Book Review: महफिल में है कहानियां जो याद दिलाती हैं संगीत का जमाना, झांसी की रानी में स्वराज की लड़ाई की दास्तां
कलाविद् गजेंद्र नारायण सिंह की महफिल में हिंदुस्तानी संगीत के महत्वपूर्ण दौर को याद किया गया है। एक ऐसे दुर्लभ रस में भीगी हुई किताब जो अपने आप में ही ...और पढ़ें

किताबघर : रसिकप्रिय और लोकप्रिय के मध्य का उजाला
महफिल
गजेंद्र नारायण सिंह
संगीत/इतिहास
पहला संस्करण, 2002
बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना
मूल्य: 160 रुपए
समीक्षा : यतीन्द्र मिश्र
कलाविद् गजेंद्र नारायण सिंह ने भारतीय संगीत पर अभूतपूर्व काम किया है। संगीत की चर्चा के बहाने उन्होंने विभिन्न घरानों और उनकी तालीम, उस्तादों और उनकी विशिष्टताओं के साथ गायिकाओं, बाइयों, गौनिहारिनों और उनके आश्रयदाता राजा-महाराजाओं, सेठों और व्यापारियों की उस अंतरंग पटकथा को कई बार छोटी टीपों, संस्मरणों और लेखों में इस तरह रेखांकित किया कि वह पुराना दौर चलचित्र की भांति उनके लेखन में जीवंत हो उठा।
यह एक विचित्र बात है कि गुजरे जमाने की संगीत रवायतों को लेकर सभ्य समाज में ढेरों भ्रांतियां प्रचलित रही हैं। उसे अक्सर आमोद-प्रमोद तथा विलासिता के संदर्भ में नीची नजरों से देखा जाता रहा, जिसका असर यह हुआ कि उस परंपरा की कई दुर्लभ बातें, संगीत की बारीकियां और कला में उसके उत्कर्ष का जायजा लगभग बिसरा दिया गया।
इस हवाले से गजेंद्र नारायण सिंह जैसे रचनाकारों का काम ऐतिहासिक अभिप्राय ग्रहण करता है, जिन्होंने इन कलाओं के संदर्भ में प्रचलित दुराग्रहों को यथासंभव दूर करने और उनके सही संदर्भों को प्रस्तुत करने की योजना प्रस्तावित की। बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित उनकी कृति ‘महफिल’ इसी अर्थ में एक बड़ी लकीर खींचती है। बाइयों और गौनिहारिनों के जीवन के अनछुए पहलुओं और उनके संगीत से उठने वाली दंतकथाओं का एक विशेष कालखंड के लिए बड़ा अभिप्राय रहा है।
वे कला को उसके सबसे शाश्वत अर्थों में समझने की पैरवी करते हैं, जो समाज विज्ञान के पाठ की तरह भी नजर आता है। यह कहा जाना चाहिए कि भारतीय सांगीतिक लेखन में गजेंद्र नारायण सिंह जैसे चुनिंदा लोग ही मौजूद रहे हैं, जिन्होंने संगीत को विचार की दृष्टि से परखने की चेष्टा की।
इसी संदर्भ में भारतीयता की अवधारणा को केंद्रस्थानीय मानकर संगीत और संस्कृति के लेखन में जिन रचनाकारों ने योगदान किया है, उनमें हम प्रेमलता शर्मा, सुशीला मिश्र, मोहन नाडकर्णी, चेतन करनानी, राहुल बारपुते और ठाकुर जयदेव सिंह को याद कर सकते हैं।
‘महफिल’ में हिंदुस्तानी संगीत के एक महत्वपूर्ण दौर महफिली संगीत के जमाने को याद किया गया है, जो अब सिर्फ इतिहास के पन्नों में सिमटा हुआ है और जिसकी झलक हमें किताबों, डाक्यूमेंट्री फिल्मों और अभिलेखागारों में ही मिलती है।
यह एक तरह से उस इतिहास का दस्तावेजीकरण भी है, जो भले ही संगीत का लेखा-जोखा बनाती है, मगर वह कई पेचीदा गलियों से गुजरते हुए हमारे भारतीय समाज के राजनीतिक, सांस्कृतिक विकास और उसके आपसी तनाव को भी दर्शाती है।
सैकड़ों कलाकारों और अनगिनत महफिलों की कहानियों से सराबोर यह किताब एक कोश ही है, जिसमें ढेरों ऐसी कथाएं सूक्तियों में चमक रही हैं, जिनसे एक बड़ी कहानी या उपन्यास का कथानक तैयार किया जा सकता है।
किताब की सुगंध छोटी-छोटी बानगियों से समझी जा सकती है, जिसमें कम कहकर बड़ा इतिहास लिख दिया गया। जैसे, भरतनाट्यम नृत्यांगना बालासरस्वती ने कथक सम्राट पंडित शंभू महाराज के नृत्य का भावपक्ष देखते हुए यह इच्छा व्यक्त की थी- ‘जी करता है कि उनके पास बैठकर फिर से शिक्षा ग्रहण करूं।’
