Lucknow Jagran Samvadi 2025: संघर्ष के पथरीले रास्तों से तय किया ''एवरेस्ट'' तक पहुंचने का सफर
Jagran Samvadi 2025: किशोरावस्था में जैसे बाकी को हवा लगती है, मुझे भी लगी। छोटे-छोटे शौक पूरे करने के लिए पापा और दादा के पॉकेट से पैसे भी चुराए। इस दौरान दोस्तों के साथ वाटर पार्क में चिपके कपड़े पहनकर घूमने पर गांव के एक व्यक्ति की नजर पड़ी और उन्होंने परिवार में खबर कर दी। दादा और भाई पीटते हुए शहर से गांव वापस ले गए।

मेघा परमार संवादी में ''एवरेस्ट गाथा'' विषय पर अपने संघर्ष की कहानी साझा की
विकास मिश्र, लखनऊ: यह कहानी सिर्फ सपनों की नहीं है, बल्कि उन्हें पूरा करने वाले उन संकल्पों की भी है, जो संघर्ष के पथरीले रास्तों से होकर दुनिया की सबसे ऊंची चोटी तक का सफर तय करते हैं। मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव से निकलकर माउंट एवरेस्ट की चोटी पर तिरंगा फहराने वाली मेघा परमार की संघर्ष-कथा कोई फिल्मी कहानी नहीं, है तो कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प का वह पाठ, जिसकी गूंज अब देश के कोने-कोने तक है।
शून्य से शीर्ष तक पहुंचने वाली मेघा परमार मप्र की पहली महिला एवरेस्ट विजेता हैं। मेघा का साहस आसमान जितना ऊंचा है। वे संकल्प के लिए संघर्ष करना और गिरकर उठना जानती हैं। शुक्रवार को मेघा परमार ने अभिव्यक्ति के उत्सव संवादी में ''एवरेस्ट गाथा'' विषय पर अपने संघर्ष की कहानी साझा की तो खचाखच भरे लखनऊ विश्वविद्यालय के मालवीय सभागार का हाल कभी तालियाें की गड़गड़ाहट से गूंजा तो कभी श्रोताओं की खामोशी में डूबा नजर आया।
मेरे व्यक्तित्व में एक चीज है, मैं बहुत जिद्दी हूं
एवरेस्ट की चोटी फतेह करने से महज 700 मीटर से चूकने के बाद मेघा जब गांव पहुंचीं तो माता-पिता का सामना करना कठिन था... उस पल को याद कर उनकी आंखें भर आईं। मेघा के सामान्य होने तक लोग तालियों से साहस देते रहे। करीब 60 मिनट के संबोधन में मेघा परमार ने अपने पैतृक गांव सिहोर (मध्य प्रदेश) जिले के भोजपुर से लेकर एवरेस्ट फतेह तक की संघर्ष गाथा सुनाई। उन्होंने बताया कि शिखर तक पहुंचने के लिए कितने सामाजिक, आर्थिक, मानसिक झंझावातों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। युवाओं से कहा कि जीवन के संघर्ष में सबके अलग-अलग पहाड़ होते हैं, मैंने बर्फ वाला पहाड़ चढ़ा। दरअसल, मेरे व्यक्तित्व में एक चीज है, मैं बहुत जिद्दी हूं। इसके अलावा मुझमें कुछ भी नहीं है।
समाज में लिंग भेद की जड़ें गहरी
मेघा ने जीवन में आईं मुश्किलों और चुनौतियों को विस्तार से बताया। समाज में लिंग भेद की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका भी जिक्र किया। मेघा कहती हैं, परिवार में पांच बुआ और छह बहनें हैं। दादा ने कहा कि घर में छोरियां ही छोरियां हो गईं। लड़कों को कान्वेंट तो लड़कियों को सरकारी स्कूल में पढ़ाया गया। दो वर्ष की उम्र में सगाई हो गई। ऐसे कठिन माहौल के बीच 12वीं तक पढ़ाई पूरी की। भाइयों का दाखिला शहर के स्कूल में हो गया तो उनके लिए खाना बनाने की जिम्मेदारी की वजह से मुझे भी कालेज में पढ़ने का मौका मिला।
