Geranium cultivation: पहाड़ों से उतर कर गंगा के मैदानी क्षेत्र पर छा गई 'जिरेनियम'
Geranium cultivation सीमैप के वैज्ञानिकों की कोशिशें रंग लाई। नई कृषि तकनीक से हर साल करीब ढाई सौ करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की बचत होगी। जिरेनियम ऑयल में आत्मनिर्भर बनेगा भारत।
लखनऊ [रूमा सिन्हा]। Geranium cultivation: कभी ऊंचे पहाड़ों में जिरेनियम की खेती हुआ करती थी। वह भी बहुत कम मात्रा में ,लेकिन अब जिरेनियम गंगा के मैदानी क्षेत्रों सहित हरियाणा,पंजाब में अपनी सुगंध फैला रही है। राजधानी सहित प्रदेश के नौ जिलों में किसान जिरेनियम की खेती शुरू की है। माना जा रहा है कि काश्तकार इससे काफी मुनाफा कमा सकेंगे वहीं देश को भी हर साल ढाई सौ करोड़ की विदेशी मुद्रा की बचत होगी। खास बात यह है कि एक बार बोने के बाद दूसरी फसल के लिए कटिंग भी सुरक्षित रख सकेंगे, इससे उन्हें दोहरा लाभ मिलेगा।
यह संभव हुआ है केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौध संस्थान (सीमैप) के वैज्ञानिकों के अथक शोध प्रयासों से। सीमैप के वैज्ञानिक डॉ.सौदान सिंह बताते हैं कि किसानों के समक्ष मुश्किल यह थी कि मैदानी क्षेत्र में जिरेनियम उगाने के लिए कोई उपयुक्त किस्म नहीं थी। किसी तरह उगा भी लेते थे तो दूसरे सीजन के लिए प्लांटिंग मेटेरियल को सुरक्षित रख पाना मुश्किल होता था। किसानों ने सीमैप के इस अनुसंधान का लाभ उठाते हुए जिरेनियम की खेती को हाथों-हाथ लिया है। उत्तर प्रदेश व बिहार के 100 एकड़ मैदानी भाग में किसान जिरेनियम की खेती कर रहे हैं।
जिरेनियम को रोज सेंटेड जिरेनियम भी कहा जाता है। यानी इसके ऑयल की खुशबू रोज ऑयल से बहुत कुछ मेल खाती है। रोज ऑयल जो कि काफी महंगा मिलता है उसके विकल्प के तौर पर भी कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में इसका इस्तेमाल किया जाता है। भारत में इसे अभी आयात किया जाता है ऐसे में किसानों को यह काफी मुनाफे का सौदा लग रहा है।
डॉ.सिंह बताते हैं कि जिरेनियम जिसे रोज सेंटेड जिरेनियम के नाम से भी जाना जाता है, एक बहुमूल्य सगंधीय फसल है। इसकी खेती अब तक केवल पहाड़ी क्षेत्रों में ही संभव थी, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी उत्पादकता एवं गुणवत्ता मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अच्छी न होने के कारण इसका देश के उत्पादन नही बढ़ पा रहा था। देश की घरेलू आवश्यकता लगभग 250-300 टन प्रतिवर्ष है जबकि उत्पादन केवल 5-10 टन प्रतिवर्ष ही है। भारत हर साल लगभग ढाई सौ करोड़ रुपए का तेल आयात करता है जिस पर मोटी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। उत्तर भारत के मैदानी भागों में नवंबर से जून तक इसकी खेती बहुत आसानी से की जा सकती है लेकिन वर्षा ऋतु में इसकी पौध सामग्री बचाना एक अहम समस्या थी। वर्षा ऋतु के दौरान इसकी कटिंग बचाने के लिए वातानुकूलित ग्लासहाउस ही विकल्प था जो व्यापक रूप से व्यावहारिक नहीं था। कारण, पौधे की उत्पादन लागत लगभग 35 रू.आती थी। डॉक्टर सिंह बताते हैं कि किसान को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के रोपण हेतु पौध सामग्री पर खर्च लगभग दो लाख खर्च करने पड़ते थे। यही कारण था कि उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्र जिरेनियम की खेती के लिए उत्पादकता एवं लाभ की दृष्टि से अच्छे होने के बावजूद खेती का प्रसार नही हो पा रहा था।
विकसित की किफायती कृषि तकनीक
खेत पर ही जिरेनियम की पौध सामग्री बचाने की ऐसी कृषि तकनीकी का विकास किया गया जिस पर ₹35 प्रति पौधे से खर्च घटकर मात्र ₹2 प्रति पौधा आता है ।खास बात यह है कि इसके लिए ग्लास हाउस की भी जरूरत नहीं होती। डॉक्टर सिंह कहते हैं कि इस प्रकार किसान को एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 90 फीसद की बढ़ेगी बचत संभव है। सीमैप के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित जिरेनियम कृषि तकनीक किसानों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो रही है। वहीं से आत्मनिर्भर भारत की तरफ मजबूत कदम माना जा रहा है। उत्तर भारत के मैदानी भागों जैसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड इत्यादि राज्यों में किसान सफलता पूर्वक सीमैप के दिशानिर्देश में सफलतापूर्वक खेती कर लाभान्वित हो रहे हैं।
मेंथा के मुकाबले कम पानी की खपत
गर्मी के दौरान किसान नकदी फसल के रूप में मेंथा की खेती करते हैं। मेंथा में पानी की खपत अधिक होने के कारण किसानों को अधिक खर्च करना पड़ता है।वहीं जिरेनियम की खेती में खर्च कम और फायदा अधिक है।जिरेनियम की खेती से किसान लगभग एक लाख रुपए प्रति हेक्टेयर लाभ कमा रहे हैं। डॉक्टर सिंह कहते हैं कि इस तकनीक को अपनाकर भारत न केवल जिरेनियम के तेल में आत्मनिर्भर होकर लगभग 250 करोड़ की विदेशी मुद्रा की बचत प्रति वर्ष कर पाएगा बल्कि विश्व बाजार में निर्यात की संभावनाएं भी तलाशी जा सकती हैं।