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    किताबघर में पढ़िए पाप और पुण्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और मयूरपंख में सोचने को विवश करती बेधक रचनाएं

    By Abhishek VermaEdited By:
    Updated: Sun, 08 May 2022 09:27 AM (IST)

    हम लगातार आपके पास किताबों के संग्रह से कुछ ऐसी किताबों की समीक्षा आपके बीच लाते हैं जो आपको सोचने को मजबूर करती हैं। आज दो पुस्तकों भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा और हरिशंकर परसाई की सदाचार का ताबीज के अंश आपके बीच लेकर आए हैं।

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    भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा और हरिशंकर परसाई की सदाचार का ताबीज का मुख्य पृष्ठ।

    किताबघर

    पाप और पुण्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

    कुछ रचनाएं ऐसी होती हैं, जो काल की सीमा लांघकर हर समय नई और वैचारिक बनी रहती हैंर्। हिंदी साहित्य की दुनिया में कुछ ऐसे उपन्यास लिखे गए, जिन्होंने अपने को समय निरपेक्ष बनाते हुए सदैव वर्तमान का अतिक्रमण किया है। भारतीय परंपरा और चिंतन की विराट संकल्पना में ऐसे ढेरों उपन्यासों की महती भूमिका रही है। मानक के तौर पर, हम ‘गोदान’ (प्रेमचंद), ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी) ‘मैला आंचल’ (फणीश्वरनाथ रेणु), ‘तमस’ (भीष्म साहनी), ‘काला जल’ (शानी), ‘बहती गंगा’ (रुद्र काशिकेय), ‘झूठा सच’ (यशपाल) के साथ भगवतीचरण वर्मा की ‘चित्रलेखा’ का स्मरण कर सकते हैं। यह वर्ष जब स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वें वर्ष की उपलब्धियों का ब्यौरा समेटने में संलग्न है, तब ऐसे में इन चुनिंदा औपन्यासिक कृतियों की पड़ताल भी सामयिक बन जाती है। आज का स्तंभ ‘चित्रलेखा’ पर एकाग्र है, जो भगवतीचरण वर्मा की रचनाओं में मील स्तंभ माना जाता है। उपन्यास, पाप और पुण्य की समस्या को केंद्र में रखकर इन शाश्वत प्रश्नों का सामाजिक और व्यावहारिक समाधान खोजने में विन्यस्त है। बेहद लोकप्रिय और्र ंहदी सिनेमा की दुनिया में दो बार फिल्मायी जा चुकी इसकी कथा भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ एक सुंदर कथानक का इंद्रजाल बुनती है, जिसमें महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य- श्वेतांक और विशालदेव क्रमश: शासक बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। इनके साथ रहते हुए श्वेतांक और विशालदेव नितांत भिन्न जीवनानुभवों से गुजरते हैं, जिनके माध्यम से पाप और पुण्य की व्याख्या संभव होती है। एकबारगी देखने पर यह उपन्यास सामयिक प्रश्नों से अलग, एक दूसरी दुनिया के कौतूहल को सुलझाने वाला पाठ लगता है, जिसमें कथा-विन्यास, भाषा-कौशल तथा जीवन मूल्यों के लिए कुछ आध्यात्मिक ढंग का रहस्य बुना गया है। मगर पूरे उपन्यास से गुजरते हुए जब हम इसके दार्शनिक भावों से बार-बार टकराते हैं, तो समानांतर स्तर पर यह बात मुखरित होती है कि जीवन का समाहार केवल रोजनामचे में दर्ज होने वाली समस्याएं ही नहीं हैं, बल्कि मनुष्य बने रहने के भाव को समेटने वाले ढेरों शाश्वत प्रश्न भी कई दफा मन का कोना संशय से भरते हैं।

