विश्व नगर दिवस : बड़ा ही दिलचस्प है कान्हपुर से कानपुर तक का सफर
आधिकारिक स्थापना के 215 साल पूरे कर चुके कानपुर की धरती क्रांतिकारियों और साहित्यकारों की स्थली रही। अंग्रेजों के शासन काल में मैनचेस्टर ऑफ इंडिया का तमगा भी मिला।
बुजुर्गों के मुंह से कानपुर को कंपू कहते सुना, वहीं यदा कदा पुराना कानपुर के कुछ बुजुर्गों के मुंह से कान्हैपुर के हैं, कहते सुनने को मिल जाता है। कानपुर की स्थापना कब हुई, इस बारे में इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं। लेकिन इस बात पर सभी एकमत है कि कानपुर की राजकीय स्थापना 24 मार्च 1803 ईस्वी को ईस्ट इंडिया कंपनी ने की थी। तब से आजतक तमाम कई एतिहासिक घटनाओं का गवाह और मैनचेस्टर ऑफ ईस्ट का तमगा हासिल कर चुका कानपुर 215 साल पूरे कर चुका है। विश्व नगर दिवस पर कान्हपुर से कानपुर तक के दिलचस्प सफर को बयां करती अभिषेक अग्निहोत्री एवं महेश शर्मा की रिपोर्ट...
राजा कान्हदेव को सर्वाधिक मान्यता
इतिहासकारों में एकमत भले न हो, लेकिन वर्ष 1217 में राजा कान्हदेव द्वारा कानपुर की स्थापना को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले से लेकर इतिहासकार इंद्रदेव नारायण सिंह की पुस्तक क्षत्रिय वंश भास्कर व कानपुर का इतिहास ग्रंथ के लेखक प्रो. लक्ष्मीकांत त्रिपाठी व नारायण प्रसाद अरोड़ा ने भी कान्हपुर का स्थापना काल 1217 ई. माना है। कानपुर के कलेक्टर रहे रॉबर्ट मांटगोमरी ने भी कान्हदेव को ही कानपुर का संस्थापक माना है। कुछ इतिहासकार सचेंडी के राजा हिंदू सिंह द्वारा वर्ष 1698 या 1750 में कान्हपुर गांव की स्थापना मानते हैं। इसका उल्लेख सर्वप्रथम एफएम राइट ने 1873 ई. में छठे बंदोबस्त की रिपोर्ट में घोषित करते हुए स्थापनाकाल 1750 करार दिया था लेकिन कान्हपुर के भैरव मंदिर का निर्माण 1419 ई. में होने और स्थापित शिलापट्ट में कान्हपुर का स्पष्ट उल्लेख एफएम राइट की रिपोर्ट का खंडन करता नजर आता है।
इस तरह बदलती गई नाम की वर्तनी
-CAWNPOOR 1770 ग्रेवियल हार्पर।
-CAUNPOUR 1776 जेम्स रेनेल।
-CAUNPORE 1785 जेम्स फार्वेस।
-CAWNPOUR 1788 जेम्स रेनेल।
-KAWNPORE 1790 फोर्ट विलियम पत्राचार।
-CAWNPORE 1788 थामस टिर्वंनग (सर्वाधिक स्वीकृत वर्तनी, 1857 से 1948 के पूर्व तक प्रचलित)।
-CAWNPOR 1765 फोर्ट विलियम पत्राचार।
- CAWNPOR 1798 फोर्ट विलियम पत्राचार।
-KAUNPOOR 1798 नक्शा एवं फोर्ट विलियम पत्राचार।
-KHANPORE 1798 श्रीमती डियेन (सैनिक अधिकारी की पत्नी)।
-KHANPURA 1798 वाटर हैमिल्टन, ईस्ट इंडिया कंपनी का गजेटियर।
-KHANPORE 1798 फारेस्टर (एक अंग्रेज यात्री)।
-CAUNPOOR 1815 ईस्ट इंडिया कंपनी गजेटियर।
-KHANPOOR 1825 भारत का नक्शा।
-KANHPUR 1857 नानकचंद की डायरी, मांटगोमरी मिलेसन।
-CAWNPOUR 1857 क्रांति के उपरांत प्रकाशित एक पिक्चर पोस्टकार्ड, 1881 में प्रकाशित गजेटियर आफ इंडिया।
