रामायण महातीर्थम् यानी नए बौद्धिक सम्मोहन में भगवान राम और रामकथा, यहां पढ़ें एक खास विश्लेषण
लेखक कुबेरनाथ राय के ललित निबंध पर आधारित रामायण महातीर्थम् में भगवान राम और रामकथा का नए बौद्धिक सम्मोहन में विश्लेषित किया गया है । अली सरदार जाफरी ने मीरा की प्रेमवाणी को कविता में पिरोया है ।

किताबघर : रामगाथा के तीर्थ सरोवर में ज्ञान का जल
रामायण महातीर्थम्
कुबेरनाथ राय
ललित निबंध
पहला संस्करण, 2002
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2011
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
मूल्य: 510 रुपए
समीक्षा : यतीन्द्र मिश्र
हिंदी साहित्य की निबंध परंपरा में भारतीय आर्ष चिंतन तथा सांस्कृतिक लेखन की एक ऐसी अनूठी परंपरा भी अंत:सलिल रही है, जिसे ‘ललित निबंध के नाम से जाना जाता है। ललित निबंधों में भारतीयता को चिन्हित करने वाली दृष्टि सनातन और नवीन के अंतरावलंबन को लक्ष्य करती हुई कुछ मौलिक और पारंपरिक स्थापनाओं को नए अर्थ संदर्भों के साथ व्यक्त करती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और पं. विद्यानिवास मिश्र की परंपरा में कुबेरनाथ राय का सांस्कृतिक लेखन सम्मान से याद किया जाता है, जिन्होंने अपने निबंधों में उसी तरह रस और लालित्य की व्यंजना की है। आज की पुस्तक विवेचना कुबेरनाथ जी के निबंध संग्रह ‘रामायण महातीर्थम्’ पर आधारित है, जिसमें उन्होंने भगवान राम और रामकथा को नए बौद्धिक सम्मोहन से मंडित किया है और उसमें विचार व अभिव्यक्ति की भंगिमा दार्शनिक अर्थों में विस्तार ग्रहण करती है। रामायण को विश्लेषित करने में उसके पाठ, कथ्य, विचार, सामाजिकता, समावेशिता, सौहार्द की भावना तथा लोक मंगल की अभिव्यक्ति- सभी पर सम्यक विचार हुआ है। इस अर्थ में कुबेरनाथ राय इन निबंधों में रामकथा के भावात्मक और बौद्धिक सौंदर्य का उद्घाटन करते हैं। वे मानते हैं र्कि ंहदी में रामकथा मिथक के विकास पर अधिकतर लेखन में शोध-दृष्टि का प्राधान्य रहा है और रस-दृष्टि उपेक्षित है। वे इसी रस-दृष्टि को केंद्र में रखकर रामकथा पर ललित निबंध लिखते हैं और उसके साथ भारतीय संस्कृति के तीन प्रमुख आधारों- वैदिक, तांत्रिक और लोकायत को नवीन दृष्टि से व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं, जिसमें श्रुति प्रमाण के साथ लोक परंपरा में स्थापित और स्वीकृत की प्रामाणिकता पर बल देते हैं। इसी कारण ‘रामायण महातीर्थम्’ ऐसी बौद्धिक और दार्शनिक रचना का स्वरूप पाती है, जिसके संधान में सत्य पाने के साथ पराभौतिक लक्ष्य अध्यात्म का है। जाहिर है, अपनी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों ‘गंधमादन’, ‘रस आखेटक’ और ‘प्रिया नीलकंठी’ की तरह यह कृति भी भारतीय संस्कृति के वांग्मय को आस्था के साथ विचार के स्तर पर भी टटोलती है।
‘रामायण महातीर्थम्’ तीन खंडों- राम गाथा, वानर गाथा तथा राक्षस गाथा के साथ एक परिशिष्ट में संयोजित है। प्रत्येक खंड में उन विषयों के मुताबिक निबंध संकलित हैं, जिनमें उनकी गहन पठनीयता, वैदिक ग्रंथों का प्रणयन, लोक परंपरा में रामकथा के प्रसार, लोक और शास्त्र के सम्मुख मौजूद प्रश्नों और उनकी जिज्ञासाओं के युक्तिपूर्ण उत्तर के दर्शन होते हैं। रामगाथा खंड में ‘राम कथा के मिथकीय आयाम’, ‘भारतीय इतिहास दृष्टि और राम कथा’, ‘राम कथा का वैदिक स्नायु मंडल’, ‘दो सहोदर वीर’ तथा ‘ब्राह्मण तथा आरण्यक संस्कृति का उद्धार’ जैसे निबंधों में भगवान राम के चरित्र और उनके नायक भाव के साथ देवत्व पाने की प्रतिष्ठा पर चर्चा है। ‘दो सहोदर