60 साल पुरानी ‘जासूसी’ सैटेलाइट तस्वीरों से बनेगा गंगा संरक्षण का ब्लूप्रिंट, नमामि गंगे और IIT Kanpur की पहल
नमामि गंगे परियोजना के तहत आइआइटी कानपुर ने गंगा नदी के स्वरूप में आए बदलावों का अध्ययन किया है। 1965 की जासूसी उपग्रह तस्वीरों और 2018-19 की सैटेलाइट इमेजरी का उपयोग करके नदी के प्रवाह और भूमि उपयोग में हुए परिवर्तनों को दर्ज किया गया है। यह अध्ययन गंगा संरक्षण के लिए डेटा-आधारित योजना बनाने में सहायक होगा और भविष्य की नीतियों के लिए उपयोगी होगा।

जागरण संवाददाता, कानपुर। गंगा के अतीत से उसके भविष्य का रास्ता तय करने की दिशा में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने ऐतिहासिक पहल शुरू की है, जिसकी कमान आइआइटी, कानपुर के विज्ञानियों ने संभाली है। संस्थान के शोधकर्ताओं ने 1965 की अमेरिकी जासूसी उपग्रह श्रृंखला ‘कोरोना’ से ली गई दुर्लभ तस्वीरों को 2018-19 की अत्याधुनिक सैटेलाइट इमेजरी के साथ जोड़कर नदी के स्वरूप, प्रवाह और भूमि उपयोग में आए पांच दशकों के बड़े बदलाव दर्ज किए हैं।
यह अध्ययन गंगा संरक्षण और बहाली के लिए डेटा-आधारित ठोस खाका पेश करने की दिशा में मील का पत्थर माना जा रहा है। यह प्रोजेक्ट गंगा नालेज सेंटर का हिस्सा होगा जो गंगा से जुड़े शोध, पोर्टल और डाटासेट्स का भंडार है तथा नदी के पुनर्जीवन के लिए विज्ञानियों और शोध-आधारित निर्णय लेने में मदद करेगा।
कोरोना उपग्रह की तस्वीरों में गंगा अपनी प्राकृतिक अवस्था में लगभग अछूती नजर आती है, जबकि 2019 की तस्वीरें नदी की बदलती स्थिति को उजागर करती हैं। इन तस्वीरों में बैराज, तटबंध और शहरी विस्तार के कारण गंगा की स्वाभाविक बहाव गति पर रोक लगती हुई दिखाई देती है। यह तुलनात्मक अध्ययन अब नई उम्मीद का संचार करता है।
वैज्ञानिकों के पास अब ऐसे ठोस मानचित्र मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि किन क्षेत्रों में पुनर्स्थापन से गंगा अपनी पुरानी लय को फिर से पा सकती है और कहां भूमि उपयोग में सुधार से उसकी सेहत को बेहतर बनाया जा सकता है।
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन का यह अहम प्रोजेक्ट केवल नदी की भू-आकृति में हुए परिवर्तनों का वैज्ञानिक लेखा-जोखा नहीं तैयार कर रहा, बल्कि भूमि उपयोग और भूमि आवरण (एलयूएलसी) के तुलनात्मक अध्ययन से यह बता रहा है कि अतिक्रमण, तेजी से फैलता शहरीकरण और कृषि विस्तार किस तरह गंगा के प्राकृतिक संतुलन को चोट पहुंचा रहे हैं। इन आंकड़ों को आधार बनाकर एक अत्याधुनिक वेब-जीआइएस लाइब्रेरी विकसित की जा रही है, जिसका सीधा इस्तेमाल भविष्य की नीतियों, नदी प्रबंधन रणनीतियों और बहाली योजनाओं में किया जाएगा।
एक ही प्लेटफार्म पर विश्लेषण और योजना
कोरोना और भूमि उपयोग और भूमि आवरण (एलयूएलसी) डेटा को इंटरैक्टिव यूजर इंटरफेस और गूगल अर्थ इंजन एप्लिकेशन पर होस्ट किया जाएगा, ताकि विश्लेषण और योजना दोनों एक ही प्लेटफार्म पर संभव हों। परियोजना के तहत नौ प्रमुख विंडो—हरिद्वार, बिजनौर, नरौरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, भागलपुर और फरक्का के लिए विशेष डिजिटल डिस्प्ले तैयार किया जाएगा, जो स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक निर्णय लेने में अहम भूमिका निभाएगा।
तस्वीरें बदलते हालात को सामने ला रहीं
आइआइटी, कानपुर के सेंटर फार गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट एंड स्टडीज (सी गंगा) के फाउंडिंग हेड प्रोफेसर विनोद तारे बताते हैं कि यह उपलब्धि गंगा संरक्षण में डेटा-ड्रिवन प्लानिंग का नया दौर शुरू करेगी। अधिक सटीकता और तेज प्रोसेसिंग की दिशा में बढ़ते हर कदम के साथ गंगा के भविष्य की तस्वीर और स्पष्ट होती जा रही है।
वर्ष 2019 की तस्वीरें बदलते हालात को सामने लाई हैं जहां बैराज, तटबंध और शहरी विस्तार ने नदी की मिएंडरिंग रफ्तार को सीमित कर दिया है। यही तुलनात्मक अध्ययन अब नई उम्मीद जगा रहा है। अध्ययन में मिले ठोस मानचित्र दर्शाते हैं कि किन इलाकों में बहाली से गंगा अपनी पुरानी लय पा सकती है और कहां भूमि उपयोग में सुधार से उसकी सेहत फिर से निखर सकती है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।