जानिए, रामलीला मंचन की कैसे पड़ी नींव, क्या है इतिहास
रामलीला मंचन में कानपुर का समृद्धशाली इतिहास है। 18वीं सदी में इस परंपरा की शुरुआत हुई थी। देश भर में मशहूर हुए परशुराम की भूमिका निभाने वाले कुछ कलाकार।
By AbhishekEdited By: Published: Sat, 13 Oct 2018 08:25 PM (IST)Updated: Sun, 14 Oct 2018 05:28 PM (IST)
स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य सृजन और कला ही नहीं, आध्यात्मिक परंपराओं में भी कानपुर की धरती गौरव का अहसास कराती है। अगर नजर डालें तो राम और रामायण से जुड़ा यहां का सबसे समृद्ध इतिहास नजर आएगा। यहां बिठूर वह स्थान है, जहां महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। यहीं पर सीता माता ने लव-कुश का लालन-पालन किया। वहीं शहर से करीब दो सौ किमी दूर चित्रकूट में प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण के चरण पड़े धरती पावन हो गई। यहीं पर राजापुर गांव में तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना की। इसलिए श्रीराम की लीला का वर्णन लोगों में ही नहीं बल्कि आब-ओ-हवा में रच बस गया है और सदियों से रामलीला का मंचन इसकी गवाही देता है। कानपुर में रामलीला के रोचक इतिहास पर नजर डालती रिपोर्ट-
यह थी सबसे पहली लीला
कहा जाता है कि प्रभु श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकडऩे की लीला यहीं हुई। शायद यही वजह हो कि जबभी रामलीला मंचन की बात आती है तो सबसे पुराने मंचन में कानपुर का नाम भी लिया जाता है। रामलीला की परंपरा की शुरुआत 18वीं सदी में हुई थी। फिर व्यवस्थित मंचन की बात करें तो परेड की रामलीला दशकों पुरानी है, कैलाश मंदिर की रामलीला का भी ऐसा ही अतीत है। गोविंद नगर में होने वाली लीला में संवाद पंजाबी भाषा में ही होते हैं। यही नहीं, खास बात है कि रामलीला के पात्र उस भूमिका में ऐसे रचे-बसे कि वही उनकी पहचान हो गई। परशुराम की भूमिका निभाने वाले कुछ कलाकार तो देश भर में मशहूर हो गए।
सचेंडी के राजा ने शुरू की थी रामलीला की परंपरा
'कानपुर की ऐतिहासिक रामलीलाएंÓ नाम से सर्वेश कुमार 'सुयशÓ का पूरा शोध लेखन है। उसमें पूरे इतिहास को समेटा गया है। बताया जाता है कि कानपुर में रामलीला का सूत्रपात 1774 में हुआ। इस परंपरा की शुरुआत सचेंडी के राजा ङ्क्षहदू सिंह ने कराई थी। सबसे पहले उन्होंने जाजमऊ क्षेत्र में धनुष यज्ञ-रामलीला कराई थी। उसी के बाद कानपुर में रामलीला के मंचन शुरू हुए। रामलीला के प्रदर्शन व प्रचार में यहां के विभिन्न नाटककारों, धर्म प्रचारकों और साहित्यकारों का भी योगदान रहा। महाराज प्रयाग नारायण तिवारी, गुरुप्रसाद शुक्ल, प्रताप नारायण मिश्र, रायदेवी प्रसाद पूर्ण और आचार्य पंडित गोरेलाल त्रिपाठी ने रामलीला मंचन को वृहद रूप दिया।
वर्ष 1876 में मिला रामलीला को बड़ा मंच
