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Book Review: किताबघर-मयूरपंख में पढ़िए रामायण का काव्यमर्म और गार्सां द तासी की संपूर्ण समीक्षा

‘रामायण का काव्यमर्म’ व्याख्यान रूप में प्रस्तुत हुआ था जिसका बाद में एक किताब के रूप में संकलन हुआ। फ्रांस के विद्वान गार्सां द तासी उन आरंभिक भाषाविज्ञानियों में रहे हैं जिन्होंने उर्दू-हिंदी अथवा हिंदुस्तानी साहित्य का पहला इतिहास-ग्रंथ लिखा।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sat, 09 Oct 2021 06:01 PM (IST)Updated: Sat, 09 Oct 2021 06:01 PM (IST)
Book Review: किताबघर-मयूरपंख में पढ़िए रामायण का काव्यमर्म और गार्सां द तासी की संपूर्ण समीक्षा
साहित्य का संसार है किताबघर और मयूरपंख कालम।

किताबघर : रामायण की करुणा का आख्यान

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पंडित विद्यानिवास मिश्र की ‘रामायण का काव्यमर्म’ उन अद्भुत पुस्तकों के वांङमय में अपना स्थान रखती है, जो भारतीय चेतना का विस्तार करती हैं। ‘रामायण का काव्यमर्म’ व्याख्यान रूप में प्रस्तुत हुआ था, जिसका बाद में एक किताब के रूप में संकलन हुआ। पंडित जी रामकाव्य का अवलंबन लेकर भारतीय वैचारिकी, साहित्यिक और कलात्मक अभिव्यक्ति की विवेचना करते हैं, जो व्यापक होने के साथ ही सारगर्भित भी है। यह पूर्णत: काव्य-यात्रा है, जो रस-सिद्धांत और अर्थवत्ता के धरातल पर संभव हुई है। संस्कृत के कवियों वाल्मीकि, भास, कालिदास, और भवभूति की रचनाओं की वीथिकाओं से होते हुए हम तुलसी के राम तक पहुंचते हैं। अंतत: हमारा साक्षात्कार लोक में समाए हुए उन राम से होता है, जिनके बिना कोई भी पर्व, अनुष्ठान या परंपरा पूर्ण नहीं होती है। पंडित जी प्राच्य विद्या के अभूतपूर्व विद्वान थे और उन्होंने ‘महाभारत का काव्यमर्म’ नामक ग्रंथ की भी रचना की है। पर वे यहां लक्ष्य करते हैं कि जहां महाभारत अपने कलेवर में वृहद है, वहीं रामायण अपनी अर्थवत्ता में बहुत गहरी है। इसीलिए रामायण की मीमांसा करना महाभारत की मीमांसा की अपेक्षाकृत कठिन है। परंतु पंडित जी ने इस दुष्कर कार्य को अत्यधिक कुशलता और मार्मिकता से संभव किया है।

रामायण में करुण रस की अधिकता है और हम इस पुस्तक में इसी करुण रस को विभिन्न आयामों से देखते हैं। रामायण से जनमानस के जो प्रश्न हैं, लेखक ने उनका भी निवारण करने की चेष्टा की है। जैसे शंबूक वध और सीता निष्कासन जैसे प्रसंग होने के कारण कुछ लोगों का मानना है कि उत्तरकांड वाल्मीकि रामायण का अंग नहीं है। पंडित जी इस दावे से संतुष्ट नहीं हैं और इसका खंडन करते हैं। ऐसा करने के साथ ही वे सीता के चरित्र को अत्यंत ऊंचा स्थान देते हैं एवं अनेक काव्य के दृष्टांतों से सीता के दुख, शोक और तेजस्विता को रेखांकित करते हैं। इस पुस्तक में चार अध्याय हैं- वाल्मीकि, भवभूति, तुलसी और जन-जन के राम। इन सबमें उस काव्य विशेष में राम की उपस्थिति को दर्ज करते हुए व्याख्यान संकलित हैं। एक अति-परिचित कथा को साहित्य के अप्रतिम प्रयोगों की दृष्टि से देखना रोमांचित करता है। हम राम की कहानी सुनते हुए कभी कालिदास की उपमाओं के सौंदर्य में खो जाते हैं, तो कभी भवभूति के मंच संचालन को समझकर विभोर होते हैं। तुलसी की काव्य धरोहर को समझना, भक्ति की निर्मलता और समर्पण को समझ पाना है, जिसमें स्व-तिरोहित होकर दिव्य में अपनी पहचान पाना है। पर जो बात इस किताब को बाकी टीका से अलग करती है, वो है पंडित जी की भारतीय काव्य की गहरी समझ। वे रामायण में विभिन्न रसों के उद्दीपन और उपस्थिति की बात करते हैं। दूसरे खंड का व्याख्यान ‘रामस्य करणो रस:’, इस पुस्तक के सबसे मार्मिक व्याख्यानों में से एक है।

