300 साल से ज्यादा पुराने दंगल और अखाड़ों को अभी भी सहेजे है कानपुर, यहां झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी सीखती थी दांव-पेंच
कानपुर अपने अंदर तमाम संस्कृतियों और कई वैभवकाल को समेटे हुए हैं। आज हम आपको कानपुर के एकजुटता की संस्कृति वाले अखाड़े और दंगल से परिचित कराने जा रहे हैं। यहां 300 साल से ज्यादा पुराने दंगल और अखाड़े अभी भी हैं।
कानपुर। अखाड़ा, दंगल, कुश्ती और पहलवान। हर वर्ग की एकजुटता की संस्कृति के संवाहक। सेहतमंद बनाये रखने के लिए प्रतिदिन की कसरत का जरिया हैं। इनसे नई पीढ़ी के युवा भले रूबरू न हों, लेकिन ये शब्द सुनकर शारीरिक सौष्ठव वाले महाबली खली के रूप में पहलवान व आधुनिक फ्री स्टाइल कुश्ती उनके जेहन में जरूर उमड़-घुमड़ जाती है। नागपंचमी, जन्माष्टमी, स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जुलाई से लेकर अगस्त माह के बीच गांवों से शहर तक दंगलों में कुश्ती लड़ते पहलवानों के दांव-पेच देख मन में सिहरन उठने ही लगती होगी। पुराने लोग बचपन से लेकर जवानी तक दंगल में दांव दिखाने में आगे रहे होंगे। अखाड़े के अंदर की मिट्टी अपने तन पर जरूर रगड़ी होगी। दंड-बैठक से लेकर दौड़ लगाने के बाद हमउम्र दोस्तों को पटखनी दी होगी या खाई होगी। उन्हें वह दौर याद भी होगा, जब अखाड़े व पहलवानी का दौर बुलंदी पर था। कभी कानपुर में 80 से अधिक अखाड़े थे, जो युवाओं की रुचि खत्म होने से धीरे-धीरे खत्म होते गए। पढ़िये शिवा अवस्थी की रिपोर्ट।
टीवी, वीडियो संस्कृति और आधुनिक व्यायामशालाओं की वजह से पारंपरिक अखाड़ा संस्कृति शहरों के साथ ही गांवों में भी तकरीबन विलुप्त होने की कगार पर है। अंग्रेजों ने जब शहर में मिलें स्थापित कीं तो उनमें काम करने वाले ग्रामीण क्षेत्र से आए। उन्हीं लोगों ने अखाड़ा संस्कृति तेजी से विकसित की। धीरे-धीरे मनोरंजन व सेहतमंद बने रहने के साधन के तौर पर कुश्ती प्रतियोगिताओं के कारण दंगल और अखाड़े अस्तित्व में आते चले गए। एक दर्जन अखाड़े संगीत के 'घराने' जैसे थे। इनमें तलाक मोहल में हाजी अड्डा पहलवान का अखाड़ा, भागवत दास घाट पर चंदू पहलवान का अखाड़ा, गोलियाना में बच्चा पहलवान का अखाड़ा, जाजमऊ में गंगू बाबा का अखाड़ा, कोतवाली के पास अखाड़ा और नरसंहार घाट पर राष्ट्रीय अखाड़ा, रिवर साइड पावर हाउस, परमट मंदिर प्रवेश मार्ग, बारा देवी का अखाड़ा, रायपुरवा का अखाड़ा, अर्मापुर का अखाड़ा व रेलबाजार का अखाड़ा आदि प्रमुख थे।
बृजेंद्र स्वरूप पार्क, जीएनके कालेज, कमला क्लब और जाजमऊ अखाड़ा चार बड़े केंद्र थे। बुजुर्ग कांग्रेस नेता शंकरदत्त मिश्रा बताते हैं, वर्तमान में कुछ ही पहलवान शहर में बचे हैं। कभी यहां 300 से ज्यादा पहलवान थे। ये मुदगर, पत्थर के गदा और दंड-बैठक के लिए जगह नियत रखते थे। शहर में कुश्ती के लिए सबसे अच्छा समय 1950 से 1960 तक का रहा। उस समय नाग पंचमी, जन्माष्टमी, स्वतंत्रता दिवस