नहीं भुला सकते जोशीला झंडा गीत-विजयी विश्व तिरंगा
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। सदा शक्ति सरसाने वाला, प्रेम सुधा बरसाने वाला वीरों को हरसाने वाला मातृभूमि का तन-मन सारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला,
प्रेम सुधा बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में,
कांपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जावे भय संकट सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
इस झंडे के नीचे निर्भय,
हो स्वराज जनता का निश्चय,
बोलो भारत माता की जय,
स्वतंत्रता ही ध्येय हमारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
आओ प्यारे वीरों आओ,
देश-जाति पर बलि-बलि जाओ,
एक साथ सब मिलकर गाओ,
प्यारा भारत देश हमारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
इसकी शान न जाने पावे,
चाहे जान भले ही जावे,
विश्व विजय करके दिखलावे,
तब होवे प्रण-पूर्ण हमारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
कालजयी झंडागीत
लखनऊ। कालजयी गीत और उसकी रचना करने वाले श्यामलाल गुप्त पार्षद को भुलाया नहीं जा सकता है। किसान विश्वेश्वर प्रसाद के द्वितीय पुत्र श्याम लाल (जन्म नौ सितंबर 1895 व मृत्यु 10 अगस्त 1977) का जन्म भले ही कानपुर के नर्वल में हुआ हो परंतु उन्होंने कानपुर के जनरलगंज को कर्मस्थली बना आजादी का शंख फूंकने वाली रचनाएं लिखकर कांग्रेस के साथ लड़ाई लड़ी। यहां हुए कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के समक्ष जब झंडा गीत पढ़ा तो वह भी उत्साह से भर गये। उन्होंने उसके तीन अंतराओं को कांग्रेस के झंडा गीत के रूप में मान्यता दी। यह गीत आजादी की लड़ाई का एक बड़ा हथियार बना। देश आजाद हुआ तो मध्य में चक्र वाला तिरंगा राष्ट्र ध्वज बना और झंडा गीत पीछे चला गया किंतु कनपुरियों की जुबान पर यह गीत आज भी जिंदा है। आजादी की मध्यरात्रि यानी 14 अगस्त की रात ठीक 12 बजे मेस्टन रोड में बीच वाले मंदिर पर तिरंगा फहराकर यह गीत गाया जाता है। यह अलग बात है कि अब वह कार्यक्रम परंपरा के रूप में केवल कांग्रेसी बनकर रह गया है।
पांच हजार लोगों ने गाया
1938 में हरिपुरा के ऐतिहासिक कांग्रेस के अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ध्वजारोहण किया। तिरंगे ध्वज के सम्मान में खड़े करीब पांच हजार लोगों ने श्रद्धा से भाव विभोर होकर 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा' गाया तो अधिवेशन स्थल राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत हो गया। देश के सभी बड़े नेता इसमें उपस्थित थे। अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी और साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र के सानिध्य में आने पर पार्षद जी ने अध्यापन, पुस्तकालयाध्यक्ष और पत्रकारिता के विविध जनसेवा कार्य किए। उन्होंने 'सचिव' नामक मासिक पत्र का संपादन किया।
आठ बार में छह साल की जेल
वह कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। 1920 में वह फतेहपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बने और नमक आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलन का प्रमुखता से संचालन किया। असहयोग आंदोलन के कारण उन्हें रानी यशोधरा के महल से 21 अगस्त 1921 को गिरफ्तार किया गया। 1930 में नमक आंदोलन के सिलसिले में वह फिर से गिरफ्तार हुए। 1944 में भी गिरफ्तार किया गया। इस तरह आठ बार में कुछ छह सालों तक जेल में रहे। स्वतंत्र भारत में 1952 में लाल किले से उन्होंने अपना झंडा गीत गाया, 1972 में लाल किले में उनका अभिनंदन हुआ और पद्मश्री मिला।
नहीं बना स्मारक
पार्षद जी रचनाओं में तो बहुत अमीर थे किंतु धन से उतने ही गरीब। जगन्नाथ मंदिर वाली गली जनरलगंज में 60 वर्ग गज जमीन पर जर्जर हालत में खड़ा एक मकान, जो दोसर वैश्य ट्रस्ट का है, उनकी रचनाधर्मिता का गवाह है। उनको पद्मश्री (1972) मिला, पेंशन मिली, पार्षद पुस्तकालय बना, फूलबाग में मूर्ति लगी पर उनके इस जर्जर मकान को मजबूत दीवारें नहीं मिल पाई जबकि पद्मश्री श्यामलाल गुप्त पार्षद स्मारक समिति इसके लिए संघर्ष करती रही।
नहीं दिया उचित सम्मान
पार्षद स्मृति संस्थान के संयोजक एवं नाती साकेत गुप्ता ने बताया कि राष्ट्र ने पार्षद जी को उचित सम्मान नहीं दिया। वह तो भारत रत्न के हकदार थे। उन्होंने जो गीत लिखा वह केवल झंडागीत बनकर रह गया जबकि इसे राष्ट्रगीत बनाया जाना चाहिए थे। जिस मकान में वह रहते थे उसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग भी पुरानी है किंतु सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। ऐसा राष्ट्रीय स्मारक बने जहां उनकी लिखी पुस्तकें, चित्र और अन्य वस्तुएं वस्तुएं सुरक्षित रहें जिससे भावी पीढ़ी उसे पढ़ कर प्रेरणा ले।
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