अटल जयंती: परिस्थितियों से लड़ें, एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़ें
पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर दैनिक जागरण आपको उनके द्वारा लिखित कविताओं से रूबरू करा रहा है।
लखनऊ, [अजय शुक्ला]। लखनऊ के सांसद और भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी में राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान के प्रति जो सजगता थी, उससे कहीं अधिक इस बात की टीस कि वे अपने पत्रकार, शिक्षक और कवि रूप को वह धार नहीं दे सके जो अपेक्षित थी। स्वयं उनके लिए और उनके लिए भी जो उनके इन रूपों में वृहद संभावना देखते थे।
अटल जी की जो सबसे अहम बात थी, वह यह कि उन्होंने जितना कविता के रूप में पद्य लिखा उतना ही उनके गद्य से कविता झांकती दिखती है। जिन्हें उनके भाषण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, चाहे वह जनसमूह के समक्ष हो, संसद में या किसी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य या अध्यक्ष के रूप में हो, वह उसमें कविता महसूस करते थे।
‘हम अपने देश की सेवा के कार्य में जुटे रहेंगे। हम संख्या बल के सामने सिर झुकाते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि जो कार्य हमने अपने हाथ में लिया है, वह राष्ट्रीय उद्देश्य जब तक पूरा नहीं कर लेंगे, तब तक आराम से नहीं बैठेंगे, विश्रम नहीं लेंगे। .. अध्यक्ष महोदय, मैं अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूं।’
संख्या बल में महज एक सांसद की कमी पर जोड़तोड़ का सहारा लेने के बजाय पलायन के साथ ही विजय रथ पर सवार होकर वापसी की ऐसी आत्मविश्वासी उद्घोषणा संसद में सिर्फ अटल जी ही कर सकते थे। अटल जी के गीतों और छंदमुक्त कविताओं में भी यही भाव प्रबलता से उभरता है, जब वे गाते हैं- हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा/ काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं/ गीत नया गाता हूं, या फिर जब वह यह सांत्वना देते हैं-आदमी को चाहिए कि वह जूङो/ परिस्थितियों से लड़े/ एक स्वप्न टूटे/ तो दूसरा गढ़े।
आपातकाल के समय जेल में रहकर ‘कैदी कविराय’ उपनाम से उन्होंने जो काव्य पंक्तियां रचीं उनमें उनका जुझारूपन प्रबलतम रूप में उभरता है। वह निराशा के गहन अंधकार में डूबकर भी जुगनू की तरह टिमटिमाते और आशा की सुनहरी किरण लेकर सतह पर उतराते दिखते हैं- दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते/ टूट सकते हैं, मगर हम झुक नहीं सकते।
अटल जी जितने जुझारू योद्धा राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में दिखते हैं, काव्य संसार में भी उनका वही व्यक्तित्व झलकता है। फिर भी ऐसा नहीं कि अटल जी के व्यक्तित्व में सिर्फ यह योद्धा भाव ही दिखता हो। उन्होंने कुंडलियों और मिताक्षरी छंदों में हास्य विनोद के तीर और व्यंग्यवाणों के संधान भी खूब किये हैं। अनेक उदाहरण हैं। एक देखिए-मनाली मत जइयो, गोरी राजा के राज में/ जइयो तो जइयो, उड़िके मत जइयो, अधर में लटकीहौ, वायुदूत के जहाज में/ जइयो तो जइयो, संदेसा न पइयो, टेलिफोन बिगड़े हैं, मिर्धा महाराज में/ जइयो तो जइयो, मशाल ले के जइयो, बिजुरी भइ बैरिन, अंधेरिया रात में/ जइयो तो जइयो, त्रिशूल बांध जइयो, मिलेंगे ख़ालिस्तानी, राजीव के राज में।
कविता में वह कहीं-कहीं दार्शनिक भाव ओढ़ लेते हैं, जो सहज ही है। अटल जी देश-दुनिया में इतना घूमे थे कि उनके पास शब्द और संवेदना का समुद्र था तो उससे सार के मोती चुनने की दृष्टि भी। तभी वह कहते हैं-इससे फर्क नहीं पड़ता/ कि आदमी कहां खड़ा है/ पथ पर या रथ पर / तीर पर या प्राचीर पर / फर्क इससे पड़ता है कि/ जहां खड़ा है/ या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है/ उसका धरातल क्या है?
वह प्रश्न करने के साथ जवाब भी देते हैं- होना न होना एक ही सत्य के/ दो आयाम हैं, शेष सब समझ का फेर है/ बुद्धि के व्यायाम हैं। या फिर - जो जितना ऊंचा/ उतना ही एकाकी होता है, हर भार स्वयं ही ढोता है।
दरअसल, अटल जी जैसे महामानव थे वैसे ही राजनीतिक कार्यकर्ता, कवि, पत्रकार और शिक्षक भी थे। व्यक्तिगत जीवन में उनके कर्म और धर्म में कहीं भी दोहरापन नहीं दिखता, इसलिए उनकी कविताओं में भी कहीं भावों का टकराव या विरोधाभास नहीं नजर आता। वस्तुत: उन्होंने अपना पूरा जीवन ही कविता की तरह जिया।
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