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अमृत महोत्सव : क्रांति की गुमनाम नायिका थीं बूढ़ी गांधी, 62 की उम्र तक पता नहीं था क्या है स्वाधीनता आंदोलन

स्वतंत्रता आंदोलन में तिरंगा हाथ में थामकर जान देने वाली बूढ़ी गांधी के नाम से पहचानी गईं गुमनाम क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा की गांधीजी के असहयोग सविनय अवज्ञा आंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन और नमक सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका रही।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Fri, 10 Dec 2021 03:41 PM (IST)Updated: Fri, 10 Dec 2021 03:41 PM (IST)
अमृत महोत्सव : क्रांति की गुमनाम नायिका थीं बूढ़ी गांधी, 62 की उम्र तक पता नहीं था क्या है स्वाधीनता आंदोलन
अमृत महोत्सव में बूढ़ी गांधी की गुमनाम कहानी।

उनकी उम्र बेशक 62 हो गई थी, लेकिन स्वाधीनता के आंदोलन में कूदने से वह स्वयं को नहीं रोक सकीं। अपने क्षेत्र में आंदोलन की कमान थामी, तिरंगा हाथ में लिया और 72 साल की होते-होते अपनी जान की बाजी लगा दी। उनका नाम तो मातंगिनी हाजरा था, लेकिन वह पूरी तरह से गांधीवादी बन गईं, एक चरखा ले लिया, खादी पहनने लगीं और तन-मन से लोगों की सेवा में जुट गईं। महिलाओं का स्वाभिमान जगाने वाली मातंगिनी को लोगों द्वारा इतना सम्मान मिला कि वह बूढ़ी गांधी के नाम से मशहूर हो गई थीं...। इन गुमनाम नायिका के जीवन पर डा. मेघना शर्मा इतिहासकार, कवयित्री, कथाकार, संकाय सदस्य, इतिहास विभाग, महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर राजस्थान का खास आलेख..।

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मातंगिनी हाजरा की गांधीजी के असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और नमक सत्याग्रह में सक्रिय भूमिका रही। एक राष्ट्रवादी के रूप में वह बहिष्कार और प्रतिरोध की रणनीति के साथ गांधीवादी कार्य पद्धति में पूर्ण आस्था रखती थीं। उनके एक आह्वान पर हजारों महिलाएं घरों से निकलकर मार्च में शामिल हो जाती थीं। ऐसी महान विभूति शहीद मातंगिनी के बारे में युवा पीढ़ी का जानना बेहद आवश्यक है। अमृत महोत्सव के इस वर्ष में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हुई इस गुमनाम नायिका को कई बार याद किया है।

झेला बाल विवाह का दंश

वर्तमान बांग्लादेश और तत्कालीन पूर्वी बंगाल के मिदनापुर जिले के होगला ग्राम में एक अत्यंत निर्धन परिवार में 19 अक्टूबर, 1870 को मातंगिनी ने जन्म लिया। उन्हें बाल विवाह का दंश झेलना पड़ा। अत्यंत निर्धनता के चलते उनका विवाह मात्र 12 वर्ष की आयु में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया। वह 18 वर्ष की उम्र में नि:संतान बाल विधवा हो गईं। सौतेल बच्चों ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया। वह नजदीकी शहर तामलुक में एक झोपड़ी बनाकर रहने और मजदूरी कर जीवनयापन करने पर मजबूर हो गईं। ऐसे ही अकेले रहते-रहते उनको 44 साल और बीत गए। अपने गांव और घर से बाहर की उनकी जिंदगी बड़ी सीमित थी।

