Lucknow Jagran Samvadi 2025: प्रशासनिक अनुभव रचनात्मकता का ईंधन, अफसराें ने अनुभव की स्याही से रचा साहित्य
Lucknow Jagran Samvadi 2025: दैनिक जागरण संवादी के मंच पर दूसरे दिन अफसरों की रचनात्मक कलम सत्र में पहुंचे आईएएस, आईपीएस और आईआरईएस अफसरों ने अपनी साहित्य साधना का मंत्र साझा किया और बताया कि आखिर किस तरह वह अपने मूल दायित्वों और साहित्य सृजन के बीच सामंजस्य बैठाते हैं।

सत्र अफसरों की रचनात्मक कलम में में चर्चा करते (बाएं से) प्रमुख सचिव कौशल विकास डा. हरिओम, अपर मुख्य सचिव शिक्षा पार्थसारथी सेन शर्मा, रेलवे अधिकारी कवि मुकुल कुमार, लेखक के सत्य नारायण व मंच संचालक ज्ञानेंद्र शुक्ल
रवि प्रकाश तिवारी, जागरण, लखनऊ : फाइलों पर कलम चलाने वाले अधिकारियों की पेन जब अनुभव की स्याही से साहित्य उकेरती है तो उससे सृजित बिंब से लोग स्वत:जुड़ते चले जाते हैं। यह अनुभव रचनात्मकता की प्रयोगशाला में उत्प्रेरक का काम करता है। उनका रचना संसार विशेष और विराट होने लगता है। समाज का यथार्थ चित्रण करने में साहित्य तभी समर्थ होगा जब रचनाकार लोगों के बीच जाएगा और यह अवसर अफसरों को खूब मिलता है।
दैनिक जागरण संवादी के मंच पर दूसरे दिन अफसरों की रचनात्मक कलम सत्र में पहुंचे आइएएस, आइपीएस और आरइआरएस अफसरों ने अपनी साहित्य साधना का मंत्र साझा किया और बताया कि आखिर किस तरह वह अपने मूल दायित्वों और साहित्य सृजन के बीच सामंजस्य बैठाते हैं। सत्र संचालक पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ल ने उप्र के अपर मुख्य सचिव स्वास्थ्य व लेखक पार्थसारथी सेन शर्मा, प्रमुख सचिव व्यावसायिक शिक्षा व गजलकार डॉ. हरिओम, एडीजी भ्रष्टाचार निवारण संगठन व लेखक के. सत्यनारायण तथा रेलवे बोर्ड के कार्यकारी निदेशक सेफ्टी व कवि मुकुल कुमार से उनकी कृतियों, समन्वय कला पर बात की।
लेखक के. सत्यनारायण का मानना है कि सिद्धांत लेकर लिखने वाले बहुत सफल नहीं होते, वे दायरे में बंध जाते हैं जबकि स्वत:स्फूर्त लेखन सफलता की ओर ले जाता है। वे कहते हैं, मैं लिखने के लिए नहीं बैठता बल्कि कोई विषय मजबूर करता है तो लिखता हूं। भाव के हिसाब से लेखनी की भाषा तय करता हूं। मूलरूप से आंध्र प्रदेश के रहने वाले सत्यनारायण कहते हैं,आइपीएस बनने के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश आया तो हिंदी से हाथ मिला। तेलुगू में रचनाएं तो पहले से करता था, लेकिन हिंदी की शब्दावली चुनौती थी लेकिन आगरा, सोनभद्र, चित्रकूट, बांदा में तैनाती के दौरान आमजन से संवाद से इससे करीब आए और उनकी समस्याओं के समाधान की खातिर भाषा को और जाना।
यही वजह है कि काम के अनुभव के बीच अपने दुश्मन को पहचानो, थैंक्यू सेलफोन जैसी किताबें भी गढ़ती चली गईं। स्वयं को डा. केदारनाथ सिंह से प्रभावित बताने वाले के. सत्यनारायण ने उनकी साै कविताओं का चयन कर उनका अनुवाद तेलुगू में किया। उन्होंने हिंदी में इन पर एक कविता भी लिखी है। उन्होंने सभागार में मौजूद लोगों को बताया कि मंदिरों के लिए पहचाने जाने वाले बनारस पर उन्होंने बनारस बियान्ड द बैज नाम से किताब लिखी है, जिसमें बनारस तो पूरा है लेकिन बगैर मंदिर का जिक्र किए।
