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तेजस्वी कलम का प्रताप : साहित्य से राष्ट्रीयता की अलख जगाना बखूब जानते थे गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की जन्म-जयंती पर उनके लेखन की महानता को बता रहे डा. राकेश शुक्ला ने आलेख में ईमानदारी त्याग और बलिदान का उल्लेख किया है। राष्ट्रसेवा को समर्पित पत्रकार की विलक्षण प्रतिभा को दर्शाया है।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sun, 24 Oct 2021 10:59 AM (IST)Updated: Sun, 24 Oct 2021 10:59 AM (IST)
तेजस्वी कलम का प्रताप : साहित्य से राष्ट्रीयता की अलख जगाना बखूब जानते थे गणेश शंकर विद्यार्थी
गणेश शंकर विद्यार्थी की जन्म-जयंती पर आलेख

गणेश शंकर विद्यार्थी न सिर्फ महान स्वातंत्र्य-वीर थे, वरन लेखन और राष्ट्र सेवा में जिस ईमानदारी, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होती है, वे उसकी मिसाल थे। अंग्रेज अधिकारियों एवं देसी नरेशों की निरंकुशता, शोषण एवं दमनकारी नीतियों के विरुद्ध उनकी लेखनी ने बड़ा जनजागरण किया था। 26 अक्टूबर को उनकी जन्म-जयंती पर डा. राकेश शुक्ला का आलेख...

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निर्धनों, किसानों व मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने तथा सामाजिक जड़ताओं, अंध परंपराओं एवं कुरीतियों के विरुद्ध सामाजिक जागृति का उद्देश्य लिए पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का लेखन अपने आप में ही महान है। साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता की अलख जगाना वे बखूब जानते थे। अहर्निश राष्ट्र-सेवा को समर्पित एक ऐसा व्यक्ति जो स्वातंत्र्य-समर, समाजसेवा, सामाजिक, राजनीतिक संगठन और पत्रकारिता में एक साथ सक्रिय रहा हो। इन सबके साथ जिसने कोर्ट-कचहरी और जेल-जीवन का भी सहर्ष वरण किया हो, यह विलक्षण प्रतिभा, अदम्य साहस और अटूट लगन को ही दर्शाता है।

26 अक्टूबर, 1890 को प्रयागराज (इलाहाबाद) के अतरसुइया मुहल्ले (ननिहाल) में जन्मे विद्यार्थी जी का आरंभिक जीवन शिक्षा व धर्म ज्ञान के बीच शुरू हुआ। विद्यार्थी जी की प्रारंभिक शिक्षा विदिशा एवं सांची के सांस्कृतिक वातावरण में हुई। आगे की शिक्षा कानपुर और प्रयागराज में प्राप्त की। प्रयागराज प्रवास उनके जीवन का एक ऐसा मोड़ था जो उनके व्यक्तित्व की निर्मिति का आधार बना। ‘कर्मयोगी’ के संपादक पं. सुंदरलाल जी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके प्रारंभिक गुरु बने। ‘स्वराज्य’ में भी विद्यार्थी जी की टिप्पणियां प्रकाशित होती थीं, जो उन दिनों क्रांतिकारी विचारों का संवाहक था। उन्हीं दिनों ‘सरस्वती’ के यशस्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक युवा और उत्साही सहयोगी की आवश्यकता थी, अत: 2 नवंबर, 1911 को वे उसके सहायक संपादक नियुक्त हुए। यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, जबकि विद्यार्थी जी पत्रकारिता के माध्यम से स्वातंत्र्य समर में भी योगदान करना चाहते थे, अत: दिसंबर, 1912 में वे पं. मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से जुड़ गए। यहां भी उनका मन नहीं लगा। तब उन्होंने कानपुर से हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन (9 नवंबर, 1913) प्रारंभ किया।

‘प्रताप’ को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कई-कई बार अंग्रेज सरकार द्वारा छापेमारी की गई। प्रताप प्रेस द्वारा प्रकाशित लक्ष्मण सिंह के नाटक ‘कुली प्रथा’, नानक सिंह ‘हमदम’ की क्रांतिकारी कविता ‘सौदा-ए-वतन’ जैसी रचनाएं जब्त की गईं, राजद्रोह की कार्यवाही हुई, हजारों रुपए का जुर्माना व जेल की सजा मिली। बावजूद इसके विद्यार्थी जी विचलित नहीं हुए। ‘प्रताप’ ऐसा पत्र था, जिसमें समाज के हर वर्ग के दुख और उनकी तकलीफों को वाणी मिलती थी। संघर्ष करने की ताकत और अन्यायी, अत्याचारी का सशक्त प्रतिकार करने की सामथ्र्य भी। विद्यार्थी जी ने 1916 से 1919 के दौरान कानपुर में लगभग 25 हजार मजदूरों के संगठन ‘मजदूर सभा’ का नेतृत्व किया तथा उनके पत्र ‘मजदूर’ के प्रकाशन में सहयोग भी।

इसी प्रकार अवध के किसान आंदोलन को उन्होंने ‘प्रताप’ में इतनी प्रमुखता से प्रकाशित किया कि उसकी आंच इंग्लैंड तक पहुंची, जिसके कारण वहां की सरकार ने लंदन स्थित भारतीय सचिवालय के माध्यम से तत्कालीन वायसराय से रिपोर्ट मांगी। यहां पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि चंपारण में नील की खेती करने को विवश पीड़ित, प्रताड़ित किसानों के प्रतिनिधि राजकुमार शुक्ल की भेंट गांधी जी से विद्यार्थी जी ने ही कराई थी, फलस्वरूप चंपारण आंदोलन हुआ, जिसके माध्यम से भारत में सर्वप्रथम गांधी जी के नायकत्व ने उभार पाया। ‘प्रताप’ के अनेक विशेषांक भी आजादी की लड़ाई के संवाहक बने, जिनमे ‘राष्ट्रीय अंक’ और ‘स्वराज्य अंक’ विशेष चर्चित रहे।

‘प्रताप’ कार्यालय राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के साथ साहित्यकारों का भी केंद्र था। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा तथा छैलबिहारी दीक्षित ‘कंटक’ आदि का उन्होंने समय-समय पर सहयोग और मार्गदर्शन किया। सरदार भगत सिंह अपनी फरारी के दिनों में वेश बदलकर ‘प्रताप’ कार्यालय में रहे तथा बलवंत सिंह के छद्म नाम से वहां कार्य किया एवं लेख लिखे। विद्यार्थी जी ने ही श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से झंडा गीत की रचना कराई थी।

स्वाधीनता और राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए उनका लेखकीय योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसकी चर्चा सामान्यत: कम होती है। उनका संस्मरण ‘जेल-जीवन की झलक’ आज के प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि वह समझ सके कि आजादी कितने कष्टों और बलिदानों का प्रतिफल है।


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