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    अजीब दास्तां है ये.. लता मंगेशकर की दुर्लभ खोज, पढ़िए- अज्ञेय का कालजयी कविता-संग्रह ‘आंगन के पार द्वार’

    By Abhishek AgnihotriEdited By:
    Updated: Sun, 13 Feb 2022 10:59 AM (IST)

    सिनेमा की दुनिया में लता मंगेशकर और हरीश भिमानी का साथ लंबे समय तक रहा। उन्होंने उनके व्यक्तित्व को नजदीक से जाना और पुस्तक रूपाकार पा सकी। लताजी के साथ रहने के दुर्लभ अवसर से अन्वेषण की राह आसान हुई।

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    किताबघर और मयूरपंख में पुस्तक की समीक्षा।

    किताबघर : लता मंगेशकर की दुर्लभ खोज

    लता दीदी: अजीब दास्तां है ये...

    हरीश भिमानी

    जीवनी

    पहला संस्करण, 2009

    पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2017

    वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

    मूल्य: 495 रुपए

    समीक्षा : यतीन्द्र मिश्र

    भारत की सांस्कृतिक पहचान और आवाज का पर्याय बन चुकी महान पाश्र्वगायिका लता मंगेशकर के निधन से इस देश में जो रिक्तता पैदा हुई है, उसकी भरपाई शायद अगली शताब्दियों में मुश्किल से संभव हो। भारतीयता और देशप्रेम की मिसाल के तौर पर लगभग एक सदी तक भारतीय संगीत को प्रभावित करने वाली इस कलाकार के जीवन की बहुत सारी ऐसी कथाएं हैं, जो हमारे समाज के लिए प्रेरणा बन गईं। यह महत्वपूर्ण है कि भारत की स्वतंत्रता के साथ ही लता मंगेशकर की सांगीतिक यात्रा शुरू हुई थी। जहां 1947 में हमें स्वतंत्रता मिलती है, उसी वर्ष दत्ता डावजेकर के संगीत में ‘आपकी सेवा में’ से इस पाश्र्वगायिका का फिल्मी करियर आरंभ होता है। इस तरह देखा जाए, तो भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के नवजागरण काल से आरंभ हुए सांस्कृतिक इतिहास बनने में लता मंगेशकर एक केंद्रस्थानीय उपस्थिति रही हैं। ऐसे में, उनकी जीवनी और कला साधना से संबंधित इस किताब की चर्चा भी सामयिक हो जाती है, जो स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में एक कारगर दस्तावेज है। लता जी पर्र हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और अन्य भाषाओं में विपुल लेखन, शोध, साक्षात्कार और विश्लेषणात्मक अध्ययन हुए हैं। प्रसिद्ध रेडियो प्रस्तोता हरीश भिमानी की ‘लता दीदी: अजीब दास्तां है ये...’ का स्मरण एक बार फिर से पुनर्पाठ के लिए जरूरी बन जाता है। सिनेमा की दुनिया में लता मंगेशकर और हरीश भिमानी का साथ लंबे समय तक रहा और लेखक ने उनके साथ 21 देशों, 53 शहरों और 139 कार्यक्रमों में उद्घोषक की जिम्मेदारी निभाई। इसके चलते उनके व्यक्तित्व को नजदीक से जानने का जो दुर्लभ अवसर उन्हें मिला, उससे एक ऐसे अन्वेषण की राह आसान हुई, जिससे यह पुस्तक रूपाकार पा सकी। यह हैरान करने वाली बात है कि लेखक की खोज का जो आरंभ एक व्यावसायिक भेंट से हुआ था, उसकी परिणति शुद्ध कलात्मक और वैचारिक आधार पर हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण सांगीतिक उपस्थिति के जीवन को खंगालने, परखने और सूक्ष्मता से परिभाषित करने में सार्थक हो सका। मूल रूप में यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गई थी, जिसर्का ंहदी अनुवाद संगीतप्रेमियों को बाद में सुलभ हो सका।