कवि मुकुल कुमार ने अपनी साहित्य यात्रा के बारे में बताया कि नींव तो बचपन से ही पड़ गई थी। वे मानते हैं कि साहित्यकार प्रकृति प्रदत्त होता है। शुरुआत अंग्रेजी से की फिर स्वयं ही अनुवाद हिंदी में किया। हिंदी में आई किताब आरोही ने दायरा बढ़ाया तो हिंदी के प्रति प्रेम उभरा। वे कहते हैं, नौकरशाह का दायरा सीमित रहता है, लेकिन नौकरशाही का अनुभव आत्मविश्वास देता है और लोगों से जुड़ने का अवसर। यहीं से अनुभव मिलता है और हमारा दायरा और बड़ा होता चला जाता है। रचनात्मकता की आग में अनुभव का ईंधन को झोंकते हैं तो लोकप्रिय साहित्य का सृजन होता है। संचालक ज्ञानेंद्र शुल्क ने इन रचानाकारों के व्यक्तित्व को कुछ ऐसे परिभाषित किया... ...मगर घने अंधेर में जो रौंद शूल बढ़ चला समस्त विश्व के लिए नई मिसाल गढ़ गया, बड़े प्रवाह के विरुद्ध जो हाथ-पांव मारता उसी महाविभूति को जहान है दुलारता।
अनुवाद बड़ी कला, अनुवादक का काम बहुत बड़ा : पार्थसारथी
एक सख्त अधिकारी की पहचान वाले पार्थसारथी साहित्य के सरोवर में रोमांस की बातें कैसे कर लेते हैं और दोनों में सही व्यक्तित्व कौन-सा है, जैसे सवालों पर कहते हैं- एक इंसान में कई इंसान होते हैं। मेरे हर किरदार में एक अलग किरदार है और दोनों ही वास्तविक हैं। हम दोनों को समान जीते हैं, ईमानदारी के साथ। पार्थसारथी अनुवाद को एक कला मानते हैं। अनुवादक का काम बहुत बड़ा होता है। वे कहते हैं, आपकी कहानी का फ्लो बना रहे और मूल आत्मा बनी रहे यह अनुवादक सुनिश्चित करता है। इस मामले में मैं धनी हूं कि मुझे अच्छे अनुवादक मिले। शायद मैं अपनी ही किताब अण्डमानुष का अनुवाद वैसा नहीं कर सकता जैसा निलेश द्विवेदी ने किया है। हम टालस्टाय जैसे लेखकों का अनुवाद ही तो पढ़ते हैं। उन्होंने रूसी भाषा में क्या लिखा, हमें क्या पता? ऐसे कई और बड़े नाम हैं जिन्हें अनुवादकों ने सार्वभौमिक बनाया। एक अफसर के तौर पर हमें लिखने के विस्तृत अवसर तो मिलते हैं, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपने बहुत से अनुभव लिख नहीं सकते। लेकिन हां, अफसर होना, लोगों के बीच में रहना, मुद्दों की जानकारी हमें आत्मविश्वास देता है। माहौल को हल्का करते हुए उन्होंने कहा कि कई बार तो हमें यह पता नहीं चलता कि सामने से जो प्रशंसा आ रही है वह वाकई साहित्य साधना की है या अफसरी की।
आसान नहीं है रचना कर्म: डॉ. हरिओम
सभागार में बैठे श्रोताओं से मुखातिब गजलकार हरिओम ने कहा, लिखना आसान नहीं। अच्छा लिखने के लिए खूब पढ़ना होता है। मैं आज भी पढ़ता हूं। वे कहते हैं, जो विचार मन में आता है उसे लिखें। साहित्य के संबंध में हरिओम का मानना है कि इंसानी जिंदगी को बेहतर बनाना साहित्य का उद्देश्य है इसलिए साहित्य जीवन संघर्ष का हिस्सा है। बेचैनी रचनात्मक आत्मा की पूंजी है और संवेदनशीलता इसका आधार। एकाकी में रहकर गुणवत्तापूर्ण साहित्य नहीं गढ़ा जा सकता। समाज का चित्र साहित्य तभी दे पाएगा जब हम लोगों के बीच में जाएंगे। साहित्य पर्सनल से यूनिवर्सल की यात्रा कराता है। आप अधिकारी के तौर पर ज्यादा न्याय कर पाते हैं अथवा साहित्यकार के तौर पर? एक श्रोता के सवाल पर हरिओम बोले- साहित्यकार हमें अफसर समझते हैं, इसलिए वे साहित्यकार नहीं मानते और अधिकारी समझते हैं कि हम लिखने-पढ़ने में उलझे रहते हैं इसलिए हल्के में लेते हैं और अधिकारी नहीं समझते, जबकि सच्चाई यही है कि हम दोनों काम बड़ी ही ईमानदारी और मनोयोग से करते हैं। संबोधन के बीच गजलकार हरिओम ने "मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूं, सिकंदर हूं मगर हारा हुआ हूं..." सुनाया तो लखनऊ विश्वविद्यालय का मालवीय सभागर करतल ध्वनि से गूंज उठा।

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