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    यूपी में नामकरण की सियासत: 2027 चुनाव से पहले दलों में होड़, लंबे समय से चल रहा नाम बदलने का सिलसिला

    Updated: Sat, 11 Oct 2025 05:30 AM (IST)

    लखनऊ से, राज्य में सत्ता के संघर्ष के लिए चुनावी रणनीतियों के बीच, नामकरण की भावनात्मक राजनीति शुरू हो गई है। बसपा संस्थापक कांशीराम के नाम पर सपा और कांग्रेस के मैदान में उतरने पर मायावती ने नामों के बदलाव का आरोप लगाया है। प्रतीकों की यह राजनीति आने वाले दिनों में और तेज होगी, क्योंकि राजनीतिक दल समाजों का समर्थन पाने के लिए नामों के बदलाव की होड़ में लगे हैं।

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    दिलीप शर्मा, लखनऊ। राज्य की सत्ता के संघर्ष के लिए अभी से रचे जा रहे चुनावी व्यूहों में जातीय गोलबंदी की रणनीतियों के बीच अब नामकरण की भावनात्मक राजनीति के रण की भी शुरुआत हो गई है।

    बसपा के संस्थापक कांशीराम के नाम पर वंचित वर्ग में पैठ बनाने की होड़ में जब सपा और कांग्रेस भी मैदान में उतरीं तो ‘मान्यवर’ की उत्तराधिकारी मायावती का मुखर होना तो स्वाभाविक ही था। वह मुखर हुईं और नामों की बदलाव की तोहमत से साइिकल को पीछे धकेलने का दांव चल दिया।

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    आरोप-प्रत्यारोप के साथ अब प्रतीकों की राजनीति का यह रण आने वाले दिनों में और भीषण होगा, क्योंकि राजनीतिक एजेंडा सेट करने से लेकर समाजों-वर्गों की भावुक समर्थन पाने के लिए नामों के बदलाव की होड़ में कोई पीछे नहीं, भले ही वह बसपा हो, सपा हो या फिर भाजपा।

    राजनीति में प्रतीकों की राजनीति का यह सिलसिला नया नहीं है। दो दशकों में प्रदेश में जिलों से लेकर सरकारी संस्थानों तक बहुत से नाम बदल चुके हैं और हर नाम के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक एजेंडा ही छिपा है। अब वर्ष 2027 के विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक दल इस रणनीति पर भी आगे बढ़ रहे हैं।

    विभिन्न वर्गों के महापुरुषों के नाम पर बढ़त बनाने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार वादे पर वादे कर रहे हैं। सरकार बनने पर आधा दर्जन से अधिक महापुरुषों की प्रतिमाएं गोमती रिवरफ्रंट पर लगवाने की घोषणा कर चुके हैं, इनमें ताजा नाम बसपा के संस्थापक कांशीराम का है।

    सपा के इसी एजेंडे को कमजोर करने के लिए बसपा सुप्रीमो ने अपने कार्यक्रम में खुद की सरकार में कासगंज का नाम कांशीरामनगर करने और सपा सरकार में उसे बदले जाने का वार किया। मायावती ने कई अन्य जिलों, कालेजों के उन नामों को भी सपा द्वारा बदलने की बात कही, जिनको बसपा सरकार में रखा गया था। कारण जो हो, परंतु यह बदलाव हुआ था।

    बसपा सरकार में अमेठी को छत्रपति शाहूजी महाराज नगर, हाथरस को महमायानगर, शामली को प्रबु़द्ध नगर, हापुड़ को पंचशील नगर और कानपुर देहात को रमाबाई नगर का नाम दिया गया था। लखनऊ की किंग जार्ज मेडिकल यूनवर्सिटी (केजीएमयू) का नाम भी बदलकर छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय किया गया था।

    कई और स्थानों, संस्थानों के नाम भी बदले गए। वर्ष 2012 में सपा सरकार बनने के बाद भी यही सिलसिला दोहराया गया। मुख्यमंत्री रहते अखिलेश यादव ने कासगंज, अमेठी, हाथरस, शामली, हापुड़, कानपुर देहात और केजीएमयू सहित कई नामों को दोबारा बहाल कर दिया था।

    सपा ने अपने राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से भी कई नामों में बदलाव किया। बसपा जहां खुद द्वारा नाम बदलने को वंचित के सम्मान से जोड़ती थी, वहीं सपा ने भी ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व के तर्क दिए।

    इसके बाद वर्ष 2017 में जब भाजपा सत्ता में आई तो उसके बाद नामकरण की यह राजनीति एक नई दिशा में आगे बढ़ी है। संस्कृति, आस्था और इतिहास के पुनरुद्धार के रूप में इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज, फैजाबाद का अयोध्या, मुगलसराय स्टेशन का पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन, अल्फ्रेड पार्क का चंद्रशेखर आजाद पार्क किया जा चुका है।

    हाल ही शाहजहांपुर की जलालाबाद तहसील का नाम बदलकर परशुरामपुरी किया जाना, इसका ताजा उदाहरण है। वर्तमान सरकार में अलीगढ़ को हरिगढ़, मुजफ्फरनगर को लक्ष्मीनगर और फिरोजाबाद का नाम चंद्रनगर किए जाने जैसे कई प्रस्ताव लंबित हैं। ऐसे में चुनाव नजदीक आते-आते राजनीति में ‘नामकरण’ का यह रण और तेज होना तय है।