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    जब गीत बने रणभेरी तो भारत को स्वतंत्रता दिलाने में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका- मालिनी अवस्थी

    By Pooja SinghEdited By:
    Updated: Sun, 05 Sep 2021 10:29 AM (IST)

    आज की पीढ़ी के लिए कल्पना भी कठिन है कि श्रेष्ठता ग्रंथि के अहंकार से भरी ब्रिटिश सरकार ने उनके पूर्वजों पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए हैं। ऐसे में कुछ लोकगीत ...और पढ़ें

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    जब गीत बने रणभेरी तो भारत को स्वतंत्रता दिलाने में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका

    मालिनी अवस्थी।  भारतवर्ष स्वतंत्रता का 75वां अमृत महोत्सव धूमधाम से मना रहा है। दमन और अत्याचार के बाद भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ। पराधीनता के इस कठिन समय में हमारी लोकचेतना ने राष्ट्र की अस्मिता को बचाए रखने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकार हमारी संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रतीकों का गुणगान व लोकचित्त में बसे चरित्रों का गाथागायन कर जनजागरण का दायित्व संभाला, वह प्रणम्य है। ऐसे अशेष दिव्य साक्ष्य आज लोकगीतों के रूप में उपलब्ध हैं। देखिए, इस लोकगीत में किस तरह अपने पूर्वज सम्राटों का पुण्यस्मरण किया गया है कि वे आकर भारत की स्थिति संभालें-

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    आवे अशोक चंद्रगुप्त हमरे देसवा में

    लोरवा बहावे देखि तोहरो हवाल हो विदेसिया।।

    यह कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के लिए संघर्षरत समाज ने इन लोकगीतों को रचकर, भारतीय आत्मसम्मान को झकझोरने, जगाने का काम किया।

    ओजपूर्ण स्वरों से गूंजा भारत

    भारतीय स्वाधीनता संग्राम में आम समाज की यह सबसे बड़ी आहुति थी। यहां सबसे पहले चंद बरदाई का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता चंद बरदाई महान शासक पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र थे। मुहम्मद गोरी के विरुद्ध लिखी गई चंद बरदाई की एक अमर रचना का पाठ घर-घर होता है,

    चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट मसान

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान।

    बारहवीं शताब्दी में जगनिक ने अमर योद्धा आल्हा ऊदल की वीरता और 52 युद्धों का ओजपूर्ण वर्णन इस प्रकार किया है -

    बड़े लड़इया महोबा वाले, जिनकी मार सही ना जाए।

    एक के मारे दुई मरि जावैं, तीसर खौ खाय मरि जाए।।

    आल्हा सुन कायर मानुष की भी धमनियों में रक्त प्रवाहित होने लगता। गुलामी का दंश झेल रहे उत्तर भारत में घर-घर आल्हा गाए जाने लगे। उसी कालखंड के आल्हा की ये पंक्तियां देखें, जहां स्पष्ट कहा गया कि,

    जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार,

    खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम,

    रन मा मरिके जौ मरि जैहौ, होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।।

    स्वाभिमान के राग

    मध्यकाल तक भारत में मुगलों का शासन स्थापित हो चुका था। आहत भारतीय समाज का आत्मबल टूट चुका था। ऐसे में भारतीय संस्कृति के जागरण का सबसे बड़ा काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाही’-ऐसे ही गोस्वामी जी के मुख से नहीं निकला था। वह प्रत्यक्ष देख रहे थे कि एक पराजित समाज का मनोबल कैसा होता है। गोस्वामी जी की कृति ‘श्रीरामचरितमानस’ हर भारतीय का स्वाभिमान राग बन गई। श्रीराम और भगवान कृष्ण को केंद्र में रख संस्कार गीत गाए जाने लगे। शिशु का जन्म हो, बटुक का जनेऊ हो, विवाह हो, राम के सोहर, लगन, बन्ने गीत गाए जाने लगे। तब के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष से संबद्ध कुछ लोकगीत आज भी गाए जाते हैं। मुगल शासकों के अत्याचार, मुगलों से सतीत्व की रक्षा हेतु भारतीय नारियों का आत्मबलिदान लोकगीतों में बड़ी मार्मिक रूप से व्यक्त हुए हैं। कुसुमा की प्रसिद्ध कथा या बैरागिया नाला प्रसंग आज भी गाए जाते हैं।

    संस्कृति का जयघोष

    अपनी संस्कृति, धर्म और पहचान को आने वाली पीढ़ी न भूले, इसलिए पूर्वजों ने पौराणिक चरित्रों की गाथाओं पर गीत रचे व कहानियां कहीं। यही गाथाएं लोकगीत बनकर पांडवानी, आल्हा बिरहा, नौटंकी, पवारा, स्वांग भक्ति पदों व अनेक विधाओं के रूप में नई पीढ़ी को सौंप दिए गए। शिव-पार्वती, श्रीराम, भगवान कृष्ण, हनुमान की कथाओं के साथ-साथ सत्यवादी हरिश्चंद्र, सती अनसूया, ध्रुव, भक्त प्रहलाद, श्रवण कुमार, सावित्री, वीर अभिमन्यु आदि की कथाएं गीतों के रूप में ढलकर लोककंठ में समा गईं। ये गीत अपने आप में शास्त्र थे, शिक्षा थी, प्रेरणास्पद गाथाएं थी, जिन्हें सुनकर समाज का मनोबल बढ़ा। एक उदाहरण देखिए-

