भारत कैसे स्वतंत्र हुआ.., स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी की एक किताब में है रहस्य का सच
जो कोई इतिहास को पढ़ता है तो वह स्वाभाविक रूप से यह नहीं समझ पाता कि भारत कैसे स्वतंत्र हुआ! भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी व लेखक मन्मथनाथ गुप्त ने ‘क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक इतिहास’ किताब में उजागर किया है।
क्रांतिकारी आंदोलन के संबंध में लोगों के मन में सदा जिज्ञासा रही और क्रांतिकारियों के बारे में नित नए विचार सामने आते रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध क्रांतिकारी व लेखक मन्मथनाथ गुप्त ने अपनी पुस्तकों में क्रांतिकारी युवा आंदोलनों को नदी की भांति बताया और इसकी तमाम धाराओं-विचारधाराओं को भी स्पष्ट किया। पढ़िए उनकी किताब ‘क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक इतिहास’ का अंश...
स्मरण रहे कि यह सन 1908 की बात है, जब भारत में देशभक्ति की चेतना बहुत ही शैशवावस्था में थी। कन्हाईलाल ने जेल में मुखबिर को महज एक गोली मारी थी, उसने युगचेतना को किस प्रकार झिझोड़ा था और किस प्रकार से उस घटना का संबंध अदृश्य छोटे-छोटे तारों के द्वारा बल्कि बेतार के द्वारा जनता के साथ था, किस प्रकार जनता का हृदय फांसीघर में बंद होनहार शहीद के साथ धड़कता था, यह एक द्रष्टव्य बात है। दुख है कि इतिहासकार ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते। जब इस युग का इतिहास लिखा जाता है तो उसमें कांग्रेस आएगी और संस्थाएं आएंगी, उनके बेतुके प्रस्तावों के ब्यौरे रहेंगे, पर जो घटना लाखों लोगों को, बच्चों और स्त्रियों तक को, श्मशान भूमि में रुला रही थी, उन्हें व्याकुल कर रही थी व बलिदान के लिए जनकवियों को मुखर बना रही थी, उसका इतिहास उसमें नहीं आएगा। इसका नतीजा यह है कि जो कोई इन इतिहासों को पढ़ता है, वह कार्य कारण समझ नहीं पाता, वह स्वाभाविक रूप से यह नहीं समझ पाता कि भारत कैसे स्वतंत्र हुआ!
गत वर्षों में बार-बार यह कहा गया है मानो भारतीय सभ्यता में एकमात्र विचारधारा अहिंसा की ही हो। इस मत को बलपूर्वक मिथ्याग्रह के साथ स्थापित करने के लिए गीता की नई टीका लिखी गई और सैकड़ों वर्षों से प्रचलित गीता की व्याख्याओं को झुठलाकर काल्पनिक रूप में यह प्रमाणित करने की चेष्टा की गई कि भारतीय सभ्यता में एकदम से बुद्ध, महावीर हुए और उसके बाद गांधी जी आए। अवश्य ही भारतीय सभ्यता में बुद्ध और महावीर का स्थान बहुत ऊंचा है और उन लोगों ने यहां के चिंतन को समृद्ध किया और उसमें चार चांद लगाए पर बुद्ध और महावीर के अस्तित्व को अस्वीकार न करते हुए भी हम यह कैसे भुला सकते हैं कि भारतीय परंपरा में परशुराम, भगवान राम और श्री कृष्ण का बहुत बड़ा स्थान है।
गीता में कहा गया है कि ‘जब-जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं धर्म के संस्थापन के लिए और दुष्कृत्यों के विनाश के लिए हर युग में पैदा होता हूं।’ यहां पर केवल ‘विनाश’ शब्द के बूते पर ही नहीं बल्कि अवतारों के प्रसंग में जो उदाहरण दिए जाते हैं, उस संबंध में कल्कि की धारणा भी विचारणीय है, उनसे यही प्रमाणित होता है कि नैतिक बल के अतिरिक्त अस्त्र-बल से भी बलशाली होना जरूरी है। यह माना गया है कि शस्त्र से रक्षित देश में ही शास्त्र की चर्चा हो सकती है।