अनवरगंज में होने वाली छोटी सी रामलीला की जिम्मेदारी महाराज प्रयाग नारायण तिवारी ने संभाली। राय बहादुर विशम्भरनाथ अग्रवाल, बाबू विक्रमाजीत सिंह आदि सहयोगियों के साथ सन् 1876 में परेड रामलीला सोसाइटी गठित कर इसका मंचन परेड के मैदान में शुरू कराया। धीरे-धीरे इस रामलीला ने विशिष्ट पहचान बना ली। पांच वर्ष तक कमेटी के अध्यक्ष रहने के बाद प्रयाग नारायण तिवारी ने पंचायती व्यवस्था कर इसे सार्वजनिक रूप प्रदान किया और पदमुक्त हो गए। उनके द्वारा दिए गए रामलीला के विभिन्न मुखौटे, चांदी का सिंहासन और हनुमान का मुकुट आज भी परेड रामलीला सोसाइटी में हैं। इन्हें हर वर्ष रामलीला के समय निकाला जाता है। नवरात्र से पूर्व अमावस के दिन मुकुट पूजन अब भी परेड रामलीला के संस्थापक अध्यक्ष महाराज प्रयाग नारायण तिवारी के पौत्र पंडित बद्रीनारायण तिवारी या प्रपौत्र विजय नारायण तिवारी करते हैं।
शिवली और सरसौल से आगे बढ़ी परंपरा
कानपुर की दूसरी ऐतिहासिक रामलीला सन् 1849 में शिवली ग्राम के रामशाला मंदिर में शुरू हुई। बताया जाता है कि प्रदेश में पहली बार रामचरित मानस के आधार पर रामलीला मंचन शुरू हुआ। इसका आयोजन चौबे सधारीलाल की देखरेख में पं. चंद्रबली त्रिपाठी और गंगासेवक बाजपेयी ने किया। चंद्रबली त्रिपाठी ने परशुराम अभिनेता के साथ ही उप्र में रामलीला जगत के आदि गुरु के रूप में पहचान बनाई। इसी तरह तीसरी प्रसिद्ध रामलीला सरसौल क्षेत्र की पाल्हेपुर की रामलीला बनी। इसकी स्थापना 1861 में हुई। यहां प्रतिवर्ष 20 दिवसीय रामलीला का आयोजन होता है। इस लीला की शुरुआत झंडागीत के रचनाकार पद्मश्री श्यामलाल गुप्त पार्षद और संस्थापक स्वामी गोविंदाचार्य महाराज ने की।
खुद की लिखी किताब से कैलाश मंदिर की रामलीला
कानपुर की चौथी ख्यातिप्राप्त रामलीला कैलाश मंदिर के संस्थापक गुरुप्रसाद शुक्ल ने उसी मंदिर में सन् 1880 में शुरू की। इसकी खासियत है कि रामलीला के लिए 'रामयश दर्पण नाटकÓ के नाम से तीन भागों में पुस्तक लिखी गई। इसमें लिखे संवाद ही पात्र बोलते हैं। इसमें स्थानीय कलाकार ही अभिनय करते थे। गुरुप्रसाद शुक्ल खुद राय बहादुर थे, इसलिए उनकी रामलीला में कानपुर के अधिकारी भी भूमिकाएं निभाते थे। एक और खास बात यह कि दशहरे की सुबह रावण पूजन के लिए यहां रावण का मंदिर भी बनवाया गया है। इसके बाद शहर में रामलीला मंचन की परंपरा फैलती चली गई। वर्तमान में दो दर्जन से अधिक स्थानों पर रामलीला का मंचन होता है।
देश भर में छाए कानपुर के यह 'परशुराम'
रामलीला के इतिहास में पंडित जमुना नारायण मिश्रा, संकठा प्रसाद त्रिपाठी, शंकर लाल त्रिपाठी, रामलाल पांडेय, चंद्रबली त्रिपाठी, आचार्य गोरेलाल त्रिपाठी, शिवदत्त लाल मयंक, देवनारायण पाठक, रूपराम त्रिपाठी, पीएन चतुर्वेदी, चंद्रेश पांडेय का नाम सम्मान के साथ लिया जाता। रामलीला के मंच पर ये वो प्रख्यात कलाकार रहे, जिन्होंने परशुराम के अभिनय में देश भर में अपनी छाप छोड़कर अलग पहचान बनाई।
बुंदेलखंड से ही शुरू हुई धनुष यज्ञलीला
