सावन के बहाने याद आए दिन पुराने
सावन की यह बहार अपने संग ले आती है भावनाओं में सराबोर कुछ अनकही कहानियां.. ...और पढ़ें

'सखी सावन की आई बहार, मेंहदी नीकि लागे..'
'झूला धीरे से झुलाओ सुकुमारी सिया हैं..'
'कैसे खेलन जहिओ सावन में कजरिया, बदरिया घिर आई ननदिया..'
कुछ ऐसे गीतों के साथ होती है सावन की शुरुआत। इस ऋतु के आते ही महिलाओं की जुबां पर ये गीत बरबस ही आ जाते हैं। इस मौसम के जादू से कोई अछूता नहीं रह पाता। सावन की यह बहार अपने संग ले आती है भावनाओं में सराबोर कुछ अनकही कहानियां.. काले-काले मेघ देखते ही मोर जहां अपने पंख फैलाकर खुशी जताता है। वहीं, तपती धरती पर बरसती बूंदें वातावरण में सोंधी खुशबू बिखेर देती हैं। सखियां झूला झूलते हुए कजरी का आनंद लेती हैं। तो, वहीं अरबी के पत्तों के पकौड़े, दाल भरी पूड़ी, खीर, अनरसा, घेवर जैसे स्वादिष्ट पकवानों का स्वाद इस मौसम का मजा दोगुना कर कर देता है। जी हां, कुछ ऐसी ही खासियत है 'सावन' ऋतु की। जिसके आते ही पशु-पक्षी ही नहीं प्रकृति भी खुशी से झूम उठती है। कजरी लोकगीत का जिक्र आते ही पूर्वी उत्तर प्रदेश की परंपराएं और रीति-रिवाज सजीव हो उठते हैं। छम-छम बरसती बूंदों के बीच झूलों पर ऊंची-ऊंची पींगें, सखियों का हास-परिहास, सास-ननद के ताने-उलाहने, पिया से रूठना-मनाना, सब कुछ शामिल होता है इन लोक गीतों में। पति की दीर्घायु, सुख-समृद्धि के लिए रखा जाने वाला हरतालिका तीज व्रत यहीं से शुरू हुआ। हालांकि, 'सावन' तो आज भी वही है, पर इसे मनाने के तौर-तरीकों में आधुनिकता के रंग भी शामिल हो गए हैं। व्यस्त दिनचर्या के बावजूद महिलाएं इस परंपरा को जीवंत किए हैं। यही वजह है कि सावन भर महिलाएं रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं। आज (28 जुलाई) से सावन शुरू हो रहा है। इस मौके पर कुछ पुरानी और नई पीढ़ी की महिलाएं साझा कर रही हैं सावन से जुड़ी यादें.. आज भी बरकरार है उत्साह
गृहणी हेमलता बोरा कहती हैं, बचपन में सावन आते ही झूले पड़ जाया करते थे। सावन में शायद ही कोई हो जो यह कहे कि उसे झूला झूलना पसंद नहीं। मुझे तो आज भी पसंद है। जिंदगी के साठ से ज्यादा सावन देख चुकी हूं। हर बार एक नया उत्साह होता है। बचपन से ज्यादा शादी के बाद मैंने इस ऋतु का आनंद लिया है। पति सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी हैं। रुद्रपुर में मनाया सावन आज भी याद है। डीएम, एसएसपी की पत्िनयों के साथ सावन भर रोज कजरी गाते हुए इसका आनंद लेते थे। अब तो हम केवल किटी पार्टियों में सावन मनाते हैं पर उत्साह आज भी वही है। किटी मेंबर हर बार सावन की थीम पर नए-नए आयोजन करती हैं। सावन भर मायके में रहती थीं नवविवाहिता