    जहां जनम लिए विधि हरि महेश अहै

    अइसन ई देश अहै ना।

    जहां जन्में कृष्ण राम

    धर्म भाषा जहां तमाम

    नित्य गुन गावत गिरिजा गणेश अहै

    वीर अर्जुन क तीर लक्ष्मण वाली लकीर

    गीता गौतम क जहां उपदेश अहै

    अइसन ई देश अहै ना।।

    भारतीय राजाओं, सामंतों, जमींदारों व व्यापारियों यानी समर्थ वर्ग ने भले ही गुलामी स्वीकार कर ली थी, किंतु ग्राम समाज ने पराधीनता कभी नहीं स्वीकार की। राणा प्रताप और शिवाजी उनके आदर्श थे। उनके अंतस में स्वतंत्रता के स्वर प्रचंड थे, मुखर थे। उनका आक्रोश और स्वाभिमान भारतवासियों को ललकारते हुए गांव-गांव गूंजा। जहां ये गीत आज भी सुनाई देते हैं-

    जहवा रहिन जनमा वीर परताप सिंह,

    औरौ चौहान से सपूत रे फिरंगिया

    देसवा की खातिर जे मरि मिटी गए,

    तबहू न मथवा झुकाए रे रिंगिया।

    वही देसवा म आज अइसन अधम भये

    चाटथे बिदेसिया कै लात रे फिरंगिया।

    इसी प्रकार लंबे समय से चली आ रही पराधीनता और ऊपर से ब्रिटिश सरकार की नीतियों के कारण जनता की आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई थी। नई भूमि व्यवस्था ने किसानों की दशा शोचनीय बना दी थी। देसी उद्योग-धंधों का विनाश हो गया था। हजारों लोग बेरोजगार हो गए थे। फलस्वरूप सभी वर्गों में असंतोष था और लोकगीतों में यह खूब दिखता है-

    होइ गइले कंगाल हो विदेशी तोरे रजवा में

    भारत के लोग आज दाना बिना तरसें भइया

    लंदन के कुत्ता उड़ावे माजा माल, हो बिदेसिया।

    शौर्यगाथाओं को मिले सुर

    1857 में देश अंग्रेजों के खिलाफ संगठित हो एक स्वर में उठ खड़ा हुआ। पहली बार देश को मुक्ति की आशा नजर आई। इस संग्राम के नायक-नायिकाओं की वीर गाथा लोकगीतों के माध्यम से फूट पड़ी। यही वजह है कि बाबू कुंवर सिंह, तात्या टोपे, नाना जी, रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, मंगल पांडेय से लेकर तमाम नायकों पर लोकगीत मिलते हैं। राणा वेणी माधव, बलभद्र सिंह, अजीजन बाई जैसे अनेकानेक गुमनाम नायकों की शौर्यगाथाएं भी समाज ने रच दीं। उनके रचे ये गीत आल्हा, बिरहा, कजरी, झूमर, पूर्वी,दादरा के रंग में उतरकर चहुंओर फैल गए। अमर शहीद मंगल पांडेय के शौर्य की सुगंध आल्हा बिरहा में खूब मिलती है, एक आल्हा में बखान देखिए-

    मंगल पांडे अमर सपूत कै

    आज अमर दास्तां सुना।

    बैरकपुर मां रहिन सिपाही,

    बहुत रहिन बलवान सुना।

    इसके बाद बिहार के दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने भी बगावत कर दी। बाबू कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकू सिंह एवं भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया। 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। वीर कुंवर सिंह की वीरता के बारे में भोजपुरी में अथाह लोक संपदा मिलती हैं-

    लिखि लिखी पतिया के भेजलन कुंवरसिंह

    ऐ सुन अमरसिंह भाय हो राम।

    चमड़ा के तोड़ता दात से हो काटे कि

    छतरी के धरम नसाय हो राम।

    झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदर्श हैं सभी महिलाओं के लिए। अपनी वीरता के किस्सों को लेकर वह किंवदंती बन चुकी हैं-

    होइ गयी झांसी कै रानी हो राम

    झांसी न देबै प्रान दै देबय

    रानी परन इहै ठानी हो राम

    गोदी कै पूत कौं पीठिया बाधि

    देखा तरवारि कै पानी हो राम

    छक्का छूटि गये अंग्रेजन कै

    जुग जुग अमर कहानी हो राम।।

    स्वतंत्रता संग्राम से लेकर स्वतंत्रता मिलने तक हमारे देश की लोकचेतना लोकगीतों के द्वारा हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को इसी प्रकार सिक्त करती रही, झकझोरती रही। लोकगीतों में जैसी प्रखर राष्ट्रीय चेतना देखती हूं, दंग रह जाती हूं। एक झूला कजरी देखें-

    कितने वीर झूले भारत में झुलनवा

    झुलाइस बेईमान झूलना..

