टन-टन से लेकर टिक-टिक तक का सफर, कानपुर में घंटाघरों की रोचक कहानी और खास है इतिहास, यहां पढ़ें खास रिपोर्ट
अंग्रेजों के शासनकाल में औद्योगिक शहर कानपुर में मजदूरों की धड़कन घंटाघर अब यादें सहेजे हैं। इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गई उनकी कहानी भी बेहद रोचक है वो चाहे मुख्य घंटाघर हो या फिर लाल इमली कमला कल्ब और बिजली घर का घंटाघर हो।

कानपुर में घंटाघर...घंटाघर...घंटाघर, आइए घंटाघर, केवल एक सवारी की जगह है। जल्दी करिये। अरे कहां जा रहे हैं...आइए बस चलने ही वाले हैं। टेंपो-टैक्सी, ई-रिक्शा और साइकिल रिक्शा चालकों की ऐसी आवाज आपने भी सुनी ही होगी। इनके साथ बैठकर घंटाघर चौराहा तक गए होंगे। नौबस्ता, किदवईनगर, यशोदानगर, बड़ा चौराहा, मूलगंज, परेड, मेस्टन रोड, कलक्टरगंज, बारादेवी, गोविंदनगर चौराहे पर ऐसी आवाजें सुन रहे होंगे, लेकिन कम ही लोग जानते होंगे कि घंटाघर Kanpur Ghantaghar कैसे अस्तित्व में आया।
आइए थोड़ा पीछे चलते हैं। स्वाधीनता से पहले अंग्रेजों के शासन वाले दौर में जब घड़ी रखना-खरीदना हर किसी की सामर्थ्य में नहीं था, तब मिलों और मजदूरों के इस शहर में समय जानने के लिए सात घंटाघर बनाए गए। इन्हीं में एक कलक्टरगंज चौराहे पर स्थापित हुआ, जिसे बाद में घंटाघर चौराहा कहा जाने लगा। इन घंटाघरों से निकलने वाली टन-टन की गूंज पर ही तब शहर में हर कोई जागता, भागता, दौड़ता और काम करता था। पढ़िये शिवा अवस्थी रिपोर्ट...।
इस तरह घंटाघर अस्तित्व में आए
पूरब का मैनचेस्टर, उद्योगों की नगरी और औद्योगिक महानगर जैसी संज्ञा से देश भर में ख्याति पाने वाला कानपुर ऐतिहासिक व पौराणिक स्मृतियां भी सहेजे हैं। उस समय जब पूरे मोहल्ले व गांवों में घड़ी नहीं होती थी, तब अंग्रेजों ने कानपुर को आर्थिक राजधानी के तौर पर विकसित किया। यहां पर मिलों का जाल बिछाया। इन मिलों और मुख्य बाजारों में काम करने वाले श्रमिकों को समय की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए घनी आबादी वाले क्षेत्रों में घंटाघर बनवाए।
इन्हीं की टन-टन पर चावल मंडी, कलक्टरगंज, हटिया, मूलगंज, मेस्टन रोड, चुन्नीगंज, कर्नलगंज, पुराना कानपुर, कुरसवां से लेकर बाकी क्षेत्रों के लोग व दुकानों-मिलों में काम करने वाले दिनचर्या तय करते थे। दिन, दोपहर, रात हो या सर्दी, गर्मी, बरसात। घंटाघर की टन-टन सही समय बताती थी। वर्तमान में भी ये घंटाघर मौजूद हैं, लेकिन टन-टन की आवाज नहीं सुनाई पड़ती। कारण, धीरे-धीरे समय बदला, आजादी के बाद हम समृद्धि की ओर बढ़े और तकनीक परवान चढ़ी, जिससे हर हाथ, घर, दुकान, वाहनों से लेकर मोबाइल फोन तक घड़ी की टिक-टिक पहुंच चुकी है।
142 साल पहले दो लाख रुपये में बना था पहला घंटाघर
First Ghantaghar Kanpur : अंग्रेज शासनकाल में लाल इमली मिल की स्थापना वर्ष 1876 में जार्ज एलन, वीई कूपर, गैविन एस जोन्स, डा. कोंडोन और बिवैन पेटमैन आदि ने मिलकर की थी। पहले यह मिल ब्रिटिश सेना के सिपाहियों के लिए कंबल बनाने का काम करती थी। तब इसका नाम कानपोर वुलन मिल्स था।