गोंडा निवासी व कवियित्री, वाटिका कंवल कहती हैं, मेरे बचपन में दादी गुलमोहर के पेड़ पर झूला डालती थीं। हम सब सखियां सावन के गीत गाते हुए झूला झूलते थे। सावन को लेकर बहुत से गीतों की रचना हुई है। जिनमें कभी नायिका को खुश होते दिखाया गया है तो कभी विरह का गीत गाते हुए प्रेमी या पति से विछोह का वर्णन किया गया है। पहले परंपरा थी कि सावन भर नवविवाहित स्त्रियां अपने मायके में रहती थीं। अब लाइफ स्टाइल बदल चुकी है। अब तो परंपरा निभाने के लिए इसे मनाया जाता है। कवियित्री और आकाशवाणी एंकर के साथ ही एक महिला संगठन की सदस्य भी हूं। हम महिलाएं मीटिंग करके सावन सेलिब्रेट करते हैं। इस बहाने आज भी इस परंपरा को जीवित करने की ओर अग्रसर हैं। जब गिर पड़ी झूले से नीचे
योग टीचर सीमा सिंह कहती हैं, झूला देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाती थी। चाहे स्कूल हो या पार्क जहां भी झूला दिखता बस झूलने लगती थी। सावन में झूला झूलने का आनंद ही कुछ और है। मुझे आज भी सावन का वह दिन याद करके हंसी आती है। पापा रेलवे में इंजीनियर थे। उस वक्त हम सब गोंडा में रहते थे। मैं तब चौथी कक्षा में पढ़ रही थी। स्कूल से आते ही सहेलियों के साथ बाग में पड़े झूले की तरफ दौड़ पड़ती थी। उस दिन भी मैं झूले पर पींगें मारकर उसे और तेज कर रही थी। अचानक मेरा बैलेंस बिगड़ा और मैं धम्म से नीचे गिर गई। सारी सहेलियां हंसने लगीं, मैंने कपड़ों की मिट्टी झाड़ी और फिर से झूले पर चढ़ गई। आज भी किसी पार्क में झूला देखती हूं तो खुद को रोक नहीं पाती हूं। मम्मी से सीखा कजरी गायन
शास्त्रीय व लोकगीत गायिका, सीमा वर्मा कहती हैं, पापा आइटीआइ में प्रिंसिपल थे और मम्मी सिंगर हैं। तीन साल की थी तब से सावन आने का बेसब्री से इंतजार करती थी। घर के आंगन में लगे लोहे के जाल में पापा झूला डाल देते थे। स्कूल से आते ही मैं और मेरा भाई झूले की ओर दौड़ पड़ते थे। मैं झूला झूलती, भाई झूला झुलाता और मां सावन के गीत गाती थीं। स्कूल में दिए गए पाठ भी मैं झूले पर ही याद करती थी और झूला झूलते हुए मम्मी को सुनाती भी रहती थी। जब मैं झूले का आनंद लेती तो मम्मी कजरी गाने लगती थीं। उनके साथ मैं भी गुनगुनाती थी। सावन के बहाने मां से कजरी सीखने का मौका भी मिला। आकाशवाणी-दूरदर्शन में कजरी गाती हूं। इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए गरीब बच्चों को संगीत की निश्शुल्क शिक्षा देती हूं। पहाड़ों में मनाते हैं हरेला पर्व
टीचर, पूनम कनवाल कहती हैं, श्रावण मास शुरू होने से दस दिन पहले उत्तराखंड में हरेला पर्व मनाया जाता है। उसी दिन से हमारा सावन शुरू होता है। हरेला में पांच या सात प्रकार का अनाज मिट्टी के बर्तन में बोकर पहाड़ों के ईष्ट देवता के सामने रखते हैं। दसवें दिन हम उसे काटते हैं। इस दिन पूड़ी, खीर, बड़ा और हलवा बनाया जाता है। बेटियों को घर बुलाकर तिलक करने के बाद दक्षिणा देने की परंपरा है। वह कहती हैं, मुझे याद है पापा मेरे लिए आम के पेड़ पर झूला डालते थे। एक बार बचपन में झूला झूलते समय वह मेरे सिर में लग गया था। कुछ दिन तक झूले से डरती रही। मगर दोस्तों को झूला झूलते देख खुद को रोक भी नहीं पाती थी। समय के साथ मेरा डर भी खत्म हो गया। अब तो नया दौर है। लोग व्यस्त हैं पर हरेला पर्व उसी उत्साह से मनाते हैं। शक्ति और प्रेरणा मिलती है
