विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में राष्ट्रीय ध्वज के विराट वैभव को व्याख्यायित करता मालिनी अवस्थी का आलेख...
करीब 45 साल की उम्र में पिंगली ने राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण किया और फिर 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा में इस राष्ट्रीय ध्वज को सर्वसम्मति से अपना लिया गया। इससे चरखे को हटाकर सम्राट अशोक का धर्मचक्र इस्तेमाल किया गया।

लखनऊ, मालिनी अवस्थी। यह भारत का अमृतवर्ष है। स्वाधीनता का अमृत महोत्सव हर ओर धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह ऐतिहासिक अवसर प्रत्येक भारतीय में देशप्रेम और स्वाभिमान का संचार कर सके, इसलिए सरकार ने आह्वान किया है कि हर नागरिक अपने घर-प्रतिष्ठान पर तिरंगा फहराकर ‘हर घर तिरंगा’ अभियान में शामिल हो व राष्ट्र के प्रति सामूहिक चेतना का भाव जागृत करे। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में राष्ट्रीय ध्वज के विराट वैभव को व्याख्यायित करता मालिनी अवस्थी का आलेख...
बन्ना हमारो गांधी के बस मां, तिरंगा झंडा उठा रहा है।
बाबा सियावैं जोड़ा औ जामा।
ऊ तौ खद्दर कै रटनि लगाए, तिरंगा झंडा उठा रहा है।
आजी बेसाहैं फूलन क मउरा।
ऊ केसरिया पगिया कै रटनि लगाए, तिरंगा झंडा उठा रहा है।
बाबू मंगाए सजा मियाना,
ऊ तौ पैदल कै रटनि लगाए, तिरंगा झंडा उठा रहा है।
अर्थात्- हमारा दूल्हा गांधी के वश में तिरंगा झंडा उठाकर चल रहा है। उसके बाबा दूल्हे की पोशाक बनवा रहे हैं, पर वह खादी पहनने के लिए मचल रहा है। दादी ने फूलों का मौर खरीदा, पर वह केसरिया पाग (पगड़ी) बांधने की हठ कर रहा है। पिता ने पालकी सजाई किंतु वह तिरंगा लेकर पैदल चलने की जिद कर रहा है। यह था स्वाधीनता के मतवालों का वह अदम्य भाव जो विवाह जैसे परम मांगलिक अवसर पर भी तिरंगा उठाने की कामना में व्यग्र हैं। विचार करें कि कैसा था स्वाधीनता और अपने झंडे के प्रति वह आवेग और कैसे थे वे लोग! इस गीत के बोल-अर्थ जब भीतर उतरते हैं तो हम समझ पाते हैं कि देशानुराग की हर भावना से भी आगे था वह अमिट विचार। सदियों चले संघर्ष के निकष के रूप में हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई 15 अगस्त, 1947 को। हमारी राष्ट्रचेतना, हमारी स्वाधीनता का प्रतीक है हमारा तिरंगा। 15 अगस्त निकट है और इस समय पूरा देश तिरंगे की आन-बान-शान में सराबोर है।
देशभक्ति का पहला संस्कार
तिरंगे का हमारी चेतना पर ऐसा प्रभाव होता है कि जब भी हम कहीं अपने राष्ट्रीय ध्वज को देखते हैं तो मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। ध्वज प्रतीक है आत्मसम्मान का। इसीलिए खेल के मैदान पर जब खिलाड़ी को मेडल पहनाया जा रहा होता है, उस समय विदेशी धरती पर भी लहराता तिरंगा देख टीवी देख रहे हम दर्शकों की आंखें भीग जाती हैं और सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। ऐसा है तिरंगे झंडे का प्रभाव। जिस प्रकार बचपन में हमारा पहला संस्कार मां की शिक्षा, दादी की कथाओं का होता है, ऐसे ही देश का पहला संस्कार, इसकी पहली पहचान इसका ध्वज होता है और जब बात राष्ट्रध्वज की चले तो कह सकते हैं कि तिरंगा जैसा कोई और नहीं। तिरंगा हमारा अभिमान है, हमारी शान है और इसीलिए पराधीनता के क्रूर काल से आज तक देशवासी बरबस ही गा उठते हैं-
अपने हाथे चरखा चलौबे हमार कोऊ का करिबै,
अपने हाथे तिरंगा फरहैबे हमार कोऊ का करिबै।
बन गई पळ्नीत परंपरा