-CAAWNPORE 1879 मारिया मिलमेन आफ इंडिया।
-CAWNPOR 1879 इनसाइक्लोपीडिया आफ अमेरिका।
-COWNPOUR 1879 इनसाइक्लोपीडिया आफ अमेरिका।
-KANPUR 1948 अंतिम तथा वर्तमान।
अंग्रेज हाकिमों के नाम से बसे मोहल्ले
यूं तो कानपुर का इतिहास आजादी के दौर की दास्तान अपने आंचल में समेटे है, लेकिन शहर के कई ऐसे मोहल्ले हैं, जो अपभ्रंस रूप में आज भी अंग्रेज अफसरों के नाम अपने साथ समेटे हैं। कर्लनगंज नाम कर्नल जेमेस शेफर्ड के नाम पर पड़ा था। यह अंग्रेजों के नाम पर बसे मोहल्लों में सर्वाधिक पुराना माना जाता है। मैकराबर्टगंज और मैकराबर्ट अस्पताल वर्ष 1889 से 1908 के बीच लाल इमली के जनरल मैनेजर रहे मैक राबर्ट के नाम पर बसे थे। कभी कूपरगंज के नाम से पहचान रखने वाला कोपरगंज चीफ कमिश्नर आफ अवध के पद पर रहे लेफ्टिनेंट ई. डब्ल्यू कूपर के नाम पर बसा था। इसका जिक्र वर्ष 1871 के मैप में भी है।
शहर के व्यस्त बाजारों में शुमार मूलगंज का नाम वर्ष 1886 से 1890 तक शहर के कलेक्टर रहे एफडी मोल के नाम पर पड़ा। बेकनगंज या बेगमगंज का नामकरण 1827-28 में कानपुर के जज रहे डब्ल्यू बेकन के नाम पर पड़ा। हैरिसगंज का नाम 1842 में कर्नल रहे कर्नल हैरिस के नाम पर रखा गया था। फेथफुलगंज का नाम कमिश्नर टू द बाजीराव पेशवा आरसी फेथफुल के नाम पर रखा गया। एल्गिन मिल से ग्वालटोली के बीच बसे सूटरगंज का नाम वर्ष 1940 में इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के चेयरमैन रहे एडवर्ड सूटर के नाम पर पड़ा। वर्ष 1778 में शहर आए 10 हजार जवानों के लिए बनाए गए बाजार का नाम ब्रिग्रेडियर जनरल स्टीवर ग्लिस के नाम पर रखा गया, जिसे आज गिलिस बजार के नाम से जाना जाता है।
जाजमऊ युद्ध व संधि के बाद बढ़ा महत्व
यूं तो कानपुर में ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली छावनी 1758 में स्थापित हुई थी। इसके पीछे भी घटनाओं की एक लंबी शृंखला है। वीएसएसडी कालेज के इतिहास विभागाध्यक्ष डॉ.अनिल मिश्र बताते हैं कि 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल में स्वयंभू शासक के तौर पर स्थापित हो गई थी। 15 सितंबर 1764 को बक्सर में कंपनी की सेना से युद्ध में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की मदद के लिए बंगाल का नवाब मीर कासिम व अवध के नवाब सुजाउद्दौला भी पहुंंचे, लेकिन विजय कंपनी की हुई।
इसके बाद नवाव सुजाउद्दौला अंग्रेजों का मुकाबला करने की तैयारी के इरादे से फर्रुखाबाद के नवाब बंगस से मदद मांगने पहुंचा। सुजाउद्दौला का पीछा करते हुए कंपनी की सेना का जनरल जॉन र्कािनक भी जाजमऊ तक आ पहुंचा। कंपनी की सेना में वर्ष 1765 में हुए युद्ध में सुजाउद्दौला को पराजित कर दिया था। इसके बाद सुजाउद्दौला को कंपनी के साथ संधि करनी पड़ी, जो भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इसके बाद ही अंग्रेजों की नजर में कानपुर का महत्व एकाएक बढ़ गया।