स्टूडेंट शिवानी दुबे कहती हैं, सावन की एक अलग ही खास जगह है मेरे जीवन में जो खुशियों और हरीयाली से परिपूर्ण है। सावन मुझे इसलिए भी पसंद है क्योंकि यह मौसम अपने साथ न केवल हरियाली बल्कि सकारात्मकता भी लेकर आता है। मैं पूरे सावन भर हर सोमवार को भोलेनाथ की सेवा करती हूं। इससे मुझे एक अलग प्रकार की शक्ति और प्रेरणा मिलती है। मैं हर सुबह मंदिर जाकर बेलपत्र और 11 बार जल चढ़ाती हूं। सावन में मुझे हाथों में मेंहदी लगाना और झूला झूलना बहुत अच्छा लगता है। सावन को बहुत खूबसूरत तरीके से मनाती हूं। झूलों के पेंग संग कजरी की लय
लोकगायिका, उर्मिला शुक्ला कहती हैं, मैं अपनी जिंदगी के पचहत्तर सावन देख चुकी हूं परंतु जो उल्लास बचपन से लेकर युवावस्था तक देखा वह मन में किसी चलचित्र की भांति समाया हुआ है। जब गांव में शाम होते ही घरों की रौनक बढ़ने लगती। महिलाएं और बच्चे बागों का रुख कर लेते, जहां ऊंची-ऊंची डालों पर पड़े झूले उनका इंतजार कर रहे होते। फिर शुरू होता कजरी का दौर। ज्यों-ज्यों झूलों की पेंग बढ़ती, कजरी की लय और जोर पकड़ने लगती। शादी के बाद 1973 में जब यहां आकाशवाणी केंद्र खुला तो इन्हीं मनोभावों को सुर से सजाया। लोगों की तालियां मिलीं और धीरे-धीरे कजरी मेरी पहचान बन गई। अब शरीर शिथिल हो गया है पर सावन में गुनगुनाने का मोह आज भी नहीं छोड़ पाती। हरियाली है तो सावन है
प्रकृति प्रेमी शालिनी सिंह कहती हैं, सावन हम सबकी जिंदगी में एक तब्दीली लेकर आता है। हरी-भरी प्रकृति को देखकर मन को सुकून मिलता है। यही हरियाली पूरे साल मिले तो क्या कहना? इसीलिए मैंने अपने घर के लॉन में एक छोटा सा बगीचा बनाया है। जिसमें गुड़हल, बेला, चमेली, क्रिसमस-ट्री, गुलाब के फूल लगा रखे हैं। मौसम के अनुसार सब्जियां भी उगाती हूं। अपने हाथ से तोड़कर जब सब्जियां बनाती हूं तो उसका स्वाद ही अलग होता है। अपने लगाए पौधों को बढ़ता देख बहुत खुशी मिलती है। हरियाली के लिए सभी कोमिलकर प्रयास करना होगा। हरियाली है तो सावन है। बिन सजना नहीं भावे महीना सावन का
साहित्यकार, डॉ. सीमा शेखर कहती हैं, छमछम करतीं पत्तों पर पड़ती बूदें मानों किसी धुन का सृजन कर रही हों। मेरा कवि मन मचल उठता है, कलम चल पड़ती है कागज के कोरे पन्नों पर। वर्षा एक ऐसी ऋतु है जब संयोग व वियोग प्रियतमा का दोनों रूप निखर कर सामने आता है। प्रिय को दूर जाता देख सजनी बोल पड़ती है बिन सजना नहीं भावे महीना सावन का। फिल्मकारों, गीतकारों को भी प्रेम व विरह के लिए सावन से उपयुक्त कोई ऋतु नहीं लगती। इसीलिए सावन से जुड़े गीतों की बहार बॉलीवुड में आज भी बरकरार है। सखियों से मिलने का इंतजार
गोरखपुर में दुर्गाबाड़ी निवासी नवविवाहिता स्वीटी गुप्ता, कहती हैं, मेरी शादी को दो महीने हुए हैं। देवर-ननद सभी चिढ़ाते रहते हैं, भाभी सावन में अपनी सखियों से मिलने मायके नहीं जाओगी? सच कहूं तो मुझे भी सबसे मिलने का बड़ी बेसब्री से इंतजार है। नई-नवेली दुल्हनों के लिए सावन इसलिए भी स्पेशल है क्योंकि इस बहाने सखियों से मिलने का मौका मिलता है। इसी से तीज- त्योहारों की शुरुआत होती है। पहले तीज का काफी क्रेज होता है जिसके लिए अभी से तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। देखते हैं इस अवसर पर पति से क्या खास उपहार मिलता है? याद आते हैं वो बीते हुए दिन
