Move to Jagran APP

दो साल के अथक प्रयास के बाद तैयार 105 किलो वजनी मिट्टी का वाद्ययंत्र

तबला वादक सारंग पांडेय ने पौराणिक वाद्ययंत्र त्रिपुष्कर का पुनर्गठन किया। दो वर्षों के अथक प्रयास के बाद मिट्टी से तैयार 105 किलो का वाद्ययंत्र।

By Anurag GuptaEdited By: Published: Sat, 22 Dec 2018 03:57 PM (IST)Updated: Sun, 23 Dec 2018 08:59 AM (IST)
दो साल के अथक प्रयास के बाद तैयार 105 किलो वजनी मिट्टी का वाद्ययंत्र
दो साल के अथक प्रयास के बाद तैयार 105 किलो वजनी मिट्टी का वाद्ययंत्र

लखनऊ, दुर्गा शर्मा। संगीत ईश्वरीय उपादान है। सबसे प्राचीन अवनद्ध वाद्य (चारों ओर से बंधा हुआ) डमरू माना गया है। लय ज्ञान के बाद विभिन्न वाद्ययंत्र धीरे-धीरे विकसित हुए। भरत मुनि के युग में 'त्रिपुष्कर' प्रमुख अवनद्ध वाद्य था। द्विपुष्कर तथा त्रिपुष्कर वाद्यों के वादन के प्रमाण प्रस्तर शिल्पों तथा शैल चित्रों के रूप में मिलते हैं। ये अब वास्तविक रूप में उपलब्ध नहीं हैं। शहर के तबला वादक सारंग पांडेय ने 'त्रिपुष्कर' वाद्ययंत्र पर शोध के साथ ही इसका पुनर्गठन भी किया है। पिछले दो वर्षों के अथक प्रयास के बाद 105 किलो वजन वाला मिट्टी का वाद्ययंत्र तैयार हो सका है। 26 दिसंबर को उप मुख्यमंत्री डॉ. दिनेश शर्मा संगीत नाटक अकादमी में इस पौराणिक वाद्ययंत्र का अनावरण करेंगे।

loksabha election banner

सारंग पांडेय ने बताया कि भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के 33 वे अध्याय में त्रिपुष्कर का वर्णन है। भरत नाट्य शास्त्र में मृदंग का वर्णन त्रिपुष्कर के रूप में ही है। त्रिपुष्कर के तीन अंग आंकिक, ऊध्र्वक और आलिंग्य थे। दो मुख वाला आंकिक वाद्य लेटकर बजाया जाता था। यह वाद्य आगे चलकर कुछ परिवर्तन के साथ मृदंग, पखावज के रूप में प्रचलित हुआ। त्रिपुष्कर में खड़ा रखकर बजाये जाने वाले भाग ऊध्र्वक, आलिंग्य कुछ बदलाव के बाद तबला जोड़ी के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी त्रिपुष्कर वाद्य को उसी रीति से बनाया गया है, जिस प्रकार से भरत तथा उनके पूर्ववर्ती समय में केवल हाथों से बिना किसी वर्तमान उपलब्ध उपकरणों की सहायता से मिट्टी द्वारा तैयार किया जाता था।

बनारस घराने के सुविख्यात तबला वादक पं. रंगनाथ मिश्र के शिष्य सारंग पांडेय लखनऊ में इंदिरा नगर में रह रहे हैं, उनकी जड़ें कानपुर से जुड़ी हैं। पिता कांति चंद्र पांडेय और मां प्रेमलता पांडेय की इच्छा अनुसार 1981 में विद्यार्थी के तौर पर संगीत क्षेत्र में कदम रखा। उसके बाद 1989 से तबला शिक्षक हैं।

धीरे-धीरे होता गया बदलाव  

त्रिपुष्कर मिट्टी का बना होता था, जो प्राय: टूट जाता था। साथ ही इसका वजन भी बहुत ज्यादा होता था। बाद में मिट्टी के स्थान पर लकड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। प्रारंभिक वाद्य अपनी सरल अवस्था से धीरे-धीरे विकसित होते गए। इस विकास के साथ कुछ विलुप्त हो गए तो कुछ ने अधिक विकसित होकर दूसरे वाद्यों का रूप ले लिया। सारंग पांडेय कहते हैं, नाट्यशास्त्र के उपरांत ग्रंथों से तो त्रिपुष्कर लुप्त हो गया था, किंतु अपने विघटित रूप में परोक्ष रूप से सदैव जीवित रहा और आज भी है।

 

ऐसे आया विचार 

सारंग पांडेय बताते हैं, तबले आदि के शोध कार्य में त्रिपुष्कर का जिक्र संदर्भ के तौर पर रहता था, पर इसके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती थी। तब इस पर काम करने का विचार आया। उन्नाव के ऐन गांव के कुम्हार राम शंकर प्रजापति इसे बनाने के लिए तैयार हुए। मिट्टी का होने के कारण कई बार टूटा भी, पर अंतत: सफलता मिली। इसका उद्देश्य अपनी सांगीतिक विरासत को सहेजना है। साथ ही इसके वादन की भी योजना है।

शोध में शामिल अहम बातें 

बौद्ध काल : संगीत अपने चरम उत्कर्ष पर था। लिहाजा कहा जा सकता है कि इस काल में मृदंग आदि लय वाद्यों का प्रयोग अवश्य होता होगा, पर इसका विस्तृत विवरण इस काल में नहीं है।

 

रामायण/महाभारत काल

वाल्मीकि रामायण में मृदंग और मुरज वाद्यों के वर्णन के साथ ही भेरी दुंदुभि, घट, मुददुक तथा आदम्बर आदि वाद्यों का उल्लेख है। इन वाद्यों में मृदंग के प्रयोग का अधिक वर्णन मिलता है। महाभारत में भी मृदंग तथा मुरज वाद्यों का उल्लेख मिलता है।  

नाट्य शास्त्र

भरत ने अपने नाट्य शास्त्र में तीन प्रकार के मृदंगों के संयुक्त रूप को त्रिपुष्कर के रूप में वर्णित किया है। 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.