क्रांति व साहित्य सृजन का ध्वजवाहक
हर सुबह पावन गंगा जल से मुंह धोने वाले झाड़े रहो कलक्टरगंज तथा छोरा गंगा किनारे वाला जैसे जीवंत मुहावरे देने वाला शहर 1857 की क्रांति का ध्वजवाहक भी रहा। मेरठ में क्रांति से पूर्व ही यहां क्रांति की ज्वाला भड़क चुकी थी। क्रांति का इतिहास लिखने में यहां की मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं के साथ मेहनतकशों व किसानों ने सक्रिय भूमिका निभाई। यहां की धरती शहीदे आजम भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वरदत्त, शिव वर्मा, अजय घोष, दुर्गा भाभी, भगवती चरण वर्मा, अशफाक उल्ला खां से लेकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की मशाल जलाने वाले अनेकों वीरों की कर्म व आश्रय स्थली बनी।
रानी लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, नाना साहब, गणेश शंकर विद्यार्थी व हसरत मोहानी की आहुतियों का भी साक्षी यह शहर है। हिंदी कवि सम्मेलन का शुभारंभ कविवर गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेहीÓ की अगुवाई में यहीं से हुआ। मुंशी प्रेमचंद ने भी इसे अपनी रचनाधर्मिता का केंद्र बनाया। पं. प्रताप नारायण मिश्र, राय देवी प्रसाद पूर्ण, जगदंबा प्रसाद दीक्षित हितैषी, छैल बिहारी कंटक, झंडागीत के रचयिता श्याम लाल गुप्त पार्षद, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, भगवती प्रसाद बाजपेयी, श्री निवास बालाजी र्हािडकर जैसे तमाम साहित्यकारों की रचनाधर्मिता की जननी कानपुर शहर बना। विद्वता व आचार्य परंपरा में पं. बैकुंठनाथ शास्त्री, चंद्रशेखर शास्त्री, आचार्य केशव, आचार्य अयोध्या नाथ शर्मा, आचार्य मुंशीराम शर्मा सोम, जैसे विद्वानों की लंबी सूची है, जो हिंदी व संस्कृत के उत्थान में अंतिम सांस तक डटे रहे।
मार्च में शहीद हुए थे गणेश शंकर विद्यार्थी
मार्च माह जहां कानपुर के लिए इतिहास के पन्ने में स्वर्णिम यादें सहेजे हुए है वहीं टीस की दास्तां भी दर्ज है। मार्च माह में ही पत्रकारिता के पुरोधा और कानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे। पत्रकारिता के नैतिक मानदंड और मूल्यों की रक्षा करते हुए उन्होंने अपनी जान दे दी थी। 25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक दंगा रोकने के प्रयास में उपद्रवियों ने उन्हें चाकू घोंप कर मार दिया था। उनकी शहादत पर महात्मा गांधी ने कहा था- वह गणेश शंकर जैसी मृत्यु की चाहत रखते हैं। 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर में प्रताप अखबार की स्थापना की थी।
जहां चुन्नीगंज थाना, वहां था अंपायर इंजीनिर्यंरग वक्र्स
जिस भवन में आज चुन्नीगंज थाना स्थित है, वहां कभी अंपायर इंजीनिर्यंरग वक्र्स था। हरिद्वार से गंगा के जरिए ल_े वाली कोठी तक आने वाली लकड़ी के ल_ों से अर्से तर्क टिंबर उद्योग फला फूला। करीब एक सदी तक सूती मिलों की चिमनियों के धुएं से निकली औद्योगिक क्रांति की धमक ने पूरी दुनिया में कानपुर का डंका बजता रहा।