तिरंगे को सुमिरन करते हुए आज एक दिलचस्प घटना अवश्य बताना चाहूंगी। बिहार के पूर्णिया में स्वाधीनता के दीवानों ने 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को ही तिरंगा फहरा दिया। इसके बाद तो यह परंपरा ही बन गई और तब से हर साल यहां इसी तरह शान से फहराया जाता है स्वाधीनता का पहला झंडा। आइए जानें कि पहला झंडा पूर्णिया में क्यों? आपको रूबरू करा रही हूं एक ऐतिहासिक घटना से। दिन था 14 अगस्त, 1947 का। सुबह से ही पूर्णिया के लोग स्वाधीनता की खबर सुनने के लिए बेचैन थे। दिनभर चौक पर लोगों की भीड़ मिश्रा रेडियो की दुकान पर लगी रही मगर जब स्वाधीनता की खबर रेडियो पर नहीं आई तो लोग घर लौट आए। उधर मिश्रा रेडियो की दुकान खुली रही। रात के 11 बजे थे कि इस दुकान पर रामेश्वर प्रसाद सिंह, रामजतन साह, कमल देव नारायण सिन्हा, गणेश चंद्र दास सहित उनके सहयोगी पहुंच गए। इन सभी के आग्रह पर रेडियो खोला गया। रेडियो खुलते ही माउंटबेटन की आवाज सुनाई दी और उसे सुनते ही लोग खुशी से उछल पड़े। साथ ही निर्णय लिया कि अब इसी समय इसी जगह स्वाधीनता का झंडा फहराया जाएगा। आनन-फानन में बांस, रस्सी और तिरंगा झंडा मंगवाया गया और 14 अगस्त, 1947 की रात 12 बजे रामेश्वर प्रसाद सिंह ने तिरंगा फहराया। उसी रात चौराहे का नाम झंडा चौक रखा गया। इस दौरान मौजूद लोगों ने शपथ ली कि इस चौराहे पर हर साल 14 अगस्त की रात सबसे पहला झंडा फहराया जाएगा। आज भी यह परंपरा जारी है।
हर रंग का अपना मर्म
तिरंगा अपने वर्तमान स्वरूप में कैसे आया, इसके कई सोपान मिलते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि हमारा यह ध्वज सदा से तीन रंगों में था। ग्रामीण अंचलों में पाए जाने वाले अनेक पुरातन गीतों में तिरंगे का बहुधा वर्णन मिलता है-
लहर लहर लहराए रे मोर झंडा तिरंगा,
सबसे ऊंचा लहराए रे मोर झंडा तिरंगा।
केसरिया, श्वेत और हरे रंग से बने तिरंगे के बीच नीले रंग का चक्र। स्वाधीनता के दीवानों ने केसरिया रंग को सबसे पहले ध्वज में इसलिए सम्मिलित किया, क्योंकि यह वैराग्य का रंग है। ताकि आने वाले दिनों में देश के नेता अपना लाभ छोड़कर देश के विकास में खुद को उसी प्रकार समर्पित कर दें जैसे साधु वैराग लेकर मोह-माया से हट भक्ति का मार्ग अपनाते हैं। श्वेत रंग प्रकाश और शांति के प्रतीक के रूप में लिया गया है और हरा रंग प्रकृति से संबंध और संपन्नता को दर्शाता है। ध्वज के केंद्र में स्थित अशोक चक्र धर्म के 24 नियमों की याद दिलाता है।
समिति की सहमति
स्वतंत्रता संग्राम में एक और तिरंगा, जिसे स्वराज झंडा कहा जाता है, का भी इस्तेमाल हुआ। इसमें ऊपर की पट्टी केसरिया, बीच में सफेद और नीचे हरा रंग था। बीच में नीले रंग से बना चरखा था। यानी यह वर्तमान राष्ट्रध्वज से काफी मिलता-जुलता था। खिलाफत आंदोलन के वक्त मोतीलाल नेहरू ने स्वराज झंडा उठाया। 1931 में कांग्रेस ने स्वराज झंडे को ही राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकृति दी। तब तक अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने की उम्मीद प्रबल हो चुकी थी। 1940 की शुरुआत में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर पहुंच गया। जब अंग्रेजों ने भारत छोड़कर जाने का फैसला किया तो नए देश का स्वरूप तय करने हेतु संविधान सभा का गठन हुआ। एक एड-हाक समिति बनाई गई जो राष्ट्रध्वज के डिजाइन पर सलाह देती। इस समिति में मौलाना अबुल कलाम आजाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, के.एम. पणिक्कर, बी.आर. आंबेडकर, उज्जवल सिंह, फ्रैंक एंथनी और एस.एन. गुप्ता शामिल थे। 10 जुलाई, 1947 को समिति की पहली बैठक हुई। इसकी अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद कर रहे थे। समिति के सदस्यों के अलावा बैठक में विशेष न्यौते पर जवाहरलाल नेहरू भी मौजूद थे। इसी बैठक में राष्ट्रीय ध्वज के डिजाइन से जुड़ी बारीकियां तय हुईं।
मिल गया राष्ट्रीय ध्वज