समेत कई अन्य पर्वों पर अखाड़े सजते थे। लोग विजेताओं को नकद इनाम देते थे। सबसे अच्छा इनाम गुर्ज होता था। गामा और चंदू पहलवान जैसे तमाम पहलवान दंगलों की शान होते थे। अखाड़े में पहलवानों के दांव-पेच देखने को मेला सा लगता था। वो मेले आधुनिकता के दांव में चित हो गए हैं। कुछ संस्कारवानों के कारण त्योहरों पर दंगल, उनमें कुश्ती से अखाड़ों की लाज बची हुई है। नई पीढ़ी का तो इस ओर कतई झुकाव ही नहीं है, जो बड़े खतरे का संकेत हैं।
यूं तैयार करते अखाड़े की मिट्टी
गुप्तार घाट अखाड़ा के पहलवान प्रमोद तिवारी बताते हैं, अखाड़े की मिट्टी तैयार करना बड़ा काम है। पहले फावड़ा या कुदाल से मिट्टी बराबर की जाती है। इसके बाद मिट्टी को सरसों के तेल, हल्दी पाउडर, मट्ठा (छाछ), दूध, नींबू मिलाकर उपचारित किया जाता है। इसे अच्छी तरह से मिलाया जाता है, जिससे मिट्टी मुलायम हो सके। इससे तैयार मिट्टी कीटाणुनाशक का काम करती है। प्रतियोगिता के दौरान अखाड़े में प्रवेश करने से पहले, पहलवान इस मिट्टी को अपने शरीर पर लगाते हैं। कुश्ती अखाड़ा आमतौर पर गोल होता है।
इन पहलवानों ने कमाया नाम
बुंदेलखंड केसरी मोती पहलवान, अशोक पहलवान, धर्मेंद्र पहलवान, कन्नौज केसरी जितेंद्र पहलवान, कानपुर केसरी विकास पहलवान, उप्र केसरी हेमराज पहलवान, उन्नाव केसरी सुरेंद्र पहलवान, जालौन केसरी मोहर सिंह, मनोज पहलवान, बालचंद्र पहलवान व नंदू पहलवान आदि ने दंगल की नई परिभाषा गढ़ी।
जागेश्वर अखाड़ा में आते थे नानाराव पेशवा व लक्ष्मीबाई
नवाबगंज में जागेश्वर मंदिर के बगल में स्थित अखाड़ा में 300 साल से कुश्ती के दांव-पेच हर साल दिखते हैं। बुजुर्ग बताते हैं, यहां दंगल में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी कुश्ती के दांव-पेच सीखने आती थीं। नानाराव पेशवा भी कई बार आए और पहलवानी करने वाले क्रांतिकारियों में जोश भरते थे। सबसे ज्यादा मल्लाह पहलवान होते थे, जो उनकी सेना में भी थे। जागेश्वर मंदिर समिति के महामंत्री प्राण श्रीवास्तव बताते हैं, इस दंगल में महिला अगर किसी पुरुष या कोई पुरुष महिला से लड़ना चाहता है तो चैलेंज कुश्ती होती है। तत्कालीन मंत्री नीलिमा कटियार ने पर्यटन विभाग के माध्यम से दंगल स्थल में 50 लाख रुपये लगाकर सौंदर्यीकरण कराया। विधायक महेश त्रिवेदी, सुरेंद्र मैथानी, अमिताभ बाजपेई, अभिजीत सिंह सांगा भी दंगल में इस बार रहेंगे। दंगल संयोजक जीतू पांडेय ने बताया कि उनके चाचा स्वर्गीय कौशल पांडेय दंगल के 22 साल तक संयोजक रहे। पहलवानों के लिए हरसंभव मददगार हैं।
कुछ प्रमुख दांव
धोबी पछाड़ : इस दांव का कोई तोड़ नहीं है। इसमें पहलवान सामने वाले प्रतिद्वंद्वी को कंधे पर उठाकर पीठ के बल पटक देता है। यह ठीक वैसे ही होता है, जैसे धोबी कपड़े को जमीन पर पटकता है।
निकाल : इसमें पहलवान अचानक झुककर सामने वाले की टांगों के बीच से निकलकरउसे कंधों से उठाकर जमीन पर पटकता है। हालांकि, प्रतिद्वंद्वी का वजन ज्यादा होने पर कई बार मुश्किल हो जाती है।