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस महाकाव्य में खंड काव्य के रूप में धनुष यज्ञलीला है। इसका उद्गम स्थल बुंदेलखंड को ही माना जाता है। कानपुर नगर, देहात, उन्नाव, बांदा, फतेहपुर, जालौन, हरदोई, इटावा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, हमीरपुर आदि जिलों में बरसात को छोड़कर वर्ष भर यह लोकनाट्य स्वतंत्र रूप से मंचित होता है। इसमें विशेषकर परशुराम-लक्ष्मण संवाद आकर्षित करते हैं।
यूं भावों में उतरते हैं रामलीला के पात्र
परेड रामलीला सोसाइटी के प्रचार प्रकाशन संयोजक महेंद्र कुमार शुक्ल ने बताया कि हमारी रामलीला में मथुरा से कलाकार आते हैं। पंडित महेशदत्त चतुर्वेदी व्यास हैं और कलाकार भी उन्हीं के परिवार और रिश्तेदारी में हैं। जब कलाकार यहां आते हैं तो मंचन तक व्यक्तिगत नाम नहीं पुकारते। जो सदस्य जिस भूमिका को निभा रहा होता है, वही नाम लिया जाता है। साथ ही वह मेस्टन रोड स्थित भवन से बाहर नहीं निकलते। भवन से सीधे मंचन स्थल ही पहुंचते हैं।
रामलीला पर कानपुर में इकलौती पीएचडी!
कानपुर में रामलीला परंपरा को कितनी संजीदगी से लिया गया, इसका एक उदाहरण यह भी है कि रामलीला पर संभवत: इकलौती पीएचडी कानपुर में ही हुई। 1997 में साहित्यकार एवं शिक्षिका कमल मुसद्दी ने छत्रपति शाहूजी महाराज विवि से 'कानपुर जनपद की रामलीला परंपरा का समाजशास्त्रीय अध्ययनÓ विषय पर शोध किया। कमल मुसद्दी बताती हैं कि रामलीला पर दूसरी किसी पीएचडी की जानकारी मुझे नहीं है। उन्होंने अपने शोध में पाया कि नुक्कड़ नाटक के रूप में इस परंपरा की शुरुआत हुई।
राम, लक्ष्मण जैसे प्रमुख पात्रों से अधिक पारिश्रमिक नर्तकों को मिलता था। नर्तकों में किन्नर भी शामिल होते थे, लेकिन मर्यादा बनाए रखते थे। परशुराम का अभिनय करने वाले आचार्य गोरेलाल त्रिपाठी ने अपना फरसा खुद बनवाया था। वह इतना भारी था कि कोई और उसे उठाकर अभिनय नहीं कर सकता था। इसके अलावा पात्रों को समाज में कैसा सम्मान मिलता था? छोटे पर्दे पर रामायण धारावाहिक के रूप में आने के बाद रामलीला मंचन पर क्या फर्क पड़ा? यह शोध में समाहित किए गए।
यह थी सबसे पहली लीला
कहा जाता है कि प्रभु श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकडऩे की लीला यहीं हुई। शायद यही वजह हो कि जबभी रामलीला मंचन की बात आती है तो सबसे पुराने मंचन में कानपुर का नाम भी लिया जाता है। रामलीला की परंपरा की शुरुआत 18वीं सदी में हुई थी। फिर व्यवस्थित मंचन की बात करें तो परेड की रामलीला दशकों पुरानी है, कैलाश मंदिर की रामलीला का भी ऐसा ही अतीत है। गोविंद नगर में होने वाली लीला में संवाद पंजाबी भाषा में ही होते हैं। यही नहीं, खास बात है कि रामलीला के पात्र उस भूमिका में ऐसे रचे-बसे कि वही उनकी पहचान हो गई। परशुराम की भूमिका निभाने वाले कुछ कलाकार तो देश भर में मशहूर हो गए।
सचेंडी के राजा ने शुरू की थी रामलीला की परंपरा
