किताबघर में पढ़िए मछुआरे जीवन की जातीय स्मृतियों का कोलाहल और मयूर पंख में प्रेम और त्याग का नैतिक द्वंद्व
हम लगातार आपके पास किताबों के संग्रह से कुछ ऐसी किताबों की समीक्षा आपके बीच लाते हैं जो आपको जानकारी देने के साथ सोचने को मजबूर करती हैं। आज दो पुस्तकों मछुआरे और सरस्वतीचंद्र के अंश आपके बीच लेकर आए हैं।

मछुआरे
तकषी शिवशंकर पिल्लै
अनुवाद: भारती विद्यार्थी
उपन्यास
पहला संस्करण, 1956
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2019
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली
मूल्य: 125 रुपए
किताबघर, मछुआरे जीवन की जातीय स्मृतियों का कोलाहल
तकषी शिवशंकर पिल्लै मलयालम भाषा के शीर्षस्थ रचनाकारों में गिने जाते हैं। उनका लेखन आधुनिक भारत के समकालीन परिदृश्य का जीवंत चित्रण करने के साथ ही उसके सामाजिक, सांस्कृतिक आहटों को पहचानने में सक्षम माना जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के हीरक जयंती वर्ष में पिल्लै के कालजयी उपन्यास ‘चेम्मीन’ के हिंदी अनुवाद ‘मछुआरे’ का विश्लेषण इस संदर्भ में भी कारगर लगता है कि हम मलयालीभाषी जनता के सुख-दुख और सामाजिक ताने-बाने को समझने के साथ वृहत्तर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य का संधान कर सकें कि समाज में वंचितों के जीवन की गाथा भी समानांतर रूप से मुख्य धारा में मौजूद रहवासियों की तरह ही जीवन स्पंदन से भरपूर रही है। इस समुदाय का आंतरिक विन्यास उसी तरह ढेरों जीवन मूल्यों का मुखापेक्षी रहता आया है, जिस तरह उच्च वर्ग और अग्रणी जातियों के समुदायों में संभव होता रहा है। ‘चेम्मीन’ या ‘मछुआरे’ जब पहली बार 1956 में प्रकाशित हुआ, तब इसने मछुआरों के समाज के लोक विश्वास, परंपराओं, कुरीतियों, व्रत-उपवासों, दैनंदिन का जीवन, कार्य-व्यापार और जीवित रहने की शर्तों का समग्र मूल्यांकन प्रस्तुत किया था। एक ऐसे समाज का प्रतिबिंब दिखाने में तकषी शिवशंकर पिल्लै सक्षम हुए, जो उनसे पहले केरल राज्य के सुदूरवर्ती तटों में रहने वाले मछुआरों के जीवन में संभव होते हुए भी व्यापक समाज की निगाह से ओझल रहा। इस महाकाव्यात्मक उपन्यास का मूल बीज करुणा और दुस्वप्न के बीच कहीं गमन करता है। हालांकि उपन्यासकार ने इसे एक रुमानी करुण कथा के रूप में अभिव्यक्ति दी, जिसमें कथानक तीन विभिन्न दिशाओं की ओर खुलता है। उपन्यास केरल के समुद्रतटीय इलाके में रहने वाले एक मछुआरे की महत्वाकांक्षा से आरंभ होता है, जिसके लिए एक प्रेमी युगल के बीच प्रेम संबंध कथानक का मुख्य आलंब बनता है।
कथा के ढेरों प्रसंगों के बीच, समानांतर रूप से चलने वाले प्रेम संबंधों के उलझाव के साथ अंतर्कथा की तरह मछुआरा समाज में प्रचलित मान्यताओं और मिथकों की पुराकथाएं आगे बढ़ती हैं, जो उनके सादगी भरे जीवन को पीढ़ियों से प्रभावित करती आ रही हैं। मछुआरा समाज में प्रचलित एक मिथक कथा के अनुसार- सागर की देवी उस मछुआरे का जीवन तहस-नहस कर देती हैं, जिसकी पत्नी अपवित्र हो जाती है। मिथक की अवधारणा में यह विश्वास पनपता है कि समुद्र का किनारा पवित्र होना चाहिए और इस पवित्रता की नैतिक जिम्मेदारी उसके किनारे पर रहने वाली स्त्रियों की है। इस विडंबना के सूत्र को कथा का प्रारूप बनाते हुए शिवशंकर पिल्लै उन तमाम खोखली मान्यताओं को रेशा-रेशा उघाड़ देते हैं, जिन्हें आज भी भारत की अधिकांश आबादी और जातियां संत्रास की तरह ढोए जा रही हैं। दरअसल ‘चेम्मीन’ का कथानक एक प्रेमकथा के रूपक को सामाजिक विसंगतियों की आड़ में प्रश्नांकित करने में सक्षम होता है, जिसके चलते मलयाली समाज में गरीबी का जीवन बसर करने वाले मछुआरों की मार्मिक कथा सांस लेती है। यहां गरीब ग्रामीण तबके में प्रचलित यह रुढ़ि कि बेटी का विवाह जल्दी