उस्ताद अमीर खां ने दिल्ली में नैना देवी के बंगले पर रोशनआरा बेगम को सुनकर यह कहा था- ‘औरतों में रोशनआरा से बेहतर गाने वाला कोई नहीं।’ महफिली संगीत के लिए बनारस की बड़ी मोतीबाई का यह दावा- ‘महफिलों में किसी चीज की अदायगी बहुत देर तक नहीं होती थी। गाना-बजाना थोड़ा ही, पर उसमें चोट होती थी।’
एक दिलचस्प किस्सा यह भी कि राजेश्वरी बाई के कोठे की महफिल में मौजुद्दीन खां साहब ने राग भैरवी में ‘केवड़िया खोलो राजा रस की बूंद परी’ सुनाकर लोगों पर अपनी मोहिनी गायिकी का जादू कर दिया था। ऐसे अनगिनत किस्से, उस्तादों और बाइयों के लिए दबी जुबान में चर्चित इश्क-मुहब्बत के ब्यौरे, महफिलों में उस्तादों के बीच उछाले जाने वाले लतीफे और बाकायदा मुक्तकंठ सराहना के बोलों से लबालब भरा हुआ है ‘महफिल’ का हर पृष्ठ। एक ऐसे दुर्लभ रस में भीगी हुई किताब, जो अपने आप में ही एक मील-स्तंभ है।
स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के गरिमामय उत्सव के कालखंड में इस बात का स्मरण ही सुखद है कि हमारे दौर में कुछ ऐसे बड़े दस्तावेजों को हमेशा के लिए दर्ज करने वाले रसिक रचनाकार भी मौजूद रहे। आज की पीढ़ी उस दौर को वर्तमान में दोबारा से जी नहीं सकती है, मगर इस जीवंत और प्रामाणिक लेखन की रोशनी में उस समय को महसूस अवश्य कर सकती है, जिसने संगीत और नृत्य का एक बड़ा वृत्त उकेरा है।
गजेंद्र नारायण सिंह इस लेखन में उस दौर का सजीव चित्रण करते हुए नर्तकियों के पहनावे, पेश्वाज, घुंघरू के प्रकार, साजिंदों का इंतजाम, साजों की बात, महफिल में पेश की जाने वाली मिठाइयों, शर्बतों और पान-हुक्के का विवरण भी जिस बेलौस अंदाज में लिखते हैं, उसे पढ़ना गजब का पाठकीय अनुभव मुहैया कराता है। ढेरों नामचीन और अनाम बाइयों, श्रेष्ठ उस्तादों और कलावंतों के साथ गुणी व रसिक समाज की चर्चा से सजी हुई ‘महफिल हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और उसके साथ उसके कहकहों से स्पंदित एक बेजोड़ ग्रंथ है, जो किसी भी बड़ी इतिहास की पुस्तक से कम नहीं।
मयूरपंख : स्वराज्य की लड़ाई की दास्तां
झांसी की रानी
वृंदावनलाल वर्मा
उपन्यास
पहला संस्करण, 1946
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2019
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: 600 रुपए
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध वृंदावनलाल वर्मा का उपन्यास ‘झांसी की रानी’ काल की सीमाओं का अतिक्रमण करकेर्, ंहदी साहित्य में महान कृति के रूप में स्मरणीय है। यह तथ्य उपन्यास की प्रामाणिकता में बढ़ोत्तरी करता है कि उपन्यासकार के परदादा दीवान आनंदराय रानी लक्ष्मीबाई की ओर से लड़ते हुए वर्ष 1858 में मऊ की लड़ाई में मारे गए थे। गदर की कहानियों से वृंदावनलाल वर्मा का बचपन जिस तरह प्रभावित रहा, उसी की प्रतिश्रुति में यह उपन्यास लिखा गया।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देशभक्ति और भावनात्मकता के संगम में ढालकर प्रांजल हिंदी में रचित यह आख्यानपरक गद्य एक हद तक इतिहास होने की शर्तों को प्रस्तावित करता है। रानी लक्ष्मीबाई स्वराज्य के लिए लड़ी थीं, जिनकी इच्छा-संकल्पों और जीवन-चरित्र को झांसी के ढेरों बुजुर्गों, गदर के जमाने के दरोगा तुराबली, अजीमुल्ला, नवाब बन्ने जैसे अर्जीनवीसों से बात करके पाठ्य सामग्री संजोई गई। कलेक्ट्रट में मौजूद ढेरों दस्तावेजों, पत्रों ने इसकी प्रामाणिकता सिद्ध की। वीरता और ओज की एक अनुपम मिसाल, जो भारत का गौरव बखानती है। -(यतीन्द्र मिश्र)

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