नेहरू युग में नियति, नीति और नीयत का संघर्ष, जब गांधीवाद को ही कर दिया अप्रासंगिक, यहां पढ़ें खास आलेख
भारत में 1947 से लेकर 1962 तक नेहरू युग कहा जाता है इन 15 वर्षों में नया भारत उठ खड़ा हुआ था। देश की यह ऐतिहासिक यात्रा कैसी थी? इस प्रश्न पर इतिहासकारों को निष्पक्ष होकर विचार करना चाहिए।

15 अगस्त, 1947 को खंडित स्वतंत्रता स्वीकारने के बाद भारत के सामने सबसे बड़ा सवाल आर्थिक विकास का था। बातें ग्राम स्वराज की हो रही थीं, आशा स्वावलंबन की थी मगर नई सरकार ने गांधीवाद को ही अप्रासंगिक कर दिया। नतीजतन, पूंजीवाद पोषित समाजवादी सरकार का वह अटपटा माडल सामने आया जिसकी नीति धनकुबेरों ने तय की थी और नियति विदेशी शक्तियों ने। नेहरू युग में भारत के स्वावलंबन को परखता हितेंद्र पटेल का आलेख...
1947से 1962 के कालखंड को नेहरू युग कहा जाता है। पंडित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु 1964 में हुई, लेकिन उनके हाथ में पूरी राजनीतिक शक्ति और माहात्म्य 1962 के भारत-चीन युद्ध के साथ बहुत कम हुआ, इसमें संदेह नहीं। चीन के हाथों शिकस्त के बाद जवाहर लाल नेहरू अचानक बूढ़े, लाचार और राजनीतिक रूप से कमजोर हो गए। उनकी और कांग्रेस दोनों की छवि इस युद्ध के बाद धूमिल हुई थी। कांग्रेस की गिरती साख को नियंत्रित करने के लिए ही जवाहर लाल नेहरू को कामराज प्लान जैसी पहल करनी पड़ी थी। इन 15 वर्षों में एक नया स्वाधीन भारत उठ खड़ा हुआ, जिसने देश विभाजन का दर्द झेला, खाद्यान्न के गंभीर संकट को सहा, भारतीय गणतंत्र के उदय को देखा और एक नई लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया के उद्भव को देखा। एक साथ देश के सभी वयस्क नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार मिल गए।
सवालों पर विचार का समय
देश की यह ऐतिहासिक यात्रा कैसी थी? इस प्रश्न पर इतिहासकारों को निष्पक्ष होकर विचार करना चाहिए। देश में उस समय जिन नीतियों के साथ देश की सरकार काम कर रही थी, उसमें क्या सकारात्मक था जिसके कारण देश अपने लोकतंत्र की रक्षा कर सका (जो कई अन्य देश नहीं कर सके) और क्या सही नहीं हुआ? जिसके कारण देश की जनता को वह नहीं मिल सका जिसकी आशा में देश के लोग थे? इन प्रश्नों पर विचार करने के प्रसंग में दो-तीन बातें मुख्य हैं। पहली बात- देश की बागडोर कैसे नए भारत के नेताओं को मिली? दूसरी, क्या देश में सरकार की नीति के मामले में जवाहर लाल नेहरू से अलग विचार करने वाले लोग थे? और तीसरी, क्या यह कहना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की नीतियों पर चलकर भारत आत्मनिर्भरता की राह पर बढ़ सका?
