और प्रेम करते हैं’, खूब सराही गई।
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राजशेखर ने पढ़ा- ‘वह ढीठ फूल क्यों खिल आते हैं हर वसंत, जबकि कोई परवाह नहीं करता उनकी, ठीक ठाक नामकरण भी नहीं उनका, सालाना बजट में उनके नस्ल और विकास पर कोई श्वेत पत्र भी जारी नहीं होता, ..ताकि उन्नत नस्ल के फूलों की तुलना की जा सके इन अवांछितों से, यह फूल कभी प्रेमपत्र में भी नहीं लपेटे जाते।’
रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता ‘गुलामी की अंतिम हद तक लड़ेंगे’ के जरिए राजशेखर ने माहौल में वीर रस घोला, जबकि ‘रास्ते के लिए’ में उन्होंने ग्रामीण संस्कृति को खूबसूरती के साथ परोसा। संघर्ष पर उनकी कविता ‘जुलुम तेरा बढ़ता ही जाए रे..’ पर लोग जहां जोश में आए, वहीं अगले गीत ने पूरे माहौल को बदल दिया। उड़ीसा के बच्चों के बालगीत ‘माटी के कुइंया मुइया, जंगल के हइया हुइया.।’ पर राजशेखर के साथ लोग झूम उठे।