Durga Puja 2022: कानपुर में होता महामाई का गुणगान और गली-गली दिखता 'बंगाल', यहां पढ़ें दुर्गा पूजा का इतिहास
कानपुर में दुर्गा पूजा का सिलसिला नवरात्रि की पंचमी से शुरू होकर नवमी तक चलता है यहां करीब 350 जगह पूजा पंडाल सजते हैं। इन दिनों पंडालों में बंगाल का नजारा दिखाई देता है और भक्तों की कतार लगती है।

Durga Puja 2022 : अंग्रेजों के शासनकाल में तब की व्यापारिक राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से कानपुर के तार जुड़े तो वहां के कई परिवार कानपुर आ गए। धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ी। 158 साल पहले माल रोड स्थित एबी विद्यालय में पहली बार 12 दोस्तों ने दुर्गा पूजा महोत्सव का आयोजन किया। इसके बाद कारवां यूं बढ़ा कि आज शहर की गली-गली में बंगाल नजर आता है। पढ़िये शिवा अवस्थी और अंकुश शुक्ल की खास रिपोर्ट...।
कानपुर शहर में बंगाली रीति-रिवाज के तहत शहर में कभी इक्का-दुक्का दुर्गा महोत्सव पंडाल सजते थे। मां भगवती के अलौकिक स्वरूप के दर्शन को दूर-दराज के गांवों तक से लोग पहुंचते थे। धीरे-धीरे बंगाली समाज का दायरा बढ़ा। बंगाल से परिवार आए और पंडालों की संख्या बढ़ी। सामाजिक सरोकारों में सजग अपने शहर के लोग भी आगे आए।
अब शक्ति की भक्ति के मंत्र और जयकारे गूंजते हैं। मान्यता है कि मां अपने पूरे परिवार के साथ नवरात्र के इन्हीं दिनों में मायके आती हैं। ऐसे में भला कौन होगा, जो घर आई बेटी की आवभगत में कोई कसर छोड़े। दुर्गा पूजा षष्ठी तिथि से मां की आराधना से शुरू होकर नवमी तक संधि पूजन, सिंदूर खेला, बोधन पूजन, पुष्पांजलि, कुमारी पूजा और ढाक की थाप पर बंगाली नृत्य के साथ संपन्न होती है।
अब 350 जगहों पर सजते हैं दुर्गा पूजा पंडाल
आज 350 से ज्यादा दुर्गा पंडालों में महिषासुर मर्दिनी के रूप में मां विराजती हैं। इन आस्था के केंद्रों पर प्रतिदिन हजारों भक्त दर्शन-पूजन को पहुंचते हैं। मालरोड स्थित एबी विद्यालय से शुरुआत के बाद अब डीएवी लान, मोतीझील, चकेरी के कालीबाड़ी मंदिर, शास्त्रीनगर, किदवईनगर, फूलबाग, मोतीझील, श्याम नगर, अर्मापुर, बाबूपुरवा, काकादेव, पांडुनगर, ओईएफ, सूटरगंज, कृष्णा नगर से लेकर शहर के बाहरी हिस्सों तक में पंडाल सजते हैं और महामाई के जयकारे गूंजते हैं।
डीएवी लान में 103वां दुर्गा पूजन महोत्सव
श्रीश्री बारवारी दुर्गा पूजा माल रोड के संयुक्त सचिव अमित कुमार मित्रा बताते हैं, मालरोड का दुर्गा पंडाल शहर के प्राचीन पंडालों में से एक है। बारवारी दुर्गा पूजा का मतलब घर-घर में होने वाली पूजा। यहां देवी दुर्गा की 10 भुजाओं वाली प्रतिमा के सामने पहुंचते ही भक्तों का सिर आशीर्वाद पाने के लिए स्वयं झुक जाता है। चार दिवसीय पूजन में मां अपने पूरे परिवार के साथ मायके आती हैं। डीएवी लान में इस बार 103वां दुर्गा पूजन महोत्सव हो रहा है।
समिति के सचिव राजा बासु बताते हैं कि श्री श्री सार्वजनिक दुर्गा पूजा समिति पहले केपीएम हास्पिटल के पीछे पार्क में पूजा पंडाल सजाती थी। कुछ वर्षों तक फूलबाग मैदान में आयोजन हुआ। श्रीश्री चकेरी कालीबाड़ी मंदिर के संयुक्त सचिव दीपांकर भट्टाचार्या ने बताया, मंदिर परिसर में कोलकाता के कारीगर महिषासुर मर्दिनी स्वरूप की प्रतिमा तैयार करते हैं। सामाजिक सरोकारों से बंगाली समाज जुड़ता है।