लगभग उसी समय महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ के एक लेख में राष्ट्रीय ध्वज की जरूरत बताई। उन्होंने अपने जानकार पिंगली वेंकैया को इसकी जिम्मेदारी सौंपी। आंध्र प्रदेश के पिंगली 19 साल की उम्र में ब्रिटिश आर्मी में सेना नायक थे। दक्षिण अफ्रीका में एंग्लो-बोअर युद्ध के दौरान उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, जिसके बाद वह हमेशा के लिए भारत लौट आए। भारत आने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। वेंकैया ने केसरिया और हरे रंग का इस्तेमाल कर ध्वज तैयार किया। इसमें केसरिया रंग को हिंदू और हरे रंग को मुस्लिम समुदाय का प्रतीक माना गया था। महात्मा गांधी ने लाला हंसराज की सलाह पर झंडे के बीच में चरखा जोड़ने का सुझाव दिया ताकि लगे कि झंडा स्वदेशी कपड़े से बना है। अप्रैल 1921 में कांग्रेस अधिवेशन के दौरान यह ध्वज सामने रखा जाना था, मगर ठीक समय पर ध्वज तैयार नहीं हो पाया। महात्मा गांधी ने बाद में कहा कि यह देरी अच्छी ही हुई क्योंकि इससे उन्हें यह सोचने का मौका मिला कि ध्वज अभी केवल दो धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। झंडे में तीसरा रंग, सफेद जोड़ा गया और हमारा तिरंगा आकार लेने लगा।
देशप्रेम को बढ़ाता झंडागीत
कानपुर (उत्तर प्रदेश) के नर्वल में नौ सितंबर, 1896 को झंडागीत के रचनाकार श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म हुआ था। विश्वेश्वर प्रसाद व कौशल्या देवी के पांच बेटों में श्याम लाल सबसे छोटे थे। बचपन से ही उनके मन में देश के प्रति भावनाएं उफान पर थीं। भारत की पराधीनता से वह व्यथित रहते। 1921 में उनकी मुलाकात गणेश शंकर विद्यार्थी से हुई। विद्यार्थी जी के संपर्क में आने के बाद वह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। कानपुर के साथ-साथ श्याम लाल गुप्त ने फतेहपुर को भी अपना कर्म क्षेत्र बनाया। 21 अगस्त, 1921 को फतेहपुर में असहयोग आंदोलन शुरू करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। श्याम लाल गुप्त को आठ बार जेल भेजकर प्रताड़ित करने का प्रयास हुआ, लेकिन वह विचलित नहीं हुए और भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के लिए जी-जान से जुटे रहे। 1924 में महात्मा गांधी की प्रेरणा से श्याम लाल गुप्त ने ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गीत की रचना की। 23 दिसंबर, 1925 को गांधी जी की मौजूदगी में ही इसे झंडागीत की मान्यता दी गई। कानपुर में कांग्रेस के सम्मेलन में पहली बार इसका गान हुआ। स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत 15 अगस्त, 1952 को उन्होंने लाल किले में झंडागीत गाकर इसे देश को समर्पित कर दिया। 26 जनवरी, 1973 को उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला,
प्रेम सुधा सरसाने वाला,
वीरों को हरषाने वाला,
मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा...।
स्वतंत्रता के भीषण रण में,
लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,
कांपे शत्रु देखकर मन में,
मिट जाए भय संकट सारा।। झंडा...।
इस झंडे के नीचे निर्भय,
लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,
बोलें भारत माता की जय,
स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। झंडा...।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा...
यह अमर गीत लिखकर कानपुर के श्याम लाल गुप्त पार्षद ने सारे देश को स्वाधीनता की लड़ाई का सिपाही बना दिया था।
आइए, घर-घर तिरंगा फहराने के इस महान पर्व पर हम आप भी यह सोहर गाते हैं-
जन्मा सुराज सपूत त आज शुभ घड़िया मां,
सखियां जगर मगर भई बिहान दुनिया आनंद भई
आज सुफल भई कोखिया तब भारत माता मगन भई,
घर घर बाजी बधाइयां उठन लागे सोहर
लहर लहर लहराई ता फहरे तिरंगवा,
गांधीजी पूरन लागैं चौक ता मुंह से असीसे
शुभ घड़ी मिला बा सुराज ई जुग जुग जीवें।।
(लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)
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