'कानपुर की ऐतिहासिक रामलीलाएंÓ नाम से सर्वेश कुमार 'सुयशÓ का पूरा शोध लेखन है। उसमें पूरे इतिहास को समेटा गया है। बताया जाता है कि कानपुर में रामलीला का सूत्रपात 1774 में हुआ। इस परंपरा की शुरुआत सचेंडी के राजा ङ्क्षहदू सिंह ने कराई थी। सबसे पहले उन्होंने जाजमऊ क्षेत्र में धनुष यज्ञ-रामलीला कराई थी। उसी के बाद कानपुर में रामलीला के मंचन शुरू हुए। रामलीला के प्रदर्शन व प्रचार में यहां के विभिन्न नाटककारों, धर्म प्रचारकों और साहित्यकारों का भी योगदान रहा। महाराज प्रयाग नारायण तिवारी, गुरुप्रसाद शुक्ल, प्रताप नारायण मिश्र, रायदेवी प्रसाद पूर्ण और आचार्य पंडित गोरेलाल त्रिपाठी ने रामलीला मंचन को वृहद रूप दिया।
वर्ष 1876 में मिला रामलीला को बड़ा मंच
अनवरगंज में होने वाली छोटी सी रामलीला की जिम्मेदारी महाराज प्रयाग नारायण तिवारी ने संभाली। राय बहादुर विशम्भरनाथ अग्रवाल, बाबू विक्रमाजीत सिंह आदि सहयोगियों के साथ सन् 1876 में परेड रामलीला सोसाइटी गठित कर इसका मंचन परेड के मैदान में शुरू कराया। धीरे-धीरे इस रामलीला ने विशिष्ट पहचान बना ली। पांच वर्ष तक कमेटी के अध्यक्ष रहने के बाद प्रयाग नारायण तिवारी ने पंचायती व्यवस्था कर इसे सार्वजनिक रूप प्रदान किया और पदमुक्त हो गए। उनके द्वारा दिए गए रामलीला के विभिन्न मुखौटे, चांदी का सिंहासन और हनुमान का मुकुट आज भी परेड रामलीला सोसाइटी में हैं। इन्हें हर वर्ष रामलीला के समय निकाला जाता है। नवरात्र से पूर्व अमावस के दिन मुकुट पूजन अब भी परेड रामलीला के संस्थापक अध्यक्ष महाराज प्रयाग नारायण तिवारी के पौत्र पंडित बद्रीनारायण तिवारी या प्रपौत्र विजय नारायण तिवारी करते हैं।
शिवली और सरसौल से आगे बढ़ी परंपरा
कानपुर की दूसरी ऐतिहासिक रामलीला सन् 1849 में शिवली ग्राम के रामशाला मंदिर में शुरू हुई। बताया जाता है कि प्रदेश में पहली बार रामचरित मानस के आधार पर रामलीला मंचन शुरू हुआ। इसका आयोजन चौबे सधारीलाल की देखरेख में पं. चंद्रबली त्रिपाठी और गंगासेवक बाजपेयी ने किया। चंद्रबली त्रिपाठी ने परशुराम अभिनेता के साथ ही उप्र में रामलीला जगत के आदि गुरु के रूप में पहचान बनाई। इसी तरह तीसरी प्रसिद्ध रामलीला सरसौल क्षेत्र की पाल्हेपुर की रामलीला बनी। इसकी स्थापना 1861 में हुई। यहां प्रतिवर्ष 20 दिवसीय रामलीला का आयोजन होता है। इस लीला की शुरुआत झंडागीत के रचनाकार पद्मश्री श्यामलाल गुप्त पार्षद और संस्थापक स्वामी गोविंदाचार्य महाराज ने की।
खुद की लिखी किताब से कैलाश मंदिर की रामलीला
कानपुर की चौथी ख्यातिप्राप्त रामलीला कैलाश मंदिर के संस्थापक गुरुप्रसाद शुक्ल ने उसी मंदिर में सन् 1880 में शुरू की। इसकी खासियत है कि रामलीला के लिए 'रामयश दर्पण नाटकÓ के नाम से तीन भागों में पुस्तक लिखी गई। इसमें लिखे संवाद ही पात्र बोलते हैं। इसमें स्थानीय कलाकार ही अभिनय करते थे। गुरुप्रसाद शुक्ल खुद राय बहादुर थे, इसलिए उनकी रामलीला में कानपुर के अधिकारी भी भूमिकाएं निभाते थे। एक और खास बात यह कि दशहरे की सुबह रावण पूजन के लिए यहां रावण का मंदिर भी बनवाया गया है। इसके बाद शहर में रामलीला मंचन की परंपरा फैलती चली गई। वर्तमान में दो दर्जन से अधिक स्थानों पर रामलीला का मंचन होता है।