नंगे पैर चलने की सजा काटी

62 साल की उम्र तक तो मातंगिनी हाजरा को यह भी पता नहीं था कि स्वाधीनता आंदोलन है क्या? लेकिन जब उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार दिखा और लोगों से गांधीजी के बारे में पता चला तो वह इस ओर अग्रसर हुईं। वर्ष 1932 में जब एक दिन वंदेमातरम् का उद्घोष करते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक जुलूस उनके घर के पास से निकला तो 62 साल की मातंगिनी ने बंगाली परंपरा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दीं। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में हुई एक सभा में मातंगिनी ने सबके साथ स्वाधीनता संग्राम में तन-मन-धन से संघर्ष करने की शपथ ली। उन्होंने नमक बनाकर नमक विरोधी कानून भी तोड़ा, गिरफ्तार हुईं और कई किलोमीटर तक नंगे पैर चलने की सजा भी काटी।

यूं मिला बूढ़ी गांधी का नाम

अनपढ़ मातंगिनी पर जल्दी ही देशभक्ति का रंग पूरी तरह चढ़ गया। उनका अपना कोई परिवार नहीं था तो वह दुख-दर्द में हर महिला की सहायता करने लगीं। उसी वक्त इलाके में चेचक, हैजा जैसी बीमारियां फैल गईं। बिना बच्चों वाली मातंगिनी सबके लिए मां बन गईं और महिलाओं को स्वाधीनता आंदोलन से जोडऩे के काम में जुट गईं। धीरे-धीरे अन्य महिलाएं भी उनके साथ प्रदर्शनों में हिस्सा लेने लगीं। जनवरी 1933 में करबंदी आंदोलन को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एंडरसन तामलुक आए तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ।

वीरांगना मातंगिनी हाजरा सबसे आगे काला झंडा लिए डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाने लगीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बंद कर दिया। जेल में वह अन्य गांधीवादियों के संपर्क में आ गईं। जेल से बाहर आकर उन्होंने एक चरखा ले लिया और खादी पहनने लगीं तो लोग उन्हें बूढ़ी गांधी के नाम से पुकारने लगे।

तिरंगा नहीं छोड़ा

जब उनकी उम्र 72 पार कर चुकी थी तब उन्होंने तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली। तय किया गया कि मिदनापुर के सभी सरकारी कार्यालयों और थानों पर तिरंगा फहराकर अंग्रेजी राज खत्म कर दिया जाए। सितंबर 1942 में एक दिन एक बड़ा जुलूस तामलुक की कचहरी और पुलिस लाइन पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ा। मातंगिनी इसमें सबसे आगे रहना चाहती थीं, किंतु पुरुषों के रहते एक महिला को संकट में डालने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। करीब छह हजार समर्थकों के इस जुलूस में ज्यादातर महिला स्वयंसेवक थीं, जिनका नेतृत्व मातंगिनी ने किया, लेकिन जैसे ही जुलूस आगे बढ़ा अंग्रेजी सेना ने बंदूकें तान लीं और प्रदर्शनकारियों को रुक जाने का आदेश दिया।

इससे जुलूस में खलबली मच गई और लोग बिखरने लगे। ठीक इसी समय जुलूस के बीच से निकलकर मातंगिनी सबसे आगे आ गईं। मातंगिनी लोगों का उत्साह कम होते नहीं देखना चाहती थीं। उन्होंने तिरंगा झंडा अपने हाथ में ले लिया और कहा मैं फहराऊंगी तिरंगा, आज मुझे कोई नहीं रोक सकता। वंदेमातरम् के उद्घोष के साथ वह आगे बढ़ीं। वह पुलिस की चेतावनी पर भी नहीं रुकीं। लोग उनकी ललकार सुनकर फिर से एकत्र हो गए। इस पर अंग्रेजी सेना ने चेतावनी दी और फिर गोली चला दी। पहली गोली मातंगिनी के पैर में लगी। फिर भी वह आगे बढ़ती गईं तो उनके हाथ को निशाना बनाया गया, लेकिन उन्होंने तिरंगा नहीं छोड़ा। इस पर तीसरी गोली उनके सीने पर मारी गई। इस तरह आजादी के आंदोलन की यह वीरांगना भारत माता के चरणों मे शहीद हो गई।


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