लखनऊ के चर्च : रेजीडेंसी में बना था पहला चर्च, हजरतगंज में है शहर का सबसे बड़ा कैथेड्रल
अंग्रेजों ने अपने स्थायी गिरजाघर की तलाश में हजरतगंज में राजभवन रोड पर सेंट क्राइस्ट चर्च और पुरानी मेफेयर बिल्डिंग के सामने सेंट जोजफ कैथेड्रल चर्च का निर्माण शुरू कराया। इन दोनों चर्चों का निर्माण 1858 में शुरू हुआ था और 1860 में बनकर तैयार हो गए।

लखनऊ, [जितेंद्र उपाध्याय]। क्रिसमस आ रहा है। मुझे नवाबों की नगरी या लक्ष्मणनगरी के रूप में जानने वालों को शायद अजूबा लगे, लेकिन मैंने अपनी गोद में ईसाइयत के प्रचारकों को भी उतनी ही मुहब्बत से खेलाया जितने दुलार से हिंदू-मुसलमान या दूसरे फिरकों को। एक दौर में जब आक्रांता के रूप में आए अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा भड़का तो उनके बनाए चर्च भी क्रांतिकारियों ने जमींदोज कर दिए। लेकिन यह कारगुजारी किसी धर्म के खिलाफ नहीं बल्कि आक्रांताओं की बर्बरता के खिलाफ थी। इसमें विशुद्ध रूप से धर्म प्रचार के लिए गोलागंज के पास आबाद पादरी टोला का चर्च भी था।
1857 की क्रांति से पहले तक सिर्फ तीन ही चर्च यहां थे। पादरी टोला के अलावा रेजीडेंसी और मडिय़ांव छावनी में बना चर्च। जब गदर में ये नष्ट हो गए और अंग्रेजों को रविवार की प्रार्थना के लिए भी कोई जगह न थी तो सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा को अस्थायी प्रार्थनाघर बना दिया गया। सिब्तैनाबाद इमामबाड़े में आधुनिक हजरतगंज के निर्माता हजरत अमजद अली साहब आरामफरमा हैं। अमजद अली शाह को लोग संत का दर्जा देते थे। अंग्रेज ईसाइयों ने यहां दो साल तक नियमित प्रार्थना सभा की। रविवार को एसेम्बली होती। आज का दौर होता तो शायद मजहबी या इलाकाई सवाल खड़े हो जाते, लेकिन तब किसी ने इसका बुरा नहीं माना।
फिर अंग्रेजों ने अपने स्थायी गिरजाघर की तलाश में हजरतगंज में राजभवन रोड पर सेंट क्राइस्ट चर्च और पुरानी मेफेयर बिल्डिंग के सामने सेंट जोजफ कैथेड्रल चर्च का निर्माण शुरू कराया। इन दोनों चर्चों का निर्माण 1858 में शुरू हुआ था और 1860 में बनकर तैयार हो गए, लेकिन सेंट जोजफ चर्च की इमारत की नींव कमजोर रह गई। इसलिए इसे गिराकर मौजूदा चर्च बना जहां 1968 से निरंतर प्रार्थना होती है। सेंट क्राइस्ट चर्च में 1860 से ही प्रार्थना शुरू हो गई। इसकी डिजायन रायल इंजीनियर्स समूह ने तैयार की थी और इसे 'अंग्रेजों का शहीद स्मारक भी कहा जाता है। कारण, चर्च में लगी स्मृति पट्टिकाओं में उन अंग्रेज अफसरों के नाम, जन्मदिन, सेवाएं और मृत्यु की तारीख वर्णित है जो 1857 की क्रांति में मारे गए।
भारत में जो ईसाई मिशनरी आये वे दक्षिणी तट पर थे। ईसा मसीह के 12 शिष्यों में से एक थॉमस 50वीं सदी के आसपास यहां आया था, लेकिन मेरी सरजमीन (लखनऊ) पर जो सबसे पुराने ईसाई मिशनरी थे, वे इटली से तिब्बत और नेपाल के रास्ते आये थे। शैवेलियर आस्टिल मैलकम लोबो ने एक पुस्तक लिखी है- ग्रोथ एंड डेवलॅपमेंट ऑफ कैथोलिक डायसिस ऑफ लखनऊ। इसमें उल्लेख है कि ईसाई मिशनरी इटली से तिब्बत धर्म प्रचार और प्रसार के लिए पहुंचे। यह अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत यानी 1702-03 का समय था। यहां वे 1745 के आसपास तक रहे। तिब्बतियों में बौद्ध धर्म की जड़ें गहरी थीं। 