एशिया के मैनचेस्टर का गौरव था हासिल
आज भले ही कानपुर को उद्योगों की कब्रगाह कहा जाता हो, लेकिन कभी इसे एशिया का मैनचेस्टर या मैनचेस्टर आफ ईस्ट के विशेषणों से नवाजा जाता था। शहर बनने से पहले यहां चर्म उत्पाद तैयार करने की धूम थी। कुरसवां व हीरामन का पुरवा प्रमुख गढ़ थे। 1849 में यहां 6628 लोग चर्म उद्योग चलाते थे। 1857 की क्रांति में यहां उद्योग बिखरे तो बाद में अंग्रेज अफसर जॉन स्टुवर्ट व स्थानीय व्यवसायी सांवलदास ने इसे पुनर्जीवित किया। इंग्लैंड के गेवेन जोंस ने यहां इंजीनिर्यंरग हब बनाया था।
कहे खेत की, सुने खलिहान की के मुताबिक बदली कानपुर की वर्तनी
अंग्रेजों ने कानपुर को वर्तनी अपनी भाषा में लिखने में कहे खेत की, सुने खलिहान की वाली कहावत को चरितार्थ किया। भारतीय स्थान नामों से पूरी तरह अनभिज्ञ इन लोगों ने भारतीयों द्वारा उच्चारित शब्दों को जिस रूप में ग्रहण किया, उसी को शुद्ध मानते हुए अपनी भाषा में लिखना शुरू कर दिया। इसी के चलते वर्ष 1770 से 1948 के मध्य 178 वर्ष के कालखंड में अंग्रेजी भाषा में कानपुर की 18 वर्तनी मिलती हैं। जो संभवत: एक कीर्तिमान हैं
87 साल का हो गया सेंट्रल स्टेशन
सेंट्रल रेलवे स्टेशन 87 साल का हो चुका है। अंग्रेज इंजीनियर जॉन एच ओनियन की देखरेख में सेंट्रल स्टेशन का निर्माण नवंबर 1928 से शुरू हुआ और करीब सवा साल में बनने के बाद 29 मार्च 1930 को इसका उद्घाटन किया गया था। तब इसकी लागत बीस लाख रुपये आई थी। सबसे पहले इसे कन्नौज और फिर हावड़ा रूट से जोड़ा गया। पहली ट्रेन कन्नौज से कानपुर चली थी। एक ट्रेन से शुरू हुआ सफर अब 389 ट्रेनों से भी अधिक तक पहुंच चुका है। वहीं पहले यहां तीन प्लेटफार्म थे जो बढ़कर दस हो गए हैं। यहां स्वचालित सीढिय़ां, लिफ्ट जैसी आधुनिक सुविधाएं भी हैं।
217 साल पुरानी है कचहरी
कानपुर भले ही तब घोषित जिला न बना हो लेकिन मुकदमों की सुनवाई के लिए कोर्ट स्थापित हो गई थी। 18 मार्च 1801 में जिला कोर्ट की स्थापना हुई थी, प्रथम मजिस्ट्रेट अब्राहम वेयलान ने सिविल लाइंस के जिस बंगले में पहली सुनवाई की, आज वहां जिला अदालत की बहुमंजिला इमारत है। अंग्रेज सरकार ने लोगों को परेशान करने के लिए 1811 में कचहरी को बिठूर और फिर 1816 में बिठूर से पुराना कानपुर (आधुनिक नवाबगंज) स्थानांतरित कर दिया था। यहां वकालत करने के लिए 10 लोगों को लाइसेंस दिए गए, जिसमें चार अंग्रेज और छह भारतीय थे। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद कचहरी फिर नवाबगंज से सिविल लाइंस आ गई। कचहरी के झरोखे में इतिहास के नायक पंडित पृथ्वीनाथ चक, पंडित मोतीलाल नेहरू, केंद्रीय मंत्री कैलाश नाथ काटजू सरीखे कई नाम शामिल हैं।
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