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    उन्हें समझने के फेर में ढेरों महत्वपूर्ण पत्रकारों, रचनाकारों और कलाकारों ने समय-समय पर अपनी कलम चलाई, जिनमें पंडित कुमार गंधर्व, पु.ल. देशपांडे, प्रभाष जोशी, अजातशत्रु, नसरीन मुन्नी कबीर, जयप्रकाश चौकसे, मंदार बिच्चू, राजू भारतन, विश्वास नेरूरकर तथा सुमन चौरसिया प्रमुख हैं। भिमानी की किताब विदेश कार्यक्रमों में यात्रा करते हुए लता जी के साथ बिताए हार्दिक पलों की ऐसी सुरीली दास्तान भी है, जो कई स्तरों पर एक ही समय में गमन करती है। मसलन, जब वे यात्राओं में किसी एयरपोर्ट पर साथ बैठे हुए बात कर रहे हैं, तो पूरा दृश्य वर्तमान में घटते हुए किसी प्रश्न या याद के हवाले से पुराने दौर में लौट जाता है, जहां से लेखक उनके आरंभिक संघर्ष और पारिवारिक बातों की चर्चा करने लगता है। उसी समय कुछ ऐसी स्थापनाएंभी नजर आती हैं, जिसे रचनाकार ने अपने व्यक्तिगत अनुभव से अर्जित किया है। इस प्रकरण में सबसे मानीखेज बात यह है कि वे उनके जीवन के अज्ञात पहलुओं की जानकारी पाते हुए उसे इतनी सादगी से परोसते हैं कि उन गैरमामूली संदर्भों से भी इस पाश्र्वगायिका का जीवन विराट दिखने लगता है। जैसे, लंदन की यात्रा के दौरान बातचीत में संगीतकार मदन मोहन का जिक्र निकल आता है और ‘वह कौन थी’ फिल्म के गीत ‘नैना बरसे रिमझिम-रिमझिम’ पर महत्वपूर्ण संस्मरण हाथ लगते हैं। इसी तरह सितंबर, 1980 में वाशिंगटन, अमेरिका की डायरी लिखते हुए लता जी की पसंद-नापसंद के खाने की चीजों की चर्चा से ओ.पी. नैयर के संदर्भ की बात सामने आती है।

    20 अध्यायों और एक परिशिष्ट में विभाजित यह किताब लता मंगेशकर के बचपन, माता-पिता के जीवन, नाटक कंपनी ‘बलवंत संगीत मंडली’ के ब्यौरों, मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की मराठी नाट्य संगीत में उपस्थिति और उनकी मृत्यु, पिता के श्राद्ध का मार्मिक विवरण समेत हर उस पहलू पर रोशनी डालती है, जिससे लता मंगेशकर विमर्श को विस्तार मिलता है। कुछ छोटी बातों का जिक्र इतने आस्वाद से किया गया है कि आपको लगता ही नहीं कि इस किंवदंती बन चुकी गायिका से आप सीधे रूबरू नहीं हैं- केवल वक्त की पाबंदी काफी नहीं, काम शुरू करने में भी देर क्यों हो, गला खराब होने के कारण ही रिेकॉर्डिंग कैंसिल करने की एकमात्र वजह, वरिष्ठ संगीतकारों, समवयसी पाश्र्वगायकों के साथ आत्मीय रिश्ते, नाना चौक और प्रभुकुंज के घरों के विवरण, मराठी फिल्मों में शुरुआती दिनों में अभिनय, मास्टर विनायक की फिल्म कंपनी में काम, अपने गीतों का रस न ले पाने का मामला- जैसे तथ्य हरीश भिमानी की किताब को जीवंत, रस से भरा हुआ और संगीत रसिकों के लिए आत्मीय बनाते हैं। एक ऐसा अनुपम सांगीतिक दस्तावेज, जिसे बरसों बरस पढ़ा जाता रहेगा। एक संघर्षशील स्त्री की जिजीविषा और अभूतपूर्व सफलता का लेखा-जोखा, उनके गीतों के बनने की रोचक प्रक्रिया तथा अनुभवों को पढ़ने के लिए यह पुस्तक हमेशा ही प्रासंगिक बनी रहेगी।

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    आंगन के पार द्वार

    अज्ञेय

    कविता-संग्रह

    पहला संस्करण, 1961

    पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2009

    भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

    मूल्य: 100 रुपए

    अज्ञेय का कालजयी कविता-संग्रह ‘आंगन के पार द्वार’ उनकी रचनात्मकता का ऐसा उत्कर्ष है, जिसमें भारतीय चिंतन परंपरा की विश्व से संयोजन की क्षमता साकार हो उठी है। अज्ञेय एक प्रश्नकर्ता कवि के रूप में प्रकृति और समाज के बीच ऐसा पुल बनाते हैं, जिससे उनकी जिज्ञासाएं वृहत्तर अर्थ ग्रहण करती हैं। यह संग्रह इसलिए अद्वितीय है कि यहां उन्होंने प्रश्न छेड़ने में ही नहीं, बल्कि उत्तर पाने में भी सफलता अर्जित की है। फिर यह उत्तर उन्होंने बाहर के समाज से नहीं, बल्कि भीतर के संसार से अर्जित किए हैं।

    ‘आंगन के पार द्वार’ प्रांजल, गंभीर, चिंतनपरक और अपूर्व कल्पनाशीलता का उद्गम है। इसमें संकलित उनकी महत्वपूर्ण कविता-शृंखला ‘चक्रांत शिला’ समेत ‘असाध्य वीणा’ जैसी अमर कविता मौजूद है। अंत:सलिला खंड में ‘सरस्वती पुत्र’, ‘बना दे चितेरे’, ‘भीतर जागा दाता’, ‘पलकों का कंपना’, ‘एक उदास सांझ’, ‘चिड़िया ने ही कहा’, ‘अंधकार में द्वीप’ और ‘अंत:सलिला’ जैसी कविताएं संकलित हैं। अज्ञेय की इन विचारपरक भारतीय दृष्टि की कविताओं का महत्व हमेशा ही प्रासंगिक बना रहने वाला है। -(यतीन्द्र मिश्र)

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