बाद में मिल परिसर में लाल इमली के पेड़ होने की वजह से इसका नाम लाल इमली पड़ा। यहां काम करने वाले मजदूरों को समय प्रबंधन को लेकर समस्या हुई तो मिल प्रबंधक गैविन एस जोन्स ने मिल के पूर्वी कोने पर ऊंची मीनार बनवाकर वर्ष 1880 में घड़ी लगवाई थी, जिसकी सुइयां इंग्लैंड से आयात की गई थीं। शहर का यह पहला 'क्लाक टावर' लगभग दो लाख रुपये में बना था। छह महीने में बनकर तैयार हुए इस टावर को देखने दूर-दूर से लोग आते थे।
जब अंग्रेज अधिकारी ने 30 हजार का सहयोग कर बनवाया
शहर में धीरे-धीरे मिलों और मजदूरों की संख्या बढ़ी। लाल इमली मिल में निर्मित टावर की आवाज दूर तक सुनने में परेशानी हुई। इस पर अंग्रेज अधिकारियों के सामने मजदूरों व मिल प्रबंधकों ने बात रखी। तय हुआ कि दूसरा टावर ऐसी जगह बनाया जाए, जहां से मोहल्लों तक भी आवाज पहुंच सके। इस पर फूलबाग स्थित किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) हाल में दूसरा टावर स्थापित किया गया। इसका निर्माण वर्ष 1911 में अंग्रेज अधिकारी बिलक्रिस्ट ने 30 हजार रुपये का सहयोग देकर कराया था। 11 जून, 1912 को जैमन कोबोल ने इस घंटाघर का शुभारंभ किया था।
13 साल बाद कोतवाली भवन में हुआ निर्माण
Kanpur Ghantaghar : लाल इमली और फूलबाग के क्लाक टावरों के शुरू होने से आसपास के तमाम मोहल्लों व मिलों के मजदूरों को मदद मिलने लगी। इतिहासकार बताते हैं, इसके बाद तीसरा टावर कानपुर कोतवाली के भवन में स्थापित किया गया, क्योंकि उस समय तक इधर भी आबादी तेजी से बढ़ी।
दूसरा टावर बनने के 13 साल बाद जनरल राबर्ट विंट ने टावर निर्माण के लिए बिजलीघर के भवन को चुना, लेकिन कुछ अधिकारियों ने विरोध कर दिया। इस पर वहां का निर्माण टालकर 1925 में कोतवाली का क्लाक टावर बनाया गया। 17 जुलाई, 1929 को इसका शुभारंभ कर दिया गया।
दो साल बीतते ही बिजलीघर में बना चौथा घंटाघर
केवल दो साल के अंतराल के बाद ही अंग्रेज अफसरों ने फिर घंटाघर बनवाने की दिशा में कदम बढ़ाए। इस बार वर्ष 1931 में कानपुर इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन की इमारत (अब पीपीएन मार्केट बिजलीघर) में शहर का चौथा घंटाघर बनाया गया। पहले विरोध में आए इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन के अधिकारियों को मनाने के बाद यह हो सका। इस घंटाघर के निर्माण में 80 हजार रुपये का खर्च आया था। इसकी शुरुआत 1932 में हो गई थी।
कमला टावर बनवा किया था अंग्रेजों के खिलाफ काम
फीलखाना स्थित शहर के पांचवें घंटाघर का निर्माण किसी अंग्रेज ने नहीं, बल्कि भारतीय उद्यमी समूह ने कराया था। यह दिलचस्प इतिहास अब भी कमला टावर के रूप में मौजूद है। वर्ष 1934 में जेके उद्योग समूह के मालिक लाला कमलापत सिंहानिया ने अपने समूह के मुख्यालय पर इस टावर का निर्माण कराया था।
बताते हैं, कमलापत सिंहानिया ने इस टावर की घड़ी को मात्र एक दिन की कमाई से ही स्थापित करा दिया था। स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर में एक भारतीय की ओर से घंटाघर का निर्माण कराया जाना ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह जैसा था। इसको लेकर चर्चा भी हुई।
यह घंटाघर लिए है कुतुबमीनार की झलक