सांडीतोड़ : इस दांव में विरोधी पहलवान का हाथ मरोड़कर उसके बगल के नीचे से निकलना होता है। इसमें विरोधी पहलवान को असहनीय दर्द होता है। यह सबसे जोरदार दांव माना जाता है।
टंगड़ी या ईरानी : इसमें ज्यादातर बड़े पहलवान को फायदा मिलता है, क्योंकि हल्के पहलवान को उठाना उसके लिए आसान होता है। हल्के पहलवान को उठाकर पीट के बल पटका जाता है।
कलाजंग : कलाजंग दांव में बेहद ताकत और फुर्ती की जरूरत होती है। पहलवान अपने विरोधी को उसकेपेट के बल अपने कंधों पर उठाकर पीठ के बल पटकता है।
जांघिया : कुश्ती की पारंपरिक पोशाक लंगोट है। इसमें पहलवान एक-दूसरे का लंगोट पकड़ लेते हैं। इसके बाद जो पहले अपने विरोधी के पैर जमीन से उठाकर उसे पटक देता है, वही जीतता है। इसमें संतुलन की जरूरत होती है। इसे जांघिया दांव कहते हैं।
कांखी : इसमें पहलवान अपने विरोधी को दोनों हाथों से मजबूती से पकड़ लेता है। इससे उसके कंधे यानी बगल का मूवमेंट बंद हो जाता है। इसके बाद धीरे-धीरे वह काबू पा लेता है।
जिम फिटनेस के नए केंद्र, महिलाएं भी जागरूक
पहले सेना के जवान व कुश्ती के लिए पहलवान अखाड़ों में अपनी सेहत संवारते थे। अब इसका रूप जिम ने ले लिया है। पहले के समय में पुरुष अखाड़ों में ज्यादा जाते थे, फिटनेस या पहलवानी के लिए महिलाएं कम आती थीं। यशोदानगर में जिम संचालक संगीत तिवारी बताते हैं, अब आधुनिक समय में फिटनेस फैशन बन चुका है। वर्तमान में देश भर में फिटनेस संबंधी बाजार 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक का है, जो प्रतिवर्ष 20 से 23 फीसद की दर से बढ़ रही है। अधिकांश होटलों, स्वास्थ्य क्लबों के साथ व्यायामशालाओं में आधुनिक मशीनें आ गई हैं। अब महिलाएं भी जागरूक हैं। नियमित कसरत करने वाले पहुंच रहे हैं। यहां एरोबिक्स व जुंबा डांस से बिना वजन उठाये शरीर फिट रखने की तरकीब सिखाई जाती है। कोरोना काल में घरों पर रुकने से लोगों में मोटापा व वजन बढ़ने की समस्या आई, जिससे जिम का क्रेज बढ़ा है। शहर में वर्तमान में छोटे-बड़े मिलाकर करीब 1500 जिम संचालित हैं। इससे कैंसर, तनाव, हृदय रोग, शुगर, उच्च रक्तचाप, मोटापा आदि से राहत मिलती है। जिम ट्रेन अजय तिवारी बताते हैं, अखाड़ों में शरीर फिट रखने के लिए लोग पहले पहलवानी करते थे। उसमें घंटों खुद को तैयार करते थे। अब आधुनिकीकरण में कम समय के कारण लोग जिम जाना पसंद कर रहे। इधर कुछ वर्षों से जिम सेहत दुरुस्त रखने का बेहतर विकल्प बन गया है।
दंगल व सुल्तान फिल्म के बाद मिली थी ऊर्जा
दंगल और सुल्तान फिल्म के बाद दंगलों को कुछ ऊर्जा मिली थी तो युवा अखाड़ों की ओर मुड़े थे। कुश्ती के जानकारों के मुताबिक, सरकार का अन्य खेलों को लेकर जो रुख रखती है, अगर उसका कुछ फीसद ही कुश्ती को मिल जाए तो शहर नई कहानी लिख सकता है।
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