देश भर में छाए कानपुर के यह 'परशुराम'
रामलीला के इतिहास में पंडित जमुना नारायण मिश्रा, संकठा प्रसाद त्रिपाठी, शंकर लाल त्रिपाठी, रामलाल पांडेय, चंद्रबली त्रिपाठी, आचार्य गोरेलाल त्रिपाठी, शिवदत्त लाल मयंक, देवनारायण पाठक, रूपराम त्रिपाठी, पीएन चतुर्वेदी, चंद्रेश पांडेय का नाम सम्मान के साथ लिया जाता। रामलीला के मंच पर ये वो प्रख्यात कलाकार रहे, जिन्होंने परशुराम के अभिनय में देश भर में अपनी छाप छोड़कर अलग पहचान बनाई।
बुंदेलखंड से ही शुरू हुई धनुष यज्ञलीला
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस महाकाव्य में खंड काव्य के रूप में धनुष यज्ञलीला है। इसका उद्गम स्थल बुंदेलखंड को ही माना जाता है। कानपुर नगर, देहात, उन्नाव, बांदा, फतेहपुर, जालौन, हरदोई, इटावा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, हमीरपुर आदि जिलों में बरसात को छोड़कर वर्ष भर यह लोकनाट्य स्वतंत्र रूप से मंचित होता है। इसमें विशेषकर परशुराम-लक्ष्मण संवाद आकर्षित करते हैं।
यूं भावों में उतरते हैं रामलीला के पात्र
परेड रामलीला सोसाइटी के प्रचार प्रकाशन संयोजक महेंद्र कुमार शुक्ल ने बताया कि हमारी रामलीला में मथुरा से कलाकार आते हैं। पंडित महेशदत्त चतुर्वेदी व्यास हैं और कलाकार भी उन्हीं के परिवार और रिश्तेदारी में हैं। जब कलाकार यहां आते हैं तो मंचन तक व्यक्तिगत नाम नहीं पुकारते। जो सदस्य जिस भूमिका को निभा रहा होता है, वही नाम लिया जाता है। साथ ही वह मेस्टन रोड स्थित भवन से बाहर नहीं निकलते। भवन से सीधे मंचन स्थल ही पहुंचते हैं।
रामलीला पर कानपुर में इकलौती पीएचडी!
कानपुर में रामलीला परंपरा को कितनी संजीदगी से लिया गया, इसका एक उदाहरण यह भी है कि रामलीला पर संभवत: इकलौती पीएचडी कानपुर में ही हुई। 1997 में साहित्यकार एवं शिक्षिका कमल मुसद्दी ने छत्रपति शाहूजी महाराज विवि से 'कानपुर जनपद की रामलीला परंपरा का समाजशास्त्रीय अध्ययनÓ विषय पर शोध किया। कमल मुसद्दी बताती हैं कि रामलीला पर दूसरी किसी पीएचडी की जानकारी मुझे नहीं है। उन्होंने अपने शोध में पाया कि नुक्कड़ नाटक के रूप में इस परंपरा की शुरुआत हुई।
राम, लक्ष्मण जैसे प्रमुख पात्रों से अधिक पारिश्रमिक नर्तकों को मिलता था। नर्तकों में किन्नर भी शामिल होते थे, लेकिन मर्यादा बनाए रखते थे। परशुराम का अभिनय करने वाले आचार्य गोरेलाल त्रिपाठी ने अपना फरसा खुद बनवाया था। वह इतना भारी था कि कोई और उसे उठाकर अभिनय नहीं कर सकता था। इसके अलावा पात्रों को समाज में कैसा सम्मान मिलता था? छोटे पर्दे पर रामायण धारावाहिक के रूप में आने के बाद रामलीला मंचन पर क्या फर्क पड़ा? यह शोध में समाहित किए गए।
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