चीनी और पाक (या नापाक) आक्रमणों से हमारी आंखों पर अहिंसा को भारतीय सभ्यता की परंपरा का एकमात्र तरीका समझने की जो मोतियाबिंद वाली जाली तान दी गई थी, वह कट गई। वर्षों के एकतरफा सरकारी और गैर-सरकारी प्रचार कार्य का पर्दाफाश हुआ और लोगों को अच्छी तरह समझ में आने लगा है कि बुद्ध और महावीर जैसे लोग चिंतन की पराकाष्ठा और एवरेस्ट शिखर का पता देते हैं, उसी प्रकार परशुराम, भगवान राम, श्री कृष्ण से होते हुए राणा सांगा, शिवाजी, रासबिहारी बोस, लाला हरदयाल, सावरकर, मदनलाल धींगड़ा, लोकमान्य तिलक, खुदीराम बोस, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद आदि भी हमारी सभ्यता के एक दूसरे एवरेस्ट का पता देते हैं।
मनुष्य का मन द्वंद्वात्मक माना गया है, इसी प्रकार राष्ट्र का मन भी द्वंद्वात्मक हो सकता है। सच बात तो यह है कि हर ऊंची और जीवन से स्पंदनशील सभ्यताओं में अनुकंपा और दंड दोनों तत्व देखे जा सकते हैं। इनमें से प्रथम तत्व की अति हो जाए तो वह समाज टिक नहीं सकता क्योंकि वह नपुंसक समाज हो जाएगा, जिसकी आड़ लेकर कायर बहादुरों के सिंहासन पर बैठकर मूंछों पर ताव देने लगेंगे, साथ ही जहां नैतिक पक्ष को छोड़कर केवल हिंपर जोर होगा, वहां हिटलरी नंगा नाच दिखाई पड़ेगा।
गांधीवाद की तरफ से क्रांतिकारियों को हिंसावादी कहा गया और ब्रिटिश सरकार की तरफ से वे आतंकवादी घोषित किए गए। जबकि क्रांतिकारियों ने जब भी अपने को व्यक्त किया, तो अपने को ‘काउंटर टेरेरिस्ट’ या प्रत्यातंकवादी कहा। इसका मतलब यह था कि आतंकवादी तो ब्रिटिश सरकार है, वे तो महज अपनी तुच्छ सामथ्र्य के अनुसार उसका यदा-कदा कुछ जवाब दे देते हैं, ताकि जनता को यह ज्ञान हो जाए कि अभी राष्ट्र की आत्मा जीवित है, उसमें धड़कनें जारी हैं, वह संग्राम करने को तैयार है और वह वास्तविक रूप से संग्राम कर रही है।
आतंक के तो सारे साधन ब्रिटिश सरकार के हाथों में थे।
जेलें थीं, अदालतें थीं, पुलिस थी, फौज थी और सर्वोपरि मिथ्या प्रचार था। ब्रिटिश सरकार अपने इन साधनों का उपयोग भी बखूबी करती थी। ‘वंदे मातरम्’ कहने पर सिर पर लाठियां पड़ती थीं, अखबार के संपादकों, राष्ट्रीय कविता के रचयिता कवियों को काले पानी की सजा दी जाती थी। इस संबंध में स्मरणीय है कि ‘स्वराज्य’ नामक एक अखबार के आठ संपादकों को 1908 में एक के बाद एक लंबी सजाएं दी गईं, कितने ही कवियों को काले पानी भेज दिया गया, लोकमान्य तिलक को खुदीराम की प्रशंसा करने पर लंबी सजा हुई इत्यादि-इत्यादि।
यह बहुत ही ध्यान देने योग्य है, जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि गांधीवादी असहयोग आंदोलन (1921) के पहले स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर केवल क्रांतिकारी आंदोलन था और उसका एक लंबा इतिहास बन चुका था, जैसा कि मैंने दिखलाया है। वह इतिहास ऐसा था कि जो आज के परिप्रेक्ष्य में भी न छोटा पड़ा, न मद्धिम हुआ, बल्कि सच कहा जाए तो ज्यों-ज्यों इतिहास आगे बढ़ता जा रहा है, त्यो-त्यो उसके कांच के अंदर से वे घटनाएं तो बड़ी होती जा रही हैं और बाद की घटनाएं छोटी होती जा रही हैं।