कर देना चाहिए, अपनी मार्मिकता में उपस्थित है। यह ऐसे नियम की तरह समुद्रतटीय मछुआरों (घटवारों) के यहां प्रचलित रहा, जिसका उल्लंघन वे किसी भी हालत में कर नहीं सकते थे। इसी तरह एक नियम यह भी कि केवल धीवर (जालिया) समुदाय के मछुआरों को ही नाव, जाल खरीदने और उसका मालिक होने का अधिकार है, जो विशेष ढंग से एक खास समुदाय के आर्थिक वर्चस्व को स्थापित करता है। इन्हीं परंपराओं में एक नियम यह भी लागू रहा कि कोई भी नया काम करने से पहले समुदाय के मुखिया से औपचारिक अनुमति लेना जरूरी था। तकषी इन सारे नियमों से बनने वाले सामाजिक, राजनीतिक टकरावों के द्वारा मछुआरा समाज का मर्म बेधते हैं। वे एक खास समुदाय की सच्चाई को उजागर करते हुए, चुपचाप बिना निर्णायक बने पूरे भारतीय समाज की सच्चाई के खोखलेपन को नंगा दिखाने का रंगमंच सजाते हैं। इस लिहाज से यह उपन्यास एक विशेष समुदाय के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन को समझने का साहित्यिक गजेटियर का रूप ले लेता है। ‘चेम्मीन’ के बहाने हम मछुआरों की आर्थिक दुर्दशा, सामाजिक पिछड़ेपन, महाजनों और उच्च तबके द्वारा उनके शोषण, समुदाय के मुखिया द्वारा व्यवसाय पर अनेकानेक प्रतिबंध, सूदखोरी और बिचौलियों के आतंक का निर्मम मूल्यांकन देखते हैं।
उपन्यासकार ने ‘मछुआरे’ में वंचित समाज का सत्य उसी तरह उकेरा है, जिस तरर्ह ंहदी में प्रेमचंद और बांग्ला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने दर्ज किया है। इस उपन्यास को शायद इसी कारण गरीब समाज का ऐसा बड़ा आख्यान माना जाता है, जिसके आईने में एक पूरी जातीय चेतना अभिशप्त होकर जीती है और अपने रीति-रिवाजों के बंधनों में जकड़ी रहती है। करुतम्मा, चक्की, चेंपन, परिक्कुटी, पलनी, पंचमी और ढेरों यादगार किरदारों के साथ रचा गया यह उपन्यास कई विरोधाभासों को समेटे हुए समाज में उच्च और निम्न वर्ग के वर्गीय अंतर का जीवंत सिनेमा है। जीवन के प्रति आस्था और निर्ममता के दो विपरीत ध्रुवों के बीच झूलता हुआ यह उपन्यास एक ऐसा गहरा सामाजिक पाठ भी है, जिस पर हर दौर में प्रासंगिक चर्चाएं होती रहेंगी।
सरस्वतीचंद्र
गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी
अनुवाद: डा. नवनीत ठक्कर
उपन्यास
पहला संस्करण, 1901
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2010
लोक शिक्षा मंच, शाहदरा, दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए
मयूरपंख, प्रेम और त्याग का नैतिक द्वंद्व
गुजराती उपन्यासकार गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी द्वारा लिखित ‘सरस्वतीचंद्र’ अपने दौर को रेखांकित करने वाला ऐसा वृहद उपन्यास है, जिसने गुजराती समाज के बहाने पूरे भारतीय परिदृश्य में व्याप्त मध्यमवर्गीय सुसंस्कृत संयुक्त परिवारों के आपसी अंतद्र्वंद्व और सामाजिक सरोकारों को मानवीय धरातल पर परखने की कोशिश की है। दो गुजराती ब्राह्मण परिवारों के अंतर्संबंधों पर आधारित इसका कथानक दूसरा विवाह, सौतेली मां, व्यवसाय और स्वार्थ के लिए घरों में होने वाली दुरभिसंधियों का ऐसा मकड़जाल बुनता है, जिससे गुजरकर 100 बरस पहले के भारतीय समाज के आंतरिक चरित्र को देखा जा सकता है।
आदर्शवादी नायक सरस्वतीचंद्र, नैतिक मूल्यों के प्रति समर्पित कुमुदसुंदरी, धूर्तता में निपुण गुमान और परंपरा निर्वाह करते लक्ष्मीनंदन की कहानी उस मुकाम पर पहुंची है, जहां कर्तव्यपरायणता, चारित्रिक पतन, सामाजिक निष्ठा, जीवन मूल्यों तथा नैतिक विवेक से सही राह पर चलने के बीच लगातार द्वंद्व मचा हुआ है। नाटकीयता और भावुकता के सहमेल से विकसित ‘सरस्वतीचंद्र’ पठनीय गद्य है, जिस पर गोविंद सरैया र्ने ंहदी में संवेदनशील फिल्म बनाई थी।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।