    जालिया बगिया में झूले

    मां के कितने ही लाल

    राखौ न खाया

    सुभाष चंद्र बोस लाल

    झूला गांव गाये आजादी के तरनवा

    झुलाइस बेईमान झूलना

    हंसकर तखत पे झूले

    भगत सिंह सरदार

    झांसी वाली झूली

    लेकर हाथ तलवार

    अमर बलिदानियों के त्याग के बारे में सभी जानते हैं, लेकिन फांसी पर झूलने की त्रासदी को झूले का बिंब देकर एक राष्ट्रीय चेतना की कजरी रच देना एक चकित कर देने वाला अद्भुत प्रयोग है। लोक की बानगी देखिए। यहां फांसी के फंदे को, बेईमान झूलना कहा गया है। सच ही तो है, लोकचेतना शहीदों की शहादत पर सिसकती नहीं, कथा बुनती है आने वाली पीढ़ियों को सुनाने के लिए।

    ऊधम सिंह ने लंदन में जनरल डायर को मारकर जलियांवाला कांड का प्रतिशोध लिया था और आज तक उनकी वीरता कजरी में स्मरण की जाती है-

    घुस के मारा उधम सिंह लंदन में, डायर को मारा।

    नाहर जा कायर को मारा, बदला लिया निडर हो मारा ना।

    अत्याचारों को किया अभिव्यक्त

    आज की पीढ़ी के लिए कल्पना भी कठिन है कि श्रेष्ठता ग्रंथि के अहंकार से भरी ब्रिटिश सरकार ने उनके पूर्वजों पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए हैं। ऐसे में कुछ लोकगीतों को सुनकर यह सहज ही समझा जा सकता है कि अंग्रेजों के अत्याचारों की क्या रवानगी रही होगी। लोकगीतों में यह पीड़ा और क्षोभ कैसे दीखता है-

    देसवा के लागि हम सहबे कलेसवा।

    कठिन विपतिया में भारत देसवा रामा।

    अंखिया से बरसत गंगा जमुनवा,

    ओहि देसवा के हम करबै उधरवा रामा

    चाहे देहिया के होई जईहे बलिदनवा।।

    एक दिलचस्प लोकगीत मिलता है जिसमें अंग्रेजों के फैलते प्रभाव के प्रति चिंता तो दिखती ही है, अपनी बोली, अपनी संस्कृति के उद्धार की फिक्र भी दिखती है-

    फिरंगिया से देसवा बचाया भगवान

    बोलिया तड़ातड़ बोलै फिरंगिया

    हमरे देसवा कै बोलिया बचावा भगवान।

    स्त्रियों का अटल संकल्प

    आज यह माना जाता है कि स्त्रियां सशक्त व आत्मनिर्भर हैं जबकि सच तो यह है कि भारत की आजादी की लड़ाई में महिलाओं ने जैसी बहादुरी, संगठन और पहल दिखाई है, वह अद्भुत है। उस समय के लोकगीतों में भारत की नारी का प्रखर स्वर सुनाई देता है। रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, अजीजनबाई बेगम हजरत महल ने यदि युद्ध के मैदान पर मोर्चा संभाला तो देश की आम नारी भी पीछे नही रहीं। महात्मा गांधी के आह्वान पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाती हुई वे गा उठीं-

    मत लइहो चुनरिया हमार विदेसी, ओ बालमा

    है हुक्म गांधी का चरखा चलाइये

    करो स्वदेसी पर तन मन वार।

    महात्मा गांधी इस स्वतंत्रता आंदोलन के ऐसे जननायक बनकर उभरे, जिनका प्रभाव गांव-गांव में फैल गया और घर-घर आजादी के गीत गाए जाने लगे। चरखा, आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक बन गया। स्त्रियां कह उठीं-

    सखियां सब मिलि चरखा चलावहु जग पलटावहु हो।

    मंच से ही सीधा मोर्चा

    लेखकों कवियों, गायकों व कलाकारों ने पूरे जोश के साथ अपनी कला के माध्यम से आजादी की जंग लड़ी। आलम यह था कि एक बार एक नौटंकी के मंचन के दौरान गीत के इन बोलों को सुन कानपुर शहर में गोरों ने विद्रोह के डर से कार्यक्रम रुकवा दिया था-

    बताएं तुम्हें हम कि क्या चाहते हैं

    गुलामी से होना रिहा चाहते हैं।

    अजी ऐसे जीने पे सौ बार लानत

    वतन के लिए हम मरना चाहते हैं।।

    देश की आत्मा उसकी लोकसंस्कृति में वास करती है। इतने दीर्घ संघर्ष के बाद आज हम स्वतंत्रता का सुख ले पा रहे हैं तो उसका बहुत बड़ा श्रेय लोकस्वर लोककंठ को जाता है। बनी रहे यह लोकचेतना!

    (लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)