42 साल तक यहां कपूचिन आफ अरकाना फादर फ्रांसिस ओराजियो के नेतृत्व में ईसाई मिशनरी काम करती रहीं, लेकिन सिर्फ 78 लोगों को ही ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर सकीं। लामाओं ने विरोध शुरू कर दिया और मिशनरी को भागकर नेपाल के काठमांडू में अपना मिशनरी स्टेशन बनाना पड़ा। नेपाल में उन्हें जल्दी सफलता मिली, लेकिन विरोध भी जल्दी शुरू हो गया। 1969 में उन्हें नेपाल भी छोडऩा पड़ा। इस बीच उन्होंने 150 नेपालियों को बपतिस्मा कर ईसाइयत में दीक्षित कर दिया।
ईसाई मिशनरियों से संबंधित उपलब्ध प्राचीन दस्तावेजों में जिक्र मिलता है कि नेपाल में जब विरोध प्रबल हो गया तो मिशनरियों ने फादर जोजफ ऑफ बरनीनी और कपूचिन पादरी तिब्बत से नेपाल होते हुए भारत पहुंचे और बिहार के बेतिया में डेरा डाला। इसके बाद उन्होंने पटना और फिर यूपी के इलाहाबाद में मिशनरी स्टेशन कायम किये। तिब्बत और नेपाल के बजाय उन्हें भारत में प्रचार-प्रसार का बेहतर मौका मिला। इलाहाबाद से वे नवाब शुजाउद्दौला व अवध की तत्कालीन राजधानी फैजाबाद आ गए। उस वक्त इसे बंगला नाम से भी जाना जाता था।
ईसाई पादरी जब फैजाबाद आए तो उसी वक्त नवाब शुजाउद्दौला की बेगम उम्मद उल जोहरा (बहू बेगम) फोड़े से पीडि़त थीं। दरबारियों ने इलाज के लिए पादरी जोजफ का नाम सुझाया। पादरी पेश हुए और इलाज से फोड़े से पूरी तरह आराम मिल गया। इस पर नवाब ने पादरियों से खुश होकर ईनाम मांगने को कहा। पादरियों ने कहा उन्हें लखनऊ में 20 बीघे जमीन चाहिए। नवाब ने यह ख्वाहिश पूरी की।
गोलागंज के पास 20 बीघे जमीन खरीदकर ईसाई पादरियों को दे दी गई। यहां उन्होंने झुग्गियां डालकर 'पादरी टोला नाम से एक बस्ती बसाई। इसके बाद 1857 की गदर से पहले यहां दो बार और मिशनरियों द्वारा जमीन खरीदी गई। पादरी टोला बस्ती के निशान अब बाकी नहीं हैं। कुछ दस्तावेजों में जिक्र जरूर मिलता है। लखनऊ में सबसे पहले चर्च रेजीडेंसी, पादरी टोला और मडिय़ांव छावनी में बने, लेकिन 1857 की क्रांति में यह गिरजाघर जंग में तोडफ़ोड़ का शिकार हो गए। जब अंग्रेजों ने दोबारा शहर पर अपनी प्रशासनिक पकड़ बना ली तो नए सिरे से गिरजाघरों का निर्माण शुरू हुआ। इस समय मेरी सीमा में 50 से अधिक चर्च हैं, लेकिन क्रिसमस के दिन हजरतगंज के कैथेड्रल में जो रौनक उमड़ती है, उसमें हर धर्म, जाति, मजहब का व्यक्ति शरीक होता है। नये साल के जश्न तक यह क्रिसमस का जश्न चलता रहता है।
रेजीडेंसी में बना था पहला गिरजाघर : सबसे पहला गिरजाघर रेजीडेंसी में अंग्रेजों ने बनवाया था। गौथिक शैली में लखौरी ईंटों से 1810 में सेंट मैरीज चर्च नाम से बना यह भारत का तीसरा आंग्लिकन चर्च था। क्रांतिकारियों से युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने इसी चर्च में रसद के साथ शरण ली थी। इसी लड़ाई में यह चर्च बर्बाद हो गया और सिर्फ अवशेष ही रहे। पादरी टोला में जो चर्च बना वह 1824 में ईसाइयों का लखनऊ में स्टेशन बन जाने के सालभर बाद कंप्लीट हुआ। इसे सेंट मैरीज चैपल के नाम से जाना गया। इसके अलावा कैंपवेल रोड पर 1862 में बना यूनाइटेड चर्च था, सआदतगंज में मेथोडिस्ट चर्च, कैंट में 1908 में बना सेंट मंगूस चर्च था, अब यह चर्च वजूद में नहीं हैं।

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