बेटी बचाओ, पर्यावरण और स्वदेशी की अलख
अमित बताते हैं कि दुर्गा पूजा पंडालों में केवल मां की भक्ति ही नहीं, बेटी बचाओ, पर्यावरण संरक्षण और स्वदेशी अपनाओ जैसे संदेशों की अलख भी जगाई जाती है। वर्तमान में लगभग आठ लाख परिवार दुर्गा पूजा से जुड़े हैं। तमाम घरों में भी मां को स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है।
कोलकाता के मूर्तिकार और वाराणसी के पंडित
शहर के ज्यादातर दुर्गा पूजा पंडालों में कोलकाता के कारीगरों की कला प्रतिबिंबित होती है। मां की प्रतिमा में चेहरे पर तेज दिखाने की कला बंगाली कलाकारों को बखूबी आती है। इससे उनका स्वरूप तेजोमयी हो जाता है। महीनों पहले से ही बंगाली कलाकार शहर में प्रतिमा बनाने पहुंच जाते हैं।
मालरोड स्थित एबी विद्यालय में कोलकाता के मूर्तिकार सुधीर बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने यह काम शुरू किया था, जो आज भी जारी है। आगमन से विदाई तक पूजा के लिए वाराणसी के पंडित आते हैं। देवी पालकी पर भक्तों के कंधों पर आती हैं और वैसे ही विदा होती हैं।
गंगा की बालू और मिट्टी का उपयोग : पांच पीढ़ी से मां की प्रतिमा बनाने वाले मूर्तिकार सुधीर बताते हैं कि पहले बंगाल की मिट्टी लाकर मां की मूर्ति तैयार की जाती थी। अब गंगा की बालू के साथ यहीं की मिट्टी का उपयोग कर प्रतिमा बनाई जाती है।
नवरात्रि पर तिथि और पूजन का महत्व
- पंचमी : मां के आगमन पर आनंदो मेला में बंगाली समाज की महिलाएं घरों से पकवान बनाकर मां के मंडप में लाकर उत्सव मनाती हैं।
- षष्ठी : बोधन पूजन (बेल के वृक्ष के नीचे बंगाली समाज की महिलाएं मां का आह्वान करती हैं) अर्थात इसी दिन पंडाल में मां की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा होती है।
- सप्तमी : सुबह विशेष स्नान-पूजन, जिसमें केले के तने को तालाब में स्नान कराकर मां शक्ति और गणेश भगवान की प्रतिमा के पास रखा जाता है।
- अष्टमी : पुष्पांजलि के साथ मां के महागौरी स्वरूप का पूजन। इसी दिन संधि पूजन में दीपोत्सव की तर्ज पर मां के दरबार में दीप जलाकर पूजन होता है। महाआरती में धुनुची नृत्य किया जाता है, जिसमें बंगाली समाज विशेष परिधान पहनकर ढाक की थाप पर नृत्य करता है।
- नवमी : मां के कन्या रूप का पूजन।
- दशमी : मां के दरबार में सिंदूर खेला का आयोजन। मां को पान और मिष्ठान का भोग। सिंदूर अर्पण, संधि पूजन और धुनुची नृत्य।
450 साल पुरानी है सिंदूर खेला की परंपरा
इतिहास के जानकार बताते हैं, सिंदूर खेला की परंपरा करीब 450 साल पुरानी है। बंगाली समाज में विजयादशमी के दिन सिंदूर खेला के साथ धुनुची नृत्य किया जाता है, जो प्राचीन परंपरा का एक हिस्सा है। मान्यता है कि धुनुची नृत्य से मां दुर्गा प्रसन्न होती हैं। विजयादशमी के दिन सुहागिन महिलाएं पान के पत्ते में सिंदूर लेकर मां दुर्गा को अर्पित करती हैं। मान्यता है कि मां दुर्गा जब मायके से विदा होकर ससुराल जाती हैं तो उनकी मांग सिंदूर से सजाई जाती है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।