सत्ता पर अंदरूनी संघर्ष
यह सही है कि 15 अगस्त, 1947 को भारत को अंग्रेज छोड़ गए, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही यह लगभग तय हो चुका था कि अंग्रेज भारत छोड़कर जाएंगे। 1942 से ही कुछ लोग यह कह रहे थे कि अंग्रेजों को यहां से जाना ही पड़ेगा। एम.एन. राय और उनके अनुयायी इसी आधार पर 1942 में महात्मा गांधी द्वारा आंदोलन शुरू करने के पक्ष में नहीं थे। उनको लगता था कि दो महाशक्तियों के आपसी टकराव से दोनों कमजोर होंगे और जब अंग्रेज कमजोर होंगे तब आंदोलन करने में आसानी होगी।
दरअसल कांग्रेसी नेतृत्व 1945 से ही इस बात पर विचार करने में लगा हुआ था कि स्वतंत्रता के बाद स्वाधीन भारत को किस तरह से अपनी नीतियां बनानी होंगी। अब चर्चा इस बात पर हो रही थी कि अंग्रेज कैसे, कब और किसको शासन की बागडोर देकर जाएंगे। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और कम्युनिस्ट अपनी-अपनी तरह से आगे की रणनीति तय कर रहे थे। देखा जाए तो कांग्रेस और मुस्लिम लीग का झगड़ा इसी बात को लेकर था कि जब अंग्रेज जाएंगे तो सत्ता में कौन और किस तरह से रहेगा। जब लीग को लगा कि सत्ता केंद्रीय सरकार के हाथ में रहेगी और कांग्रेस संघीय ढांचा स्वीकार नहीं करेगी, तब लीग को देश से अलग होने का विकल्प जरूरी लगा। कैबिनेट मिशन प्लान लीग की यही आशंका और कांग्रेस द्वारा सत्ता केंद्रीय सरकार के हाथ में रखने की जिद ही था, इसमें संदेह नहीं।
आखिरकार दोनों ने सत्ता अपने हाथों में पाने के लिए देश के बंटवारे को स्वीकार कर लिया। बंटवारे के लिए लाइन खींचने का काम रेडक्लिफ कर चुके थे, अंतरिम सरकार पंडित नेहरू की थी और देश र्में ंहदू-मुसलमानों के बीच खूनी लड़ाई चल रही थी। सरकार कहीं अधिक और कहीं कम सक्रिय हो रही थी। इस बात को मानने वाले लोग लाखों में थे कि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू मुसलमानों की तरफ से ही बोलते-सोचते हैंर्, ंहदू हितों की उन्होंने बलि दे दी। शिमला, जालंधर, दिल्ली, बरेली और लखनऊ जैसे शहर में ऐसे लोग आकर बस गए, जिनका सब कुछ सतलज के उस पार था। ठीक उसी तरह सिंध से लोग भागे और इस पार आकर उनकी जानें बचीं। पूर्वी पाकिस्तान की कहानी भी कम दर्दनाक नहीं है, लेकिन उस पर इतिहासकारों की नजर कम ही जाती है।
नीति निर्माण के तीन प्रस्ताव
आगे बढ़ते हुए हम इस बात की समीक्षा करें कि जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्र भारत के लिए जिन राजनीतिक और आर्थिक नीतियों को लेकर चले, उनका सच क्या है। स्वतंत्र भारत को किस तरह की आर्थिक नीति का अनुसरण करना चाहिए, इसको लेकर तीन तरह के प्रस्ताव थे। पहला प्रस्ताव गांधीवादियों की ओर से आया था। इसमें लघु उद्योग, स्थानीयता और विकेंद्रीकरण पर जोर था। जिसके लिए अधिक धन और उन्नत तकनीकी ज्ञान की जरूरत नहीं थी। यह विकास का माडल नहीं था बल्कि इसमें स्थानीय संसाधनों के आधार पर आत्मनिर्भरता का संकल्प था। दूसरा प्रस्ताव एम. एन. राय का था। यह आधुनिक विकास का माडल पेश करता था और इसमें राजनीति के केंद्रीकृत स्वरूप के स्थान पर एक ऐसा माडल था जिसमें संसाधनों का नियंत्रण स्थानीय लोगों के प्रतिनिधियों का था। तीसरा माडल देश के सबसे बड़े पूंजीपतियों के दिमागों ने मिलकर तैयार किया था।
