सड़क पार करने के लिए 12 KM का चक्कर! यूपी के इस हाईवे की 'अजीब' इंजीनियरिंग ने लोगों का जीना किया मुहाल
कानपुर-अलीगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग, 3500 करोड़ रुपये की लागत से बना, अपनी खामियों के कारण सवालों के घेरे में है। आईआईटी से अरौल तक का हिस्सा हादसों का क ...और पढ़ें

जागरण संवाददाता, कानपुर। 3500 करोड़ रुपये की लागत से बने कानपुर–अलीगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग को क्षेत्र के लिए विकास की नई रेखा माना गया था। उम्मीद थी कि यह हाईवे न सिर्फ दूरी कम करेगा, बल्कि सुरक्षित और सुगम आवागमन का भरोसा भी देगा।
लेकिन निर्माण पूरा होने के महज दो साल के भीतर ही यह हाईवे अपनी खामियों के कारण सवालों के घेरे में है। खासकर कानपुर आईआईटी से लेकर अरौल तक का 55 किलोमीटर लंबा हिस्सा रोजाना हादसों, मौतों और डर का दूसरा नाम बनता जा रहा है।
यहां की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस सर्विस लेन और फ्लाईओवर को सुरक्षा के लिए बनाया गया, वही डिजाइन की खामियों के कारण लोगों को जान जोखिम में डालने के लिए मजबूर कर रहा है।
सुरक्षा के नाम पर लम्बा चक्कर
आईआईटी कानपुर से अरौल तक एनएचएआई ने 17 फ्लाईओवर बनाए हैं। हर फ्लाईओवर के नीचे सर्विस लेन का निर्माण इस सोच के साथ किया गया कि आसपास बसे गांवों के लोग सुरक्षित तरीके से हाईवे पार कर सकें। लेकिन जमीनी हकीकत इसके उलट है।
कुरसौली, नारामऊ और शाहपुर सर्विस लेन ऐसे उदाहरण हैं, जहां सर्विस लेन गांवों और आबादी से इतनी दूर बनाई गई है कि उसका इस्तेमाल करना लोगों को गैरजरूरी चक्कर जैसा लगता है। नतीजा यह कि राहगीर सीधे हाईवे पर तीन-तीन डिवाइडर फांदकर पार कर रहे हैं।
कुरसौली सर्विस लेन के पास नानकारी क्रासिंग से आईआईटी जाने वाले लोगों को यदि नियम के अनुसार चलना हो, तो पहले मंधना पुलिया तक करीब पांच किलोमीटर जाना पड़ता है और फिर मंधना फ्लाईओवर के नीचे से घूमकर लगभग सात किलोमीटर वापस आना होता है।
यानी महज एक दिशा बदलने के लिए 12 किलोमीटर का अतिरिक्त चक्कर। इसी डिजाइन की सजा से बचने के लिए लोग उल्टी दिशा में वाहन चलाते हैं या पैदल तीन डिवाइडर पार करते हैं। यह जोखिम रोजाना सैकड़ों लोग उठा रहे हैं।
बस नहीं आती, खतरा बढ़ जाता है
हाईवे की एक और बड़ी खामी सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी है। परिवहन विभाग की बसें सर्विस लेन पर सवारी नहीं लेतीं। वे सीधे मेन हाईवे से गुजर जाती हैं। ऐसे में कन्नौज, छिबरामऊ या अन्य जिलों में नौकरी करने वाले यात्रियों के सामने मजबूरी खड़ी हो जाती है।
बस पकड़ने के लिए उन्हें सर्विस लेन छोड़कर मुख्य हाईवे तक आना पड़ता है। तेज रफ्तार ट्रकों, बसों और कारों के बीच पैदल पहुंचना किसी जुए से कम नहीं।
नारामऊ और आसपास के गांवों के लोग बताते हैं कि सुबह और शाम के समय यह खतरा और बढ़ जाता है। स्कूली बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं भी मजबूरी में डिवाइडर फांदकर रोड पार करते हैं।
नारामऊ: जहां दूरी मौत का कारण बन रही
नारामऊ में बना सर्विस लेन रेलवे क्रासिंग से काफी दूर है। यदि कोई राहगीर सर्विस लेन के जरिए सुरक्षित तरीके से सड़क पार करना चाहे, तो उसे करीब आठ किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता है।
