लखनऊ बढ़ा आगे तो पीछे जा रहा है महोत्सव
लखनऊ। जिन्होंने बीते एक दशक में दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले महोत्सव और मेलों में आए बदल ...और पढ़ें

लखनऊ। जिन्होंने बीते एक दशक में दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले महोत्सव और मेलों में आए बदलाव को देखा है उनकी नजर में लखनऊ का सरकारी महोत्सव अब भी वहीं ठहरा है, जहा से इसकी शुरुआत हुई थी। दिल्ली वाले मेलों को यदि राष्ट्रीय राजधानी का अतिरिक्त लाभ मिलने की बात मान भी लें तो अगले कदम पर अलीगढ़ की सालाना नुमाइश में आए बदलाव प्रदेश की राजधानी के इस घिसे-पिटे आयोजन को मुंह चिढ़ा रहे हैं। गिरता जा रहा स्तर लखनऊ महोत्सव की शुरुआत 1975 में हुई थी। तब यह लखनऊ विवि में आयोजित होता था। फिर जैसे-जैसे सरकारें बदलीं या अदालत का आदेश हुआ, महोत्सव का आयोजन स्थल भी बदलता रहा। बेगम हजरत महल पार्क से लक्ष्मण मेला मैदान और वीआइपी रोड स्थित अंबेडकर मैदान से यात्रा करते हुए महोत्सव स्मृति उपवन पहुंच गया, लेकिन इसके मूल ढाचे में कोई बदलाव नहीं आया। 2003 में होत्सव में जो स्टॉल लगते थे, वही आज भी दिखते हैं। इस बीच सूचना-तकनीक
कहा से कहा पहुंच गई, लेकिन महोत्सव का स्तर साल-दर-साल गिरता चला गया। जो झूले दससाल पहले नए चमचमाते हुए थे, वे अब जर्जर हैं।
जंग लगने के बाद झूलों से निकला टूटा-फूटा लोहा लोगों को चुभ रहा है। यही हाल स्टॉल और पंडाल का भी है।
टेंडर का खेल लखनऊ महोत्सव में कौन से स्टॉल लगेंगे, हर साल इसका टेंडर होता है। हैरत की बात है कि टेंडर जैसी प्रक्त्रिया से भी न जाने कैसे वही व्यापारी फिर आ जाते हैं, जो लगातार पिछले वषरें में यहा आते-आते अधिकारियों से सहज हो गए हैं। इसे महोत्सव समिति का भ्रष्टाचार कहें, अनियमितता कहें या फिर कुछ नया करने की जिम्मेदारी से
बचने का भाव, लेकिन सच यही है कि जिम्मेदार अधिकारी खुद नहीं चाहते कि कोई बदलाव हो या
तय-तोड़ की सधी व्यवस्था में किसी नए व्यक्ति से समीकरण बिठाने की नौबत आए। यही वजह है कि महोत्सव की जिम्मेदारी संभालने के लिए प्रशासन
उस सेवानिवृत्त अधिकारी को ढूंढ़ लाया, जो पहले नौकरी में रहते हुए यह जिम्मेदारी संभालते थे। आयोजकों का कॉकस किसी नए को इसमें दाखिल ही नहीं होने दे रहा।
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