उन्हाेंने कहा कि किशोरावस्था में जैसे बाकी को हवा लगती है, मुझे भी लगी। छोटे-छोटे शौक पूरे करने के लिए पापा और दादा के पॉकेट से पैसे भी चुराए। इस दौरान दोस्तों के साथ वाटर पार्क में चिपके कपड़े पहनकर घूमने पर गांव के एक व्यक्ति की नजर पड़ी और उन्होंने परिवार में खबर कर दी। दादा और भाई पीटते हुए शहर से गांव वापस ले गए। ताई-चाची सभी ने इतना पीटा की मुंह और माथे पर चोट के निशान पड़ गए, लेकिन यहां भी पापा ने मुझपर भरोसा किया और भाइयों के साथ फिर से पढ़ने शहर भेजा। पापा ने एक बात कही थी कि तुझे जो समझ आए वो करना। इस बात ने मेरी सोच और जिंदगी बदल दी।
माता-पिता को गौरान्वित करने का लिया संकल्प
मेघा कहती हैं, शहर से गांव लौटने की इस घटना के बाद मैंने अपना सिम तोड़कर फेंक दिया और फर्जी फेसबुक अकाउंट भी बंद कर दिया। संकल्प लिया कि अब ऐसा कुछ करूंगी, जिससे माता-पिता को गर्व महसूस हो। इस दौरान सरकारी नौकरी तो मिली, लेकिन कुछ महीनों में ही छोड़ दिया। एक दिन कहीं पढ़ा कि मध्य प्रदेश के दो लड़कों ने एवरेस्ट फतेह कर लिया, लेकिन अभी कोई महिला यह कामयाबी नहीं हासिल कर पाई है। इसके बाद ठान लिया कि मुझे भी एवरेस्ट चोटी पर तिरंगा फहराना है। इस सपने के लिए कदम-दर-कदम मुश्किलें भी आईं, लेकिन लक्ष्य तक पहुंचने का प्रण ले चुकी थी। इसलिए कठिन रास्ते भी मेरे इरादे डिगा नहीं सके और आगे बढ़ती गई। मिशन एवरेस्ट की तैयारी के लिए एनसीसी में प्रवेश लिया।
जब सबसे मुश्किल यात्रा के लिए बढ़ाए कदम
मेघा ने बताया कि एवरेस्ट के सफर के साथ ही अपने जीवन की सबसे मुश्किल यात्रा के लिए कदम बढ़ाए। माइनस 40 डिग्री तापमान और 180 किलो मीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से हवा के बीच आगे बढ़ती गई। हर कदम चढ़ाई के साथ ऊंचाई तो बढ़ती, पर मुश्किलें भी। सांसें रुकने लगीं, शरीर की त्वचा काली पड़ने लगी और चेहरा पीला हो रहा था। ''एवरेस्ट गर्ल'' बताती हैं कि शेरपा की सलाह पर वापस लौटना पड़ा। जब काठमांडू पहुंची तो पता चला कि 700 मीटर की दूरी तय करनी ही बची थी। इसके बाद मुझे और परिवार को खूब ताने व उलाहने सुनने को मिले। सभी निराशा में डूब गए, लेकिन मैं हार नहीं मानी एक बार फिर पूरे मन से तैयारी में जुटी। इसी ट्रेनिंग के दौरान करीब 20 फीट ऊंचाई से गिरने से रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट लगी। चोट इतनी गंभीर थी कि नौ माह तक बेड पर रहना पड़ा, पर लक्ष्य नहीं बदला।
लौटते समय खत्म हो गई ऑक्सीजन
मेघा ने बताया कि वर्ष 2019 में मध्य प्रदेश सरकार ने मुझ पर पर दोबारा भरोसा जताया। आखिरकार, 2019 में ही 22 मई को वह दिन आ गया, जिसके लिए हमने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। मेघा कहती हैं, मैंने एवरेस्ट चोटी पर तिरंगा फहरा दिया, लेकिन लौटते समय ऑक्सीजन खत्म हो गई। एक बार तो लगा कि जान नहीं बचेगी। इसी बीच एक साथी लौट रहे थे और उन्होंने किसी का बचा हुआ आक्सीजन दिया। शेरपा ने जब ऑक्सीजन लगाया तो मानो पुनर्जन्म हो गया। यहां मैंने ईश्वर के चमत्कार को अपनी आंखों से देखा।

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