यही वजह है कि रेलवे क्रासिंग की ओर से आने वाले लोग सीधे सर्विस लेन और हाईवे के डिवाइडर पार कर दूसरी ओर निकल जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि इसी लापरवाही भरे डिजाइन के कारण उनके गांव के आठ से दस लोग अब तक जान गंवा चुके हैं। हादसों के बाद भी न तो कट बढ़ाए गए, न अंडरपास पास में बनाए गए और न ही बसों के ठहराव की व्यवस्था सुधारी गई।
शाहपुर: एक किलोमीटर की दूरी, रोज का खतरा
थाना शिवराजपुर क्षेत्र के शाहपुर गांव के पास भी यही कहानी है। यहां सर्विस रोड गांव से एक किलोमीटर से ज्यादा दूर है। गांव की दो हजार से अधिक आबादी रोजाना हाईवे पार करती है। साइकिल, बाइक या पैदल निकलने वाले लोग चलती सड़क के बीच से गुजरते हैं। यहां दुर्घटनाएं आम बात हो चुकी हैं। गांव वालों के अनुसार, डिजाइन में यदि गांव के पास अंडरपास या कट दिया जाता, तो इतनी जानें खतरे में न पड़तीं।
कट कम, मजबूरी ज्यादा
आईआईटी से लेकर कन्नौज तक एनएचएआई के कानपुर परिक्षेत्र में 55 किलोमीटर की दूरी पर महज 13 कट बनाए गए हैं। इंजीनियरिंग मानकों के अनुसार, आबादी वाले क्षेत्रों में हर दो किलोमीटर पर कट की जरूरत होती है। लेकिन यहां कटों की संख्या कम है और जो हैं, वे भी कई जगह सही स्थान पर नहीं हैं। परिणामस्वरूप लोग गैरकानूनी और असुरक्षित तरीके से सड़क पार करते हैं।
डिजाइन पर खड़े हुए सवाल
हाईवे की डिजाइन को लेकर सबसे बड़ा सवाल जमीन अधिग्रहण और रैंप की व्यवस्था पर है। आईआईटी से मंधना के बीच कई जगहों पर जमीन का अधिग्रहण अधूरा रहा। जितनी जमीन का मुआवजा दिया गया, उतनी जमीन पर कब्जा नहीं लिया गया। नतीजा यह कि मंधना क्षेत्र में एनएचएआई की जमीन पर दोबारा दुकानें और मकान खड़े हो गए। इससे सर्विस लेन और रैंप की उपयोगिता और सीमित हो गई।
मंधना के पास गोल्डी फैक्ट्री की ओर एक तरफ ही रैंप बनाया गया, दूसरी तरफ रैंप नहीं दिया गया। इससे सारा ट्रैफिक एक ही ओर सिमट जाता है। ऊपर से जिस रैंप का निर्माण किया गया, वह भी लंबे समय से बंद पड़ा है। यह डिजाइन नहीं, बल्कि दुर्घटनाओं को न्योता देने जैसा है।
जिले में घोषित ब्लैक स्पाट
गुजैनी बाईपास, नौबस्ता चौराहा कट, यशोदा नगर, बर्रा बाईपास, नारामऊ, शंभुआ पुल, भौंती और किसान नगर जैसे स्थान पहले ही ब्लैक स्पाट घोषित किए जा चुके हैं।
इसके बावजूद इन जगहों पर न तो कट सुधारे गए, न साइन बोर्ड बढ़ाए गए और न ही पैदल यात्रियों के लिए सुरक्षित व्यवस्था की गई। पीडब्ल्यूडी क्षेत्र में आने वाले दादा नगर, विजय नगर, फजलगंज और पनकी पड़ाव जैसे इलाके भी हादसों के लिहाज से संवेदनशील बने हुए हैं।
हादसों की लंबी फेहरिस्त
बीते एक साल में कटों और गलत डिजाइन के कारण हुई दुर्घटनाओं की सूची डराने वाली है। अगस्त 2024 में नारामऊ कट पर टक्कर में मौत, अक्टूबर में होमगार्ड की जान गई, जनवरी 2025 में 70 वर्षीय बुजुर्ग की मौत, फरवरी में बस से उतरते समय लोग घायल हुए, मार्च और अप्रैल में कई जानें गईं। ये हादसे किसी एक दिन की लापरवाही नहीं, बल्कि लगातार अनदेखी का नतीजा हैं।
आवारा पशु और अवैध सवारी