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    मनोवैज्ञानिक ढंग से यदि हम ‘चित्रलेखा’ की कथा का सार-संक्षेपण करें, तो यह बात स्पष्ट होती है कि मनुष्य मूल्यों को लेकर जीवनभर संघर्षरत रहता है, इस उधेड़बुन में अपने लिए मानक और वैचारिकी तय करता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित? क्या श्रेष्ठ है और क्या त्याज्य? क्या सार्थक है और क्या निरर्थक? सभी के समाधान का रास्ता खोजते हुए एक प्रकाश किरण आपके हाथ लगती है, जिससे आप अपने ढेरों संशयों को हल करने की युक्ति पाते हैं। यह अलग बात है कि इस कृति की कहानी आपको वहां तक पहुंचने का सुगम मार्ग ‘पाप’ और ‘पुण्य’ के प्रश्नों के सहारे समझाती है। आत्मसंशय से गुजरते हुए आत्मरति तक पहुंचना और फिर आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ना शायद एक बेहतर साहित्यिक कृति का उद्देश्य होती है। यह अकारण नहीं है कि ‘चित्रलेखा’ को पढ़ते हुए कई बार दार्शनिक ढंग से सामंती बीजगुप्त का जीवन कहीं अधिक उद्देश्यपूर्ण नजर आता है, जो भोग-विलास में डूबा है, जबकि साधना पथ पर चलने वाले योगी कुमारगिरि का हश्र निरुद्देश्य भटकते हुए उस प्राणी में तिरोहित हो जाता है, जो संसार से कटा हुआ है और समष्टि के प्रश्नों को भी हल करने में कहीं चूक गया है। यहीं पर नायिका चित्रलेखा की सर्जना तर्कपूर्ण ढंग से विकसित होती है, जो इन दो विपरीत धु्रवों पर मौजूद मानसिकता वाले किरदारों के बीच पुल का काम करती है। उसका चरित्र असाधारण गुणों से भरपूर है, जिसकी व्यंजना ही इस आशय के तहत की गई है कि समाज में नीची निगाह से देखी जाने वाली एक नर्तकी या वेश्या का चरित्र भी औदात्य और संभावना से परिपूर्ण हो सकता है। वह भी किसी भटके हुए को राह दिखा सकती है और समाज में नीची पायदान पर पाए जाने वाले तिरस्कृत समुदाय के लिए आदर्श बन सकती है।

    ‘चित्रलेखा’ की योजना संश्लिष्ट है, उसका विचार शास्त्रीय ढंग से कलात्मक अभिव्यक्ति के बहाने मनुष्यता के प्रश्नों को रेखांकित करने में असरदार ढंग से काम करता है। परंपरा में जिस ‘काम’ और ‘अध्यात्म’ की युक्ति से एक सृष्टि ‘कामाध्यात्म’ या ‘शृंगार भक्ति’ की देखी जाती है, उसमें ‘चित्रलेखा’ की रचना पूरी तरह चरितार्थ होती है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए यही दोनों युक्तियां जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ और दिनकर की ‘उर्वशी’ से भी परिलक्षित होती हैं। यह अलग बात है कि यहां पूरा कथा विस्तार काल्पनिक है, जिसे यथार्थ की परिधि में मनोवैज्ञानिक ढंग से हल करने की कोशिश की गई है। उपन्यास का अंत, भारतीय नाट्यशास्त्र की फलश्रुति सरीखा है, जब महाप्रभु रत्नांबर टिप्पणी करते हैं- ‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।’ अंत तक आते हुए मनुष्य की मन:प्रवृत्ति, दृष्टिकोण, विवशता और इच्छा का विन्यास वृहत्तर अर्थ में खुलता है। हम एक बड़ी कृति से जितनी अपेक्षा करते हैं, ‘चित्रलेखा’ वह सब सुलभ कराती है।

    चित्रलेखा

    भगवतीचरण वर्मा

    उपन्यास

    पहला संस्करण, 1934

    पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2019

    राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

    मूल्य: 495 रुपए

    मयूरपंख

    सोचने को विवश करती बेधक रचनाएं

    हिंदी व्यंग्य के शिखर रचनाकार हरिशंकर परसाई का लेखन सदैव व्यवस्था, समाज और शासन तंत्र के दोहरेपन, विद्रूप और विडंबनाओं को रेखांकित करने वाला रहा है। उनकी रचनाओं में इसीलिए तात्कालिक समस्याओं की अभिव्यक्ति आकस्मिक ढंग से अपना कथानक चुनती है। यह भी गौरतलब है कि वे समाज सुधार की पैरवी करने की जगह उसे बदलने के लिए आपकी चेतना में एक हलचल करना चाहते हैं, जो किसी भी समाज में एक सजग नागरिक की पहचान होती है।

    उनके कई प्रसिद्ध व्यंग्य संग्रहों में ‘सदाचार का तावीज’ एक मानक उदाहरण के तौर पर पढ़ा जा सकता है, जब वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक परिवेश की विसंगतियों की व्यापकता को व्यंग्य संकेतों और उसकी प्रभावोत्पादकता में गढ़ते हैं। इस संचयन के साथ ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘वैष्णव की फिसलन’ और ‘पगडंडियों का जमाना’ जरूर पढ़नी चाहिए। इन व्यंग्य रचनाओं में जीवन से साक्षात्कार के वे मौके मौजूद हैं, जब विसंगतियों पर बेबाकी से चोट होती है। इसीलिए उनका लेखन मनोरंजन से अधिक सोचने को विवश करता है।

    सदाचार का ताबीज

    हरिशंकर परसाई

    व्यंग्य संग्रह

    पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2004

    भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली

    मूल्य: 135 रुपए