इसी ने 1947 से 1962 की नेहरू सरकार को सबसे अधिक प्रभावित किया था। इसके साथ बिडला, टाटा, पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, वालचंद हीराचंद दोसी और मथाई जैसे लोग जुड़े थे। मथाई टाटा समूह के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वायसराय की कैबिनेट के साथ जुड़ने के लिए उन्होंने टाटा समूह को कुछ समय के लिए छोड़ा था। जनवरी 1944 में इन लोगों द्वारा तैयार प्लान की घोषणा हुई जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि युद्ध के बाद एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाएगा। इसे बांबे प्लान के नाम से जाना जाता है। इसमें कहा गया कि अगले 15 साल में देश की जनता की आर्थिक अवस्था को उन्नत बनाने के लिए, उनकी आय को दोगुना करने के लिए, बड़ी पूंजी के निवेश के साथ औद्योगीकरण करना होगा। इसमें अनुमानत: करीब 10 हजार करोड़ का निवेश होगा जिसे उद्योग, कृषि, संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सामाजिक गतिविधियों पर खर्च करना होगा। इसके पहले चरण में ऊर्जा, खनन, मेटलर्जी, इंजीनियरिंग, केमिकल, सीमेंट आदि में निवेश करना होगा। ये देश के विकास के आर्थिक आधार के रूप में काम करेंगे।
गांधीवाद पर भारी पड़ा पूंजीवाद
बाद के वर्षों में घटित हुए कार्यों की समीक्षा करने पर दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने टाटा-बिड़ला के प्लान को ही स्वीकार किया, महात्मा गांधी या राय के प्लान को नहीं। बड़ी पूंजी के साथ बड़े उद्योगों के द्वारा उत्पादन बढ़ाने का विकल्प उनको देशहित में लगा। जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी के मानसपुत्र थे, लेकिन आर्थिक विकास के मुद्दे पर उनको लगा कि महात्मा गांधी के सुझाए हुए विकल्प से बात नहीं बनेगी। इस मामले में कोई भी बड़ा नेता उस समय जवाहर लाल नेहरू के विरुद्ध नहीं माना जा सकता है। एक अन्य विचार के रूप में जवाहर लाल नेहरू के साथ धर्मानंद कोसांबी के सैद्धांतिक मतभेद की चर्चा भी समीचीन होगी। यह एक कम चर्चित अध्याय है कि कोसांबी जैसे माक्र्सवादी विचारक ने भारत में अमेरिकी सहयोग से बड़ी पूंजी के निवेश और उनकी तकनीकी की मदद से बड़ी परियोजनाओं और परमाणु शोध प्रकल्प के नेहरू सरकार की नीति का समर्थन नहीं किया था।
कोसांबी चीन में हो रहे प्रयासों से परिचित थे और उनको लगता था कि अमेरिकी विज्ञान, उनकी पूंजी और तकनीकी ज्ञान पर निर्भर प्रकल्पों के स्थान पर भारत को ऐसी लघु तकनीकी परियोजनाओं पर ध्यान देना चाहिए जो भारत की जरूरतों के हिसाब से हों। कोसांबी चाहते थे कि भारत सौर ऊर्जा और लघु परियोजना (जिसमें लघु परमाणविक परियोजना शामिल थी) को प्राथमिकता दे। स्वतंत्र भारत की अमेरिकी पूंजी, सहयोग और वैज्ञानिक तकनीकी सहयोग पर निर्भरता इस तरह बन गई कि उसके बिना भारत आगे बढ़ ही नहीं सकता था। चीन भारत के मुकाबले अधिक आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा, यह एक सच्चाई है।
पराए भरोसे कैसी आत्मनिर्भरता
आज हम स्वाधीनता के बाद के इस दौर के बारे में इस समीकरण को समझने की कोशिश करें कि एक ही समय में दो देश अपने जिम्मे स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की ओर बढे़। भारत के पास पूंजीपति देशों से मदद की आस थी और हमारे प्रतिनिधि अमेरिका में लगातार मदद के लिए प्रयास कर रहे थे ताकि पूंजी, तकनीकी ज्ञान और अन्न मिल सके। दूसरी ओर चीन था जो अपने संसाधनों और जरूरतों को ध्यान में रखकर आत्मनिर्भर बन रहा था। यह बात सही है कि भारत में लोकतंत्र की व्यवस्था थी और चीन में लोकतंत्र नहीं था। पर लोकतंत्र का लाभ लेकर अपना विकास करने में वाकई सक्षम कौन हुए? यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है। देश में विकास हुआ, मगर कुल मिलाकर देश स्वावलंबी होने की दिशा में चाह करके भी चीन के मुकाबले में कमजोर ही सिद्ध हुआ। आज हम यह कहें कि पराए भरोसे आत्मनिर्भरता -दुराशामात्र तो यह गलत नहीं होगा। अपने संसाधनों और अपने संकल्प से ही कोई राष्ट्र आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा सकता है। (लेखक रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हैं)
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