हाईवे की खामियों में एक और बड़ा खतरा है,आवारा पशु और अवैध सवारी। गांवों से सटे हिस्सों में गाय, बैल और अन्य जानवर अचानक रोड पर आ जाते हैं। इसके साथ ही टेंपो और आटो चालक मेन हाईवे पर ही सवारी ढोते हैं, जबकि यह पूरी तरह प्रतिबंधित है। तेज रफ्तार ट्रैफिक के बीच ये दोनों स्थितियां हादसों की आशंका कई गुना बढ़ा देती हैं।
विकास, लेकिन किस कीमत पर
कानपुर–अलीगढ़ हाईवे से दूरी जरूर कम हुई है, दिल्ली का सफर आसान हुआ है, लेकिन स्थानीय लोगों के लिए यह हाईवे डर और मौत का रास्ता बनता जा रहा है। खामियों से भरी डिजाइन, दूर बसे सर्विस लेन, कम कट, अधूरे रैंप और सार्वजनिक परिवहन की अनदेखी इन सबकी कीमत आम लोग अपनी जान देकर चुका रहे हैं।
यह हाईवे बताता है कि सड़क सिर्फ डामर और कंक्रीट से नहीं बनती, वह डिजाइन की समझ और स्थानीय जरूरतों से बनती है। जब तक इन खामियों को दूर नहीं किया जाता, तब तक हर दिन कोई न कोई परिवार अपनों को खोने के डर के साथ इस सड़क को पार करता रहेगा।
नौ फुटओवर ब्रिज का टेंडर नहीं हो सका फाइनल कानपुर-अलीगढ़ हाईवे में दुर्घटनाओं को रोकने के लिए नौ फुट ओवर ब्रिज का निर्माण होना है। जिसमें कन्नौज जिले में दो एफओबी और कानपुर जनपद में सात एफओबी बनाए जाएंगे, लेकिन एक साल से टेंडर फाइनल नहीं होने से मामला फंसा है।
एनएचएआइ करीब 36 करोड़ रुपये कानपुर से कन्नौज तक 82 किमी लंबे हाईवे पर कुल नौ एफओबी निर्माण में खर्च करेगा। प्रत्येक एफओबी पर लगभग चार करोड़ रुपये खर्च होंगे। इन एफओबी में सीढ़ियों के साथ रैंप की सुविधा होगी, जिससे बुजुर्गों, दिव्यांगों और व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं को राहत मिलेगी।
खास बात यह है कि एफओबी से दोपहिया वाहन चालक भी आर-पार जा सकेंगे, जिससे गलत दिशा में चलने की मजबूरी खत्म होगी और दुर्घटनाओं में कमी आने की उम्मीद है, लेकिन एक साल से यह योजना टेंडर नहीं होने से फंसी हैं।
कन्नौज में नौकरी करता हूं, मुझे परिवहन विभाग की बस पकड़ने के लिए हाईवे पार करना मजबूरी है। सर्विस लेन में कोई बस नहीं रुकती है। सभी यात्रियों को सर्विस लेन की डिवाइडर पार करके मेन हाईवे पर आना पड़ता हैं। इसमें कई बार खतरा भी होता है क्योंकि कई गाड़ियां तेज रफ्तार से निकलती है जिसे दुर्घटना होने की संभवना बनी रहती है।
शशीलेंद्र सिंह, क्षेत्रीय निवासी
नारामऊ के पास बना सर्विस लेन बना है वह थोड़ी दूर पर स्थित है। ऐसे में लोग दूसरी तरफ जाने के लिए असुरक्षित तरीके से हाईवे को पार करते है। गांव में ऐसे ही असुरक्षित तरीके से हाईवे पार करने में आठ से 10 लोगों की दुर्घटना में मौत हो चुकी हैं। पर इसके बाद भी पुलिस और प्रशासन के लोग कोई कार्रवाई नहीं करते हैं।
उपेंद्र नाथ शर्मा, क्षेत्रीय निवासीसर्विस लेने पर बना अंडर पर गांव से एक किलोमीटर दूर है, ऐसे में ज्यादातर लोग डिवाइडर को पार करके ही रोड की दूसरी तरफ जाते हैं। प्रशासन और सरकार को इस संबंध में कुछ करना चाहिए।
पंकज शुक्ला, क्षेत्रीय निवासीअनाधिकृत कट बंद किए जा चुके हैं। किसी स्थान पर पांच से अधिक दुर्घटनाएं होने पर ब्लैक स्पाट घोषित किया जाता है, फिलहाल अलीगढ़ हाईवे में कोई ब्लैक स्पाट नहीं हैं। फुटओवर ब्रिज की निर्माण प्रक्रिया चल रही है, कन्नौज में निर्माण भी शुरू हो चुका है, यहां भी जल्द शुरू कराया जाएगा।
पंकज यादव, परियोजना निदेशक, एनएचएआइ

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