तब के कलक्टरगंज और घंटाघर निर्मित होने के बाद इसी नाम से पहचाना जा रहा घंटाघर चौराहा के टावर की संख्या शहर स्तर पर छठवीं थी। इसके निर्माण की शुरुआत वर्ष 1932 में हुई थी। इसकी बनावट के कारण यह दिल्ली की कुतुब मीनार जैसा दिखता है।
इससे पहले निर्मित सभी घंटाघर किसी न किसी भवन में ही बनाए गए, लेकिन यह एकमात्र ऐसा क्लाक टावर है, जो अलग बना हुआ है। इसका निर्माण पांच लाख रुपये की लागत से अंग्रेज जार्ज टी बुम ने कराया था, जो तीन साल बाद 1935 में शुरू हो सका था।
स्वरूप नगर बाजार में बना आखिरी घंटाघर, नहीं लग पाईं सुइयां
जब देश की स्वाधीनता को लेकर वीर बलिदानी अंग्रेजों के विरुद्ध तनकर खड़े थे। आंदोलन की धार तेज ही होती जा रही थी। उसी दौरान स्वरूप नगर बाजार में शहर के सातवें और अंतिम घंटाघर का निर्माण वर्ष 1946 में शुरू हुआ। इस टावर में घड़ी तो बन गई, लेकिन सुइयां नहीं लग पाईं। इसकी वजह आजादी की लड़ाई के दौरान कई बार इसका काम रुकना रहा। इसका निर्माण लार्ड विलियम ने कराया था।
पिता के बाद बेटे ने की देखरेख
लाल इमली में निर्मित घंटाघर की देखरेख का जिम्मा अंग्रेजों ने कभी बाबू मैसी को दिया था। वह इसकी देखरेख आजादी के बाद तक करते रहे। उनकी लाल इमली के पास ही परेड चौराहे के पास छोटी सी घड़ी की दुकान थी। एफएम कालोनी में क्वार्टर में रहते थे। उनके पुत्र डेविड मैसी को वर्ष 1979 में इसकी देखरेख का जिम्मा मिला, तब उनकी उम्र 14 साल रही होगी। कक्षा नौ में पढ़ते थे।
यहां भी अंग्रेजों की बनाई घड़ी
अनवरगंज रेलवे स्टेशन के भवन का निर्माण वर्ष 1896 में कराया गया था। उसी समय यहां पर घड़ी भी लगाई गई थी। 126 साल पुरानी घड़ी का स्थान अब भी स्टेशन पहुंचने पर सामने ही दिखता है। वर्ष 2018 में यह घड़ी खराब होने पर इसे ठीक कराने के लिए भेजा गया। टेलीकाम विभाग के लोगों से फिर घड़ी के बारे में पूछा गया तो अब तक पता नहीं चला।
कानपुर में कब कहां बने घंटाघर
- 1880 : लालइमली
- 1912 : केईएम हाल फूलबाग
- 1929 : कानपुर कोतवाली
- 1931 : कानपुर इलेक्ट्रिसिटी कारपोरेशन की इमारत बिजलीघर
- 1932 : कलक्टरगंज चौराहा (अब घंटाघर)
- 1934 : जेके उद्योग समूह
- 1946 : स्वरूप नगर बाजार
-शहर में अंग्रेजों के शासनकाल में स्थापित घंटाघर देखने लायक व ऐतिहासिक हैं। इनकी बनावट ऐसी है कि सुइयों के चलने के साथ ही घंटा बजता था। ये सुइयां तब विदेश से मंगवाई गई थीं। धीरे-धीरे कई जगह घंटाघरों में घड़ियां बंद हो गईं। कुछ प्रयास किए गए, लेकिन वर्तमान दौर में हर हाथ में मोबाइल फोन पर घड़ी व ऐतिहासिक धरोहरें सहेजने की जिजीविषा न होने से यह खराब हैं। -डा. समर बहादुर सिंह, डीएवी कालेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष।
घंटाघरों को ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सहेजना चाहिए। इसके लिए पुरातत्व विभाग व जिला प्रशासन को आगे आना होगा। कई बार इसके लिए पत्र भी लिखे हैं। एक बार फिर से इसको लेकर प्रयास करेंगे, ताकि इन धरोहरों को भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचाये रखा जा सके।
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