वीर’ निबंध में वे श्रीराम और श्रीकृष्ण की कथाओं के बहाने एक अद्वितीय तुलनात्मक अध्ययन रचते हैं कि किस तरह दोनों वीरों की अवधारणा कुशल और क्षेम की तरह परस्पर पूरक रही है। वे आल्हा-उदल लोरिक गाथा के उदाहरणों से शुरू करके, यूनानी मिथकों के विश्लेषण के साथ आर्येत्तर संस्कृति पर भी विचार करते हैं। वे बहुत सारे सांस्कृतिक शब्दों की व्युत्पत्ति पर भी हर निबंध में उसके आशय स्पष्ट करते हुए रामकथा के परिप्रेक्ष्य से जोड़कर देखते हैं। जैसे ‘मित्रावरूण’, ‘इंद्रसोमौ’, ‘भूर्भूव:’, ‘वृहद देवता’, ‘नासत्य’, ‘नीलारुण’, ‘मधुवर्ण’, ‘हिरण्य’, इस तरह वे ऐसी वैदिक पारिभाषिक शब्दावली का एक प्रारूप रखते हैं, जिसके सहारे हम इन शब्दों को सरल ढंग से समझ सकें और उनकी सनातनता को उन ग्रंथों में इस्तेमाल किए गए संदर्भों के साथ जोड़कर पढ़ सकें। यह एक कठिन और श्रमसाध्य काम है, जिसे कुबेरनाथ राय ने अपनी चेतना और मनीषा के साथ बेहद तन्मयता से संभव किया है। इस किताब को पढ़कर और इन शब्दों के आशयों को समझते हुए पांडुरंग वामन काणे के ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’ का स्मरण हो आता है, जहां ऐसे ढेरों शब्दों की जिज्ञासाएं सुलझाई गई हैं।
राम गाथा की तरह ही वानर गाथा और राक्षस गाथा भी अपने कथ्य और संप्रेषण में अतुलनीय हैं। ‘यक्ष’ और ‘राक्षस’ निबंध में नृतत्वशास्त्र, महाभारत, पुराण और अन्य संदर्भों से राक्षसों के व्यवहार, जीवनचरित और पराक्रम की चर्चा की गई है। राक्षस प्रजाति को वर्णित करते हुए वे पूरा भौगोलिक आख्यान रचते हैं कि इन जातियों की गाथा में राक्षस संस्कृति का क्या महत्व व योगदान रहा है। इसी तरह यक्ष की अवधारणा को चिन्हित करते हुए उन्होंने कुबेर, नाग, किरात आदि की मीमांसा भी तर्कपूर्ण ढंग से रची है। परिशिष्ट खंड में ‘राम ही पूर्णावतार थे’ जैसा निबंध अपनी भाषा-शैली में मन मोहता है। वहां भगवान राम के रसात्मक पक्ष को चित्रित करते हुए वे ढेरों उद्धरणों से रामत्व की प्रतिष्ठा करते हैं। वैष्णवता के दो प्रखर प्रतीकों श्रीराम और श्रीकृष्ण की अवधारणा को समझने के लिए यह निबंध मानक बन पड़ा है। इस लिहाज से देखें, तो ‘रामायण महातीर्थम्’ वाकई तीर्थ के सरोवर में उतरने जैसा है, जहां ज्ञान का जल आपका मन, मस्तिष्क निर्मल करता है।
मयूरपंख : आली री मेरे नैणां बाण पड़ी
प्रेम वाणी: मीरा
संपादक: अली सरदार जाफरी
कविता
पहला संस्करण, 2004
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए
प्रख्यात शायर अली सरदार जाफरी ने भक्तिकाल की अप्रतिम कवयित्री मीराबाई के पदों के व्याख्या की एक सुंदर संचयिता ‘प्रेम वाणी: मीरा’ संपादित की थी। 152 पदों के इस संकलन में जाफरी ने उन्हें ईसा से 700 वर्ष पूर्व यूनान की सेफो से तुलना करके देखा है। वे मीराबाई में भावों की तीव्रता को इस तरह देखते हैं- ‘मीरा इस दृष्टि से सेफो से श्रेष्ठ हैं कि सेफो का प्रेम हांड़-मांस के जिस्म और उसके विदित सौंदर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिंब की हैसियत रखते हैं, जिनकी सहायता से वह अपने भाव उन दिलों तक पहुंचाती हैं, जो श्रीकृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौंदर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।’
मीरा के पदों का बोलचाल की उर्दू और खड़ी बोली में किया गया अनुवाद एक अलग ही आस्वाद पैदा करता है, जो हिंदी-उर्दू के दोआबे को समावेशी बनाता है। बेहतरीन चयन और व्याख्या की किताब! -(यतीन्द्र मिश्र)
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