Birthday Special: जब शहर में टूटा था नीरज का दिल, 'कानपुर के नाम' में उड़ेला था अपना दर्द
गीतकार पद्मश्री गोपालदास नीरज की साहित्य के क्षितिज पर अमिट छाप का भुला पाना मुश्किल है। एक दौर ऐसा भी था जब कानपुर के लोगों के व्यवहार से उनका दिल टूट गया था और उन्होंने कविता में बिखरी यादों को समेटने का प्रयास किया था।

कानपुर, [राजीव सक्सेना]। इटावा में जन्मे पद्मश्री गोपालदास नीरज ने कानपुर में नौकरी की। उन्होंने साहित्य के क्षितिज पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उस शून्य को भर पाना मुश्किल है। कानपुर में संघर्ष के दिनों को नीरज कभी भूल नहीं पाए। एक दौर ऐसा भी था जब कानपुर के लोगों के व्यवहार से उनका दिल टूट गया था। उनके गीत जहां प्रियतमा के हृदय तक पहुंचते थे वहीं आम आदमी की समस्याओं से भी खुद को जोड़ते थे। उन्होंने कविता 'कानपुर के नाम' में इस शहर को लेकर एक-एक मोहल्ले में बिखरी हुई यादों को समेटने का प्रयास किया।
पद्मश्री गोपालदास नीरज का जीवन चक्र इटावा से शुरू हुआ जो दिल्ली, कानपुर, मुंबई और अलीगढ़ तक जा पहुंचा। उनके गीतों की यात्रा में कानपुर एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा जिसने उनके गीतों को दर्द दिया और उसी दर्द ने मुंबई के लिए रास्ता खोला। चार जनवरी 1925 को इटावा में जन्मे गोपालदास नीरज कानपुर आए तो डीएवी कालेज में लिपिक हो गए। कुरसवां में रहने की वजह से उनके गीतों तक में इसका जिक्र आया।
'कुरसवां की वह अंधेरी से हयादार गली, मेरे गुंजन जहां पहली किरन देखी थी। मेरी बदनाम जवानी के बुढ़ापे ने जहां जिंदगी भूख के शोलों में दफन देखी थी।' उनके गीतों में कानपुर सिर्फ यहीं नहीं सिमटता। फूलबाग और तिलकहाल उनका अक्सर जाना होता था। इन दोनों से प्यार उनकी कविता में भी नजर आया। 'फर्श पर तेरे तिलक हाल के अब भी जाकर, ढीठ बचपन मेरे गीतों का खेल आता है। आज भी तेरे फूलबाग की हर पत्ती पर ओस बनके मेरा दर्द बरस जाता है।' वह जब चाहे साइकिल उठाके मेस्टन रोड पर निकल जाते थे। इसीलिए वह मेस्टन रोड को भी अपनी कविता से जोडऩा नहीं भूले। 'बात यह किंतु सिर्फ जानती है मेस्टन रोड, ट्यूब कितने मेरी साइकिल ने बदले हैं... पंक्तियां साफ बताती हैं कि यहां उनका आना कितना होता था।
इतना सबकुछ होने के बाद भी 'कानपुर के नाम' में आखिरी कुछ पंक्तियों ने यह भी दर्शाया कि वह यहां किस कदर निराश और नाराज थे। उन्होंने लिखा था- 'साल भर बाद बुलाया है, तूने आज मुझे, चाहे कुछ तू कहे, यू न मैं आ पाऊंगा, पालकी कवि की उठाना तुझे जब आ जाए, मुझको लिखना मैं तुझे दौड़ के मिल जाऊंगा।'
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