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    ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह को दिलाई थी कानूनी वैधता, पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी किताब के अंश...

    By Abhishek AgnihotriEdited By:
    Updated: Sun, 24 Jul 2022 08:31 PM (IST)

    ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दिलाई थी। विधवा विवाह करना शास्त्र सम्मत है या शास्त्रविरुद्ध इसकी मीमांसा करते हुए प्रथम हमें यह विचार करना आवश्यक है। उनके द्वारा रचित उपन्यास विधवा विवाह से जुड़े अंश को हम आपको बता रहे है।

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    ईश्वरचंद्र विद्यासागर के उपन्यास विधवा विवाह के अंश पढ़िए।

    विधवा पुनर्विवाह को कानूनी वैधता प्रदान कराने वाले ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने लोकमत तैयार करने के लिए न सिर्फ भावनात्मक पहलुओं को सामने रखा, बल्कि धर्मशास्त्रों में बताई गई मान्यताओं की गूढ़ता को भी समझाया। समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनकी लेखनी का अंश...

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    विधवा विवाह करना शास्त्र सम्मत है या शास्त्रविरुद्ध, इसकी मीमांसा करते हुए, प्रथम हमें यह विचार करना आवश्यक है कि जिन शास्त्रों के सम्मत होने पर विधवा विवाह करने योग्य कर्म मान लिया जाएगा या जिन शास्त्रों के विरुद्ध होने पर यह न करने योग्य कर्म सिद्ध होगा, वे शास्त्र क्या हैं? व्याकरण, काव्य, दर्शन आदि शास्त्र इस प्रकार के शास्त्र नहीं हैं।

    धर्मशास्त्र नाम से कहलाने वाले शास्त्र ही सर्वत्र इस प्रकार की बातों के लिए शास्त्र माने जाते हैं। धर्मशास्त्र का प्रतिपादन याज्ञवल्क्य संहिता इस प्रकार है कि ‘मनु, अत्रि, विष्णु हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तंब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख-लिखित, दक्ष, गौतम, शातातप, वशिष्ठ ये धर्मशास्त्रकर्ता हैं।’ इनके बनाए शास्त्र ही धर्मशास्त्र हैं। मनु धर्मशास्त्र में मीमांसा की गई है कि युगानुसार मनुष्य की शक्ति का हृास हो जाने के कारण सत्ययुग के धर्म और हैं।

    त्रेता युग के धर्म और, द्वापर युग के धर्म और, कलियुग के धर्म और हैं। साथ ही त्रेता युग के लोगों में सत्ययुग के धर्म, द्वापर युग के लोगों में सत्य और त्रेता युग के धर्म पालन करने का सामथ्र्य नहीं है। कलियुग के लोगों में सत्य, त्रेता और द्वापर युग के धर्म पालन करने का सामथ्र्य नहीं है।

    कोई-कोई महाशय यह आपत्ति उठाते हैं कि पराशर संहिता में कलियुग के ही धर्मों का निर्णय नहीं किया गया, अन्यान्य युगों के धर्म भी निरूपित किए गए हैं। इस आपत्ति का तात्पर्य यह है कि यदि इस बात का निर्णय हो जाए कि पराशर संहिता में अन्यान्य युगों का धर्म भी निरूपित किया गया है।

    तब पराशर ने विधवा आदि स्त्रियों के पुनर्वार विवाह का जो विधान किया है वह कलियुग धर्म न रहकर युगों का धर्म हो जाएगा। किंतु यह स्पष्ट रूप से दिखलाया गया है कि केवल कलियुग का धर्म निरूपण करना ही पराशर संहिता का उद्देश्य है इसलिए पराशर संहिता में कलि के अतिरिक्त और युगों के धर्मों का निरूपण होना किसी प्रकार संभव नहीं।

    प्रतिवादी महाशय ने जितने शास्त्र प्रमाण दिखला-दिखलाकर विधवा विवाह शास्त्र अनुकूलता को खंडन करने का प्रयत्न किया था, उन सब शास्त्रों के प्रमाणों का यथार्थ अर्थ और ठीक-ठीक तात्पर्य यहां यथाशक्ति दिखाया गया है। अब विधवा विवाह को प्रचलित करने के विषय में उनकी एक आशंका है, उस आशंका की भी यथाशक्ति आलोचना करना आवश्यक है।

    प्रतिवादी महाशय कहते हैं कि विधवा विवाह यद्यपि शास्त्र सम्मत है तथापि देशाचार के विपरीत होने की आपत्ति उठाई जा सकती है। यही आशंका उठाकर मैंने अपनी प्रथम पुस्तक में प्रमाण दिखलाकर यह सिद्धांत दिया था कि शास्त्र का विधान होने पर ही देशाचार को प्रमाण माना जाना चाहिए। प्रथम पुस्तक में मैंने एक वचन दिखलाकर देशाचार को शास्त्र की अपेक्षा दुर्बल प्रमाण बतलाया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उससे भी प्रतिवादी महाशय संतुष्ट नहीं हुए। इसलिए इस विषय में दूसरा प्रमाण दिखलाया जाता है।

    ‘धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:।

    द्वितीयं धर्म शास्त्रं तु तृतीयं लोक संग्रह:।।’

    (महाभारत अनुशासन पर्व)

    जो लोग धर्म को जानने की इच्छा करते हैं, उनके लिए वेद ही सर्वप्रधान प्रमाण है। दूसरे नंबर पर धर्मशास्त्र और तीसरे नंबर पर लोकाचार प्रमाण है।

    यहां देशाचार सबसे अधिक दुर्बल प्रमाण बतलाया गया है। वेद और स्मृति देशाचार की अपेक्षा प्रबल प्रमाण हैं। इसलिए देशाचार के आधार पर उसकी अपेक्षा अधिक प्रबल प्रमाण रूप स्मृतियों की व्यवस्था में अनास्था दिखलाना युक्तिसंगत नहीं हो सकता।

    ‘न यत् साक्षाद्विधयो न निषेधा: श्रुतौ स्मृतौ।

    देशाचार कुलाचारै स्तत् धर्मो निरूप्यते।।’

    (स्कंदपुराण)

    जहां वेद में अथवा स्मृति में स्पष्ट विधान अथवा स्पष्ट निषेध नहीं रहता, उस स्थान में देशाचार और कुलाचार के अनुसार धर्म निरूपण किया जाता है। देखिए, यहां स्पष्ट रूप में बतलाया है कि जिस स्थान में शास्त्र का विधान अथवा निषेध नहीं है, उसमें देशाचार प्रमाण है, सुतरां देशाचार देखकर शास्त्र के विधान में अश्रद्धा दिखलाना सर्वथा न्यायविरुद्ध है।

    (ईश्वरचंद्र विद्यासागर के उपन्यास ‘विधवा विवाह’ से साभार) 

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