भवभूति के उत्तररामचरितम के बहाने पंडित जी हमें उन सारे कष्टों और दुख की याद दिलाते हैं, जो राम-सीता ने अपने जीवन में सहे थे। तमाम शोक से गुजरते राम-सीता अत्यंत मानवीय नजर आते हैं और हम उनके दुख में संपूर्ण मानव जाति के दुखों का आश्रय देखते हैं। यह देखना बहुत रोचक है कि कैसे प्राचीन भारत की नाट्य कला तकनीकी और मर्म दोनों ही अर्थों में इतनी संपन्न थी। पंडित जी परत-दर-परत इस कला को खोलते हैं और नाटक की काव्यात्मकता के साथ ही साथ हमें रचनाकार के आशय से भी अवगत कराते हैं। अगर कोई प्रसंग है, तो क्यों है? किस अर्थ सिद्धि के लिए है? और कहां से संदर्भित है? पंडित जी इन सारी जिज्ञासाओं का समाधान करते हैं। इस पूरी कृति में एक गहरी अन्वेषक दृष्टि है, जो रामकथा ग्रंथों की वैचारिकी और भावनात्मक दोनों ही स्तर पर विवेचना करती है। जिस अधिकार से पंडित जी हमें प्राचीन काव्यों के विमर्श समझाते हैं, उतनी ही सहजता से वे हमें लोक में भी ले आते हैं, जहां राम कोई साहित्यिक या मिथकीय चरित्र नहीं, बल्कि एक जीवंत उपस्थिति के रूप में विद्यमान हैं। राम-सीता यहां इतिहास नहीं, वर्तमान हैं।

इसीलिए यहां राम की जयंती नहीं मनाई जाती, उनका जन्मोत्सव मनाया जाता है। सोहर, बधाई, बारहमासा, चैती, होरी, सावन जैसे गीतों में राम का ही स्मरण किया जाता है। लोकसाहित्य एवं लोकमानस की सूक्ष्मतम भावनाओं को पंडित जी ने बहुत गहराई से पकड़ा है। राम का दुलार है, तो उनसे शिकायतें भी हैं। ऐसे अनेक भाव हैं, जो राम के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति पाते हैं। पंडित जी इस किताब में मानव मन के गहनतम भावनात्मक द्वंद्वों पर प्रकाश डालते हैं। इस पारदर्शिता में एक गहरी दार्शनिकता का भी समावेश है, जो रामकथा के समक्ष जीवन के क्षोभ और अर्थ की खोज करता है। रामायण के सभी पात्रों से संवाद करते हुए हम मानव होने की जटिलताओं को कुछ बेहतर समझ पाते हैं। रामायण जैसे महाकाव्य के पुनर्पाठ एवं उसकी भारतीय जनमानस में उपस्थिति को समग्रता से समझने के लिए यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है।

यतीन्द्र मिश्र

रामायण का काव्यमर्म

विद्यानिवास मिश्र

धर्म/संस्कृति

पहला संस्करण, 2001

प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य: 225 रुपए

मयूरपंख : हिंदुस्तानी भाषा-साहित्य का अध्ययन

फ्रांस के विद्वान गार्सां द तासी उन आरंभिक भाषाविज्ञानियों में रहे हैं, जिन्होंने उर्दू-हिंदी अथवा हिंदुस्तानी साहित्य का पहला इतिहास-ग्रंथ लिखा। वे कभी भारत नहीं आए, मगर तीन बार इंग्लैंड जाने पर उन्होंने भारत संबंधी साहित्य संग्रह का जितना अध्ययन किया, उसके आधार पर अपना शोध प्रस्तुत किया। तार्सी हिंदी-उर्दू के खास पहलुओं पर न सिर्फ प्रकाश डालते हैं, बल्कि भारतीय साहित्य को निकृष्ट बताने वाले यूरोपीय अफसरों, विद्वानों की आलोचनाओं का तर्कपूर्ण जवाब भी देते हैं। हिंदुस्तानी भाषा और साहित्य: 1850-1860’ का मूल फ्रेंच से अनुवाद किशोर गौरव ने किया है। यह पुस्तर्क हिंदुस्तानी भाषा के साहित्य पर उस कालखंड का विवेचन प्रस्तुत करता है, जब भारत अपने पहले स्वतंत्रता आंदोलन से गुजर रहा था। 1857 के विद्रोह की विफलता के बाद ब्रिटिश सरकार ने जो दमन-चक्र चलाया, उसर्ने हिंदुस्तान को भारी सांस्कृतिक क्षति पहुंचाई। इस अर्थ में तासी के व्याख्यान उस सांस्कृतिक इतिहास को पुनर्जीवित करते हैं, जो इस विद्रोह की असफलता के बाद नजरअंदाज हो गई थी। ऐतिहासिक कृति, जो संग्रहणीय भी है।

यतीन्द्र मिश्र

हिंदुस्तानी भाषा और साहित्य 1850-1860

गार्सां द तासी

अनुवाद: किशोर गौरव

भाषा विज्ञान/इतिहास

पहला संस्करण, 2021

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य: 295 रुपए


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