'पिप्पल पत्तिया झाक-झाक थक्किया
पिंघा नइयो पादिया,
डान नहीं हिलाउदिया,
पता नी केहड़े कमों
रुझ गइया सखिया।'
इन पंक्तियों के साथ पुराने दिनों को कुछ इस तरह याद करते हुए 'लहौरिए', 'दाना पानी' आदि पंजाबी फिल्मों में मा का किरदार निभाने वाली जालंधर की बलविंदर कौर बेगोवाल कहती हैं, मेरे गाव बेगोवाल में घर के पास एक पेड़ है। जिसके नीचे मैंने ये पंक्तिया लिखीं हैं। उन दिनों को याद करके जब 'सखिया पींघे डालकर सावन में इकट्ठा होती थीं। आज न जाने किन कामों में सब इतनी व्यस्त हो गई हैं कि पीपल की पत्तिया भी झाक-झाक कर उनकी राह देखकर थक गई हैं।' वह कहती हैं कि सावन का इंतजार हम सहेलियों को जरूर रहता था। पहले ही तय कर लेते थे कि सप्ताह में दो-तीन दिन तो धमाल करना ही है। उन दिनों गाव के एक खुले मैदान में जिसे शामलाट कहा जाता था, सभी सहेलिया एकत्र होती थीं। यहा लोक बोलियों पर खूब गिद्दा (पंजाबी लोक नृत्य) डालते और मौज-मस्ती होती। सभी अपनी जेबों या छोटी थैलियों में भुने चने, मिश्री, मक्की के भुने दाने लाती थीं। नाच-गाने के बाद सब मिलकर खाते और शाम को घर लौटते। रात को भी अलग रौनक रहती थी गाव में। लड़किया पैसे जमा करके मोटा रस्सा खरीदतीं और अपने अपने मोहल्ले में किसी बड़े पेड़ पर पींघ (झूला) डालती। शादी के बाद ससुराल से सावन में घर लौटी सखियों के साथ देर शाम तक नाच-गाकर खूब धमाल मचातीं। मेरे घर के पास चौराहे पर ही एक पेड़ पर हम पींघ डाला करते थे। सभी लड़किया वहा आ जातीं और रात तक खूब रौनक लगती थी। अब तो लोग व्यस्त हैं फिर भी हम अपनी कालोनी में सावन के दौरान एक फंक्शन जरूर करते हैं। ढोली को बुलाकर खूब नाच-गाना होता है। महिलाएं ही नहीं पुरुष भी इसमें शामिल होते हैं। पर वो पुरानी बात नहीं बनती। यह एक सोशल गैदरिंग सी ही रहती है। भले ही पारंपरिक परिधानों में लेडीज पहुंचती हैं, डीजे की बीट्स और ढोल पर नाच-गाना भी होता है लेकिन आधुनिक माहौल में गाव की वह सादगी, वह खुशबू आज भी मिस करती हूं। पॉजिटिव एनर्जी देता है सावन
मनोवैज्ञानिक, डॉ. नेहाश्री श्रीवास्तव कहती हैं, ह्यूमन साइकॉलजी के अनुसार तीज-त्योहारों का इंतजार कहीं न कहीं हर किसी को रहता है। वहीं सावन के महीने की बात ही अलग है। यह अपने साथ पूरा एक कॉम्बो पैकेज लेकर आता है। इस पूरे महीने को हर कोई सेलिब्रेट करता है, खासतौर से महिलाएं इसे खूब एन्ज्वॉय करती हैं। यहां तक कि वर्किंग लेडीज भी हरे रंग की ड्रेस पहनती हैं और मेंहदी लगाकर सेलिब्रेट करती हैं। जो व्रत नहीं रखते वे भी इस महीने व्रत रखते हैं, नॉन वेजिटेरियन नॉनवेज खाना बंद कर देते हैं। दूसरे त्योहार तो एक-दो दिन में ही विदा हो जाते हैं पर सावन पूरे एक महीने तक सेलिब्रेट होता है। चारों ओर फैली हरियाली लोगों को एक अलग तरह की पॉजिटिव एनर्